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हिंदी साहित्य का इतिहास: छायावाद

छायावाद हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी आंदोलन है, जिसने कविता को एक नए आयाम पर पहुंचाया। यह हिंदी कविता का स्वर्णिम युग माना जाता है, विशेषकर आधुनिक काव्यधारा के संदर्भ में। छायावाद ने कविता में व्यक्तिगत भावनाओं, प्रकृति, रहस्यवाद और कल्पनाशीलता को प्रमुखता दी, जो द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता के प्रतिक्रिया स्वरूप उभरा।

1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • समयावधि: आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार 1918 से 1936 तक। कुछ विद्वान इसका आरंभ 1910 से भी मानते हैं।
  • राजनीतिक परिदृश्य: भारत में स्वाधीनता आंदोलन का उभार, गांधीवादी विचारधारा का प्रभाव, राष्ट्रीय चेतना का विकास।
  • सामाजिक स्थिति: पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव, आधुनिकता का प्रवेश, नारी शिक्षा और स्वतंत्रता की ओर रुझान।
  • साहित्यिक परिवेश: अंग्रेजी (रोमांटिकवाद) और बांग्ला साहित्य (रवींद्रनाथ टैगोर) का गहरा प्रभाव। द्विवेदी युग की उपदेशात्मकता और स्थूलता से मुक्ति की चाह।

2. छायावाद का अर्थ एवं स्वरूप

‘छायावाद’ शब्द को लेकर विभिन्न विद्वानों में मतभेद रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘शैली वैचित्र्य’ मात्र माना, जबकि अन्य आलोचकों ने इसे एक व्यापक जीवन-दृष्टि और काव्य-शैली के रूप में परिभाषित किया।

  • लाक्षणिकता और व्यंजना: इसमें सीधे-सीधे बात कहने के बजाय प्रतीकों, बिंबों और लाक्षणिक भाषा का प्रयोग किया गया।
  • आत्माभिव्यक्ति: कवियों ने अपनी निजी अनुभूतियों, सुख-दुःख और प्रेम को खुलकर अभिव्यक्त किया।
  • रहस्यवाद: अज्ञात सत्ता के प्रति जिज्ञासा और प्रेम की भावना। प्रकृति में अलौकिक सत्ता का अनुभव।
  • प्रकृति का मानवीकरण: प्रकृति को जड़ न मानकर चेतन सत्ता के रूप में देखा गया और उस पर मानवीय भावनाओं का आरोप किया गया।

3. छायावाद की प्रमुख विशेषताएँ

  • व्यक्तिवाद: व्यक्तिगत भावनाओं, अनुभूतियों और कल्पनाओं की प्रधानता। कवि अपनी निजी भावनाओं को अभिव्यक्त करता है।
  • प्रकृति प्रेम और मानवीकरण: प्रकृति को सजीव सत्ता मानकर उस पर मानवीय क्रियाओं और भावनाओं का आरोप। प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि काव्य का केंद्रीय विषय बनी।
  • रहस्यवाद: अज्ञात और अलौकिक सत्ता के प्रति जिज्ञासा, प्रेम और समर्पण का भाव। यह भक्ति काल के रहस्यवाद से भिन्न है, इसमें व्यक्तिगत अनुभूति की प्रधानता है।
  • कल्पनाशीलता: कल्पना का उच्च स्तर पर प्रयोग, जिससे कविता में नवीनता और सौंदर्य आया।
  • नारी चेतना: नारी को केवल भोग्या न मानकर उसे सम्मान, सौंदर्य और शक्ति के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया। नारी मुक्ति और उसकी भावनाओं का चित्रण।
  • स्वतंत्रता और स्वाभिमान: राष्ट्रीय चेतना और स्वाधीनता की भावना का अप्रत्यक्ष किंतु गहरा प्रभाव। पराधीनता के प्रति सूक्ष्म विरोध।

4. भाषा और शैली

  • खड़ी बोली हिंदी का उत्कर्ष: खड़ी बोली हिंदी को काव्य भाषा के रूप में पूर्णतः स्थापित किया गया, उसे मधुरता और लयात्मकता प्रदान की गई।
  • संस्कृतनिष्ठ शब्दावली: भाषा को परिष्कृत और गंभीर बनाने के लिए संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया।
  • नवीन छंदों और अलंकारों का प्रयोग: परंपरागत छंदों के साथ-साथ नवीन छंदों का प्रयोग और मानवीकरण, विशेषण विपर्यय, विरोधाभास जैसे अलंकारों की बहुलता।
  • लाक्षणिकता और प्रतीकात्मकता: सीधे अर्थ के बजाय लाक्षणिक और प्रतीकात्मक भाषा का प्रयोग, जिससे कविता में गहराई और सौंदर्य आया।

5. प्रमुख रचनाकार और उनकी रचनाएँ (छायावाद के चार स्तंभ)

  • जयशंकर प्रसाद (1889-1937):
    • रचनाएँ: कामायनी (महाकाव्य – मानव सभ्यता के विकास और आनंदवाद पर आधारित), आँसू (विरह काव्य), झरना (छायावाद की प्रथम प्रयोगशाला मानी जाती है), लहर।
    • विशेषताएँ: दर्शन और अध्यात्म का समावेश, भाषा में कोमलता और सांगीतिकता, मानव जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण, ऐतिहासिक और पौराणिक विषयों का नवीन दृष्टि से चित्रण।
  • सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (1896-1961):
    • रचनाएँ: परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, सरोज स्मृति (शोकगीत)।
    • विशेषताएँ: छंद मुक्त कविता के प्रवर्तक (मुक्त छंद), सामाजिक विषमताओं और रूढ़ियों का चित्रण (जैसे ‘भिक्षुक’, ‘वह तोड़ती पत्थर’), भाषा में नवीनता, ओज और प्रयोगधर्मिता, विद्रोह का स्वर।
  • सुमित्रानंदन पंत (1900-1977):
    • रचनाएँ: पल्लव (छायावाद का घोषणापत्र), वीणा, गुंजन, युगवाणी, ग्राम्या (प्रगतिवादी), लोकायतन (महाकाव्य)।
    • विशेषताएँ: प्रकृति के सुकुमार कवि, सौंदर्य और कोमलता का वर्णन, भाषा में मधुरता और लयात्मकता, बाद में प्रगतिवाद और अरविंद-दर्शन से प्रभावित।
  • महादेवी वर्मा (1907-1987):
    • रचनाएँ: नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, यामा (जिसके लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला)।
    • विशेषताएँ: वेदना और करुणा की कवयित्री (आधुनिक मीरा), नारी मन की सूक्ष्म अभिव्यक्ति, रहस्यवादी भावना, भाषा में कोमलता, संवेदनशीलता और चित्रात्मकता।

6. छायावाद का साहित्यिक योगदान और प्रभाव

  • खड़ी बोली हिंदी का उत्कर्ष: छायावाद ने खड़ी बोली को कविता की भाषा के रूप में पूर्णतः स्थापित किया और उसे भावों की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के योग्य बनाया।
  • कविता में विषयों की विविधता: व्यक्तिगत भावनाओं, प्रकृति, रहस्यवाद, नारी चेतना, राष्ट्रीय भावना जैसे नवीन विषयों का समावेश हुआ।
  • भाषा और शैली का विकास: नवीन शब्दावली, बिंब, प्रतीक, लाक्षणिकता और अलंकारों के प्रयोग से हिंदी काव्य की शैली में अभूतपूर्व निखार आया।
  • सामाजिक चेतना: यद्यपि यह व्यक्तिगत भावनाओं पर केंद्रित था, फिर भी इसमें राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक विषमताओं के प्रति एक सूक्ष्म विरोध का स्वर भी था।
  • आधुनिक हिंदी कविता का विकास: छायावाद ने हिंदी कविता को आधुनिक दिशा दी और बाद के प्रगतिवाद, प्रयोगवाद आदि आंदोलनों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
  • नवीन रचनाकारों को प्रेरणा: छायावाद ने अनेक नए कवियों और लेखकों को अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने की प्रेरणा दी।
  • साहित्य में स्त्री की भूमिका: नारी चेतना को प्रमुखता मिली और नारी को साहित्य में एक गरिमामय स्थान प्राप्त हुआ।

निष्कर्ष

छायावाद हिंदी साहित्य के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय है, जिसने कविता को स्थूलता से मुक्ति दिलाकर उसे सूक्ष्मता, सौंदर्य और भावुकता से भर दिया। इसके कवियों ने अपनी अद्वितीय कल्पना और भाषा-शैली से हिंदी काव्य को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया, जिसका प्रभाव आज भी आधुनिक हिंदी साहित्य पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

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