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राज्यों का पुनर्गठन (Reorganization of States)

राज्यों का पुनर्गठन (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

राज्यों का पुनर्गठन (Reorganization of States) स्वतंत्र भारत के इतिहास की एक महत्वपूर्ण और जटिल प्रक्रिया थी, जिसमें देश के राज्यों की सीमाओं और संरचना को भाषाई, सांस्कृतिक और प्रशासनिक आधारों पर फिर से परिभाषित किया गया। यह प्रक्रिया भारत की विशाल विविधता को समायोजित करने और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के लिए आवश्यक थी।

1. पृष्ठभूमि और मांग के कारण (Background and Reasons for Demand)

स्वतंत्रता से पहले ही भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग उठने लगी थी।

  • भाषाई पहचान: भारत में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं, और लोगों में अपनी भाषाई पहचान के प्रति गहरी भावना थी। वे चाहते थे कि एक ही भाषा बोलने वाले लोग एक ही राज्य में रहें।
  • राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान समर्थन: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वतंत्रता से पहले ही भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के सिद्धांत का समर्थन किया था (जैसे नागपुर अधिवेशन, 1920 में)।
  • प्रशासनिक सुविधा: ब्रिटिश प्रांत अक्सर भाषाई और सांस्कृतिक एकरूपता के बिना बनाए गए थे, जिससे प्रशासनिक कठिनाइयाँ होती थीं।
  • आर्थिक असमानताएँ: कुछ क्षेत्रों में भाषाई पहचान के साथ-साथ आर्थिक पिछड़ेपन की भावना भी जुड़ी हुई थी, जिससे अलग राज्य की मांग तीव्र हुई।
  • क्षेत्रीय आकांक्षाएँ: लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाएँ और स्वयं-शासन की इच्छा भी भाषाई राज्यों की मांग का एक महत्वपूर्ण कारण थी।

2. प्रारंभिक समितियाँ और आयोग (Early Committees and Commissions)

स्वतंत्रता के बाद, भाषाई राज्यों की मांग पर विचार करने के लिए कई समितियाँ और आयोग गठित किए गए।

  • धर आयोग (SK Dhar Commission) – 1948:
    • भारत सरकार ने जून 1948 में एस.के. धर की अध्यक्षता में भाषाई प्रांत आयोग का गठन किया।
    • आयोग ने दिसंबर 1948 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बजाय प्रशासनिक सुविधा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की सिफारिश की गई।
  • जेवीपी समिति (JVP Committee) – 1948:
    • धर आयोग की रिपोर्ट के बाद, कांग्रेस ने दिसंबर 1948 में जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल और पट्टाभि सीतारमैया (JVP) की एक समिति गठित की।
    • इस समिति ने भी भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया, हालांकि इसने माना कि जनभावनाओं को ध्यान में रखना चाहिए।

3. आंध्र प्रदेश का गठन और भाषाई राज्यों का आंदोलन (Formation of Andhra Pradesh and Linguistic States Movement)

तेलुगु भाषी लोगों के लिए एक अलग राज्य की मांग ने भाषाई पुनर्गठन आंदोलन को गति दी।

  • पोट्टी श्रीरामुलु का बलिदान:
    • मद्रास प्रेसीडेंसी से एक अलग तेलुगु भाषी राज्य की मांग को लेकर पोट्टी श्रीरामुलु ने 58 दिनों की भूख हड़ताल की।
    • 15 दिसंबर, 1952 को उनकी मृत्यु हो गई, जिससे पूरे तेलुगु भाषी क्षेत्र में व्यापक विरोध और हिंसा फैल गई।
  • आंध्र प्रदेश का गठन:
    • जनता के दबाव के कारण, भारत सरकार ने अक्टूबर 1953 में भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन की घोषणा की। यह भारत का पहला भाषाई राज्य था।

4. राज्य पुनर्गठन आयोग (States Reorganisation Commission – SRC) – 1953

आंध्र प्रदेश के गठन के बाद, भाषाई राज्यों की मांग पूरे देश में फैल गई, जिससे एक आयोग का गठन किया गया।

  • गठन: दिसंबर 1953 में, भारत सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC) का गठन किया।
  • सदस्य:
    • फजल अली (अध्यक्ष)
    • के.एम. पणिक्कर (सदस्य)
    • एच.एन. कुंजरू (सदस्य)
  • रिपोर्ट: आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसने भाषाई आधार को राज्यों के पुनर्गठन का मुख्य आधार स्वीकार किया, लेकिन ‘एक भाषा-एक राज्य’ के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया।
  • सिफारिशें: आयोग ने 16 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों के गठन की सिफारिश की।

5. राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 (States Reorganisation Act, 1956)

SRC की सिफारिशों के आधार पर भारतीय संसद ने यह महत्वपूर्ण अधिनियम पारित किया।

  • अधिनियम का पारित होना: SRC की सिफारिशों को कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 पारित किया गया।
  • राज्यों का पुनर्गठन: इस अधिनियम के तहत, 14 राज्य और 6 केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए।
  • महत्वपूर्ण परिवर्तन:
    • आंध्र प्रदेश का गठन।
    • केरल, कर्नाटक (मैसूर), महाराष्ट्र (बंबई राज्य), गुजरात (बंबई राज्य से अलग होकर 1960 में) जैसे कई भाषाई राज्यों का निर्माण।
    • पुडुचेरी (1962), गोवा (1987) जैसे क्षेत्रों का भारत में विलय।

6. भाषाई पुनर्गठन के बाद के राज्य (States Formed After Linguistic Reorganization)

1956 के बाद भी, भाषाई और अन्य आधारों पर नए राज्यों का गठन जारी रहा।

  • महाराष्ट्र और गुजरात (1960): बंबई राज्य को विभाजित कर मराठी भाषी महाराष्ट्र और गुजराती भाषी गुजरात बनाए गए।
  • नागालैंड (1963): असम से अलग होकर नागालैंड को राज्य का दर्जा दिया गया।
  • पंजाब और हरियाणा (1966): पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 के तहत पंजाबी भाषी पंजाब और हिंदी भाषी हरियाणा बनाए गए। चंडीगढ़ को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया।
  • हिमाचल प्रदेश (1971): केंद्र शासित प्रदेश से पूर्ण राज्य का दर्जा।
  • मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय (1972): उत्तर-पूर्वी पुनर्गठन अधिनियम, 1971 के तहत।
  • सिक्किम (1975): 36वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1975 द्वारा भारत का 22वां राज्य बना।
  • मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, गोवा (1987): केंद्र शासित प्रदेशों से पूर्ण राज्य का दर्जा।
  • छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, झारखंड (2000):
    • छत्तीसगढ़: मध्य प्रदेश से अलग होकर।
    • उत्तराखंड (उत्तरांचल): उत्तर प्रदेश से अलग होकर।
    • झारखंड: बिहार से अलग होकर।
  • तेलंगाना (2014): आंध्र प्रदेश से अलग होकर भारत का 29वां राज्य बना।
  • जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019: जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों – जम्मू और कश्मीर, और लद्दाख – में विभाजित किया गया।

7. भाषाई पुनर्गठन के परिणाम और प्रभाव (Consequences and Impact of Linguistic Reorganization)

भाषाई पुनर्गठन के भारत पर दूरगामी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव पड़े।

  • सकारात्मक प्रभाव:
    • राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना: इसने भाषाई पहचान को समायोजित करके राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया, क्योंकि लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाएँ पूरी हुईं।
    • लोकतंत्र को गहरा करना: इसने स्थानीय भाषाओं में प्रशासन और शिक्षा को बढ़ावा दिया, जिससे लोकतंत्र अधिक समावेशी बना।
    • प्रशासनिक दक्षता: भाषाई एकरूपता ने प्रशासन को अधिक कुशल बनाया।
    • क्षेत्रीय भाषाओं का विकास: इसने क्षेत्रीय भाषाओं और संस्कृतियों के विकास को बढ़ावा दिया।
  • नकारात्मक प्रभाव / चुनौतियाँ:
    • अंतर-राज्यीय सीमा विवाद: भाषाई सीमाओं को लेकर राज्यों के बीच नए विवाद उत्पन्न हुए (जैसे महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा विवाद)।
    • जल विवाद: नदी जल बंटवारे को लेकर विवाद (जैसे कावेरी जल विवाद)।
    • अल्पसंख्यक भाषाओं की समस्या: भाषाई राज्यों में अल्पसंख्यक भाषाओं के बोलने वालों की समस्याएँ उत्पन्न हुईं।
    • उप-क्षेत्रीयता और नए राज्यों की मांग: भाषाई राज्यों के भीतर भी आर्थिक पिछड़ेपन या सांस्कृतिक भिन्नता के आधार पर अलग राज्यों की मांग उठने लगी (जैसे विदर्भ, गोरखालैंड, बोडोलैंड)।

8. निष्कर्ष (Conclusion)

राज्यों का पुनर्गठन स्वतंत्र भारत के सामने एक बड़ी चुनौती थी, जिसे सफलतापूर्वक हल किया गया। यद्यपि धर आयोग और जेवीपी समिति ने भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का विरोध किया था, पोट्टी श्रीरामुलु के बलिदान और जनता के दबाव के कारण आंध्र प्रदेश का गठन हुआ, जिसने इस प्रक्रिया को गति दी। फजल अली आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 ने भारत के भाषाई मानचित्र को फिर से परिभाषित किया। इस प्रक्रिया ने न केवल भारत की भाषाई विविधता को समायोजित किया और राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया, बल्कि इसने प्रशासनिक दक्षता और क्षेत्रीय भाषाओं के विकास को भी बढ़ावा दिया। यद्यपि इसने कुछ नई चुनौतियाँ भी पैदा कीं, राज्यों का पुनर्गठन भारत के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सफलता का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है।

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