न्यायपालिका (Judiciary) भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है, जो कानूनों की व्याख्या करने, न्याय प्रदान करने और संविधान की रक्षा करने के लिए जिम्मेदार है। भारत में एक एकल और एकीकृत न्यायिक प्रणाली है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है, उसके बाद उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय आते हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय संविधान की एक मौलिक विशेषता है।
1. भारतीय न्यायपालिका की संरचना (Structure of Indian Judiciary)
भारत में एक पदानुक्रमित और एकीकृत न्यायिक प्रणाली है।
1.1. सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court)
- संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान का भाग V (अनुच्छेद 124 से 147) सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित है।
- गठन: इसमें एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India – CJI) और संसद द्वारा निर्धारित अन्य न्यायाधीश होते हैं। वर्तमान में, CJI सहित कुल 34 न्यायाधीश हैं।
- नियुक्ति: राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- कार्यकाल: 65 वर्ष की आयु तक।
- हटाना: संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा राष्ट्रपति के आदेश पर हटाया जा सकता है (साबित कदाचार या अक्षमता के आधार पर)।
- मुख्यालय: नई दिल्ली।
1.2. उच्च न्यायालय (High Courts)
- संवैधानिक प्रावधान: भारतीय संविधान का भाग VI (अनुच्छेद 214 से 231) उच्च न्यायालयों से संबंधित है।
- प्रत्येक राज्य में एक उच्च न्यायालय होता है, या दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय हो सकता है।
- नियुक्ति: राष्ट्रपति द्वारा CJI, संबंधित राज्य के राज्यपाल और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (यदि कोई हो) के परामर्श से की जाती है।
- कार्यकाल: 62 वर्ष की आयु तक।
1.3. अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts)
- ये जिला और निचली अदालतें होती हैं जो उच्च न्यायालयों के अधीन कार्य करती हैं।
- इनमें जिला न्यायालय, सत्र न्यायालय, न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट न्यायालय आदि शामिल हैं।
- इनका संगठन और क्षेत्राधिकार राज्य कानूनों द्वारा निर्धारित होता है।
2. न्यायपालिका की स्वतंत्रता (Independence of Judiciary)
न्यायपालिका की स्वतंत्रता भारतीय लोकतंत्र की एक आधारशिला है।
- नियुक्ति का तरीका: न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका का सीमित हस्तक्षेप। कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- कार्यकाल की सुरक्षा: न्यायाधीशों को उनके कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है और उन्हें केवल संविधान में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही हटाया जा सकता है।
- वेतन और भत्ते: न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते संसद द्वारा निर्धारित होते हैं और उनकी नियुक्ति के बाद उन्हें कम नहीं किया जा सकता है। ये भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) पर भारित होते हैं।
- संसद में आचरण पर चर्चा नहीं: न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में चर्चा नहीं की जा सकती, सिवाय महाभियोग प्रस्ताव के।
- सेवानिवृत्ति के बाद वकालत पर प्रतिबंध: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद भारत में किसी भी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकते।
- शक्तियों का पृथक्करण: न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका से अलग रखा गया है (अनुच्छेद 50)।
3. सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ (Jurisdiction and Powers of the Supreme Court)
सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोच्च न्यायिक निकाय है और इसके पास व्यापक शक्तियाँ हैं।
- मूल क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction – अनुच्छेद 131):
- केंद्र और राज्यों के बीच विवाद।
- राज्यों के बीच विवाद।
- रिट क्षेत्राधिकार (Writ Jurisdiction – अनुच्छेद 32):
- मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए पांच प्रकार की रिट जारी करने की शक्ति: बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), उत्प्रेषण (Certiorari) और अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto)।
- उच्च न्यायालयों के पास भी रिट जारी करने की शक्ति है (अनुच्छेद 226)।
- अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction – अनुच्छेद 132-136):
- संवैधानिक मामलों में अपील।
- दीवानी मामलों में अपील।
- आपराधिक मामलों में अपील।
- विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition – SLP)।
- सलाहकारी क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction – अनुच्छेद 143):
- राष्ट्रपति सार्वजनिक महत्व के किसी भी कानूनी या तथ्यात्मक प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से सलाह मांग सकते हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय सलाह देने के लिए बाध्य नहीं है, और राष्ट्रपति भी सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं हैं।
- अभिलेख न्यायालय (Court of Record – अनुच्छेद 129):
- सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय और कार्यवाही रिकॉर्ड के रूप में रखी जाती हैं और सभी अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकारी होती हैं।
- इसके पास अपनी अवमानना के लिए दंडित करने की शक्ति है।
- न्यायिक समीक्षा (Judicial Review – अनुच्छेद 13, 32, 226):
- सर्वोच्च न्यायालय के पास विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों और कार्यपालिका द्वारा किए गए कार्यों की संवैधानिकता की समीक्षा करने की शक्ति है।
- यदि कोई कानून या कार्यकारी कार्य संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो उसे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।
- संविधान का संरक्षक: सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम व्याख्याकार और संरक्षक है।
4. न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका (Judicial Activism and Public Interest Litigation – PIL)
न्यायिक सक्रियता और PIL ने भारतीय न्यायपालिका की भूमिका को और अधिक गतिशील बनाया है।
- न्यायिक सक्रियता:
- जब न्यायपालिका अपनी पारंपरिक भूमिका से आगे बढ़कर विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्रों में हस्तक्षेप करती है, ताकि न्याय सुनिश्चित किया जा सके।
- यह अक्सर तब होती है जब विधायिका और कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का पालन करने में विफल रहते हैं।
- जनहित याचिका (PIL):
- PIL एक ऐसा तंत्र है जहाँ कोई भी व्यक्ति या संगठन सार्वजनिक हित के मामले में न्याय के लिए न्यायालय में जा सकता है, भले ही वह सीधे प्रभावित न हो।
- भारत में न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती और न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर को PIL का जनक माना जाता है।
- PIL ने न्याय तक पहुंच को आसान बनाया है, खासकर वंचित वर्गों के लिए।
5. न्यायपालिका के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges to Judiciary)
भारतीय न्यायपालिका को अपने प्रभावी कामकाज में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
- मामलों का भारी बोझ: न्यायालयों में लाखों मामले लंबित हैं, जिससे न्याय मिलने में देरी होती है।
- न्यायाधीशों की कमी: न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या और वास्तविक संख्या के बीच बड़ा अंतर है।
- बुनियादी ढांचे का अभाव: न्यायालयों में पर्याप्त बुनियादी ढांचे, प्रौद्योगिकी और सहायक कर्मचारियों की कमी।
- भ्रष्टाचार के आरोप: न्यायपालिका के कुछ स्तरों पर भ्रष्टाचार के आरोप।
- न्यायिक सक्रियता की सीमाएँ: न्यायिक सक्रियता कभी-कभी शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन कर सकती है।
- कार्यपालिका से हस्तक्षेप: न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के आरोप।
- न्यायिक जवाबदेही: न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए तंत्र की कमी।
6. न्यायिक सुधार (Judicial Reforms)
भारतीय न्याय प्रणाली को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न सुधारों की आवश्यकता है।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुधार: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) जैसे तंत्रों पर बहस।
- मामलों के निपटान में तेजी: वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र (जैसे मध्यस्थता, सुलह), फास्ट ट्रैक कोर्ट, और ई-कोर्ट का उपयोग।
- बुनियादी ढांचे का उन्नयन: न्यायालयों के लिए बेहतर बुनियादी ढांचे और प्रौद्योगिकी का प्रावधान।
- न्यायिक जवाबदेही: न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए तंत्र।
- न्यायिक शिक्षा और प्रशिक्षण: न्यायाधीशों और वकीलों के लिए निरंतर प्रशिक्षण।
- विशिष्ट न्यायालय: विशेष प्रकार के मामलों (जैसे पर्यावरण, वाणिज्यिक) के लिए विशिष्ट न्यायालयों का गठन।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
भारतीय न्यायपालिका लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण संरक्षक है, जो संविधान की रक्षा करती है और नागरिकों को न्याय प्रदान करती है। एक एकीकृत और स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली के साथ, सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है, जिसके पास व्यापक मूल, अपीलीय, रिट और सलाहकार क्षेत्राधिकार हैं। न्यायिक समीक्षा और जनहित याचिका ने न्यायपालिका की भूमिका को और अधिक गतिशील बनाया है, जिससे यह सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में सक्रिय रही है। हालांकि, मामलों का भारी बोझ, न्यायाधीशों की कमी और बुनियादी ढांचे का अभाव जैसी चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं। इन चुनौतियों का सामना करने और न्याय प्रणाली को अधिक सुलभ, कुशल और जवाबदेह बनाने के लिए निरंतर सुधारों की आवश्यकता है, ताकि यह भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को प्रभावी ढंग से बनाए रख सके।