उत्तराखंड राज्य के इतिहास में कई महत्वपूर्ण आंदोलन हुए हैं, जिन्होंने सामाजिक सुधारों, पर्यावरण संरक्षण, राष्ट्रीय स्वतंत्रता और पृथक राज्य के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये आंदोलन राज्य की जनता के संघर्ष और चेतना का प्रतीक हैं।
1. कुली बेगार आंदोलन (Kuli Begar Movement)
यह ब्रिटिश शासन के दौरान प्रचलित एक शोषणकारी प्रथा के विरुद्ध एक बड़ा जन आंदोलन था।
1.1. पृष्ठभूमि और प्रथा
- प्रथा: ब्रिटिश अधिकारियों और उनके सामान को बिना मजदूरी या बहुत कम मजदूरी पर ढोना, राशन उपलब्ध कराना, और उनके लिए अन्य सेवाएँ करना। इसे कुली बेगार (मुफ्त श्रम), कुली उतार (सामान ढोना), और कुली बर्दायश (मुफ्त राशन) के नाम से जाना जाता था।
- शुरुआत: यह प्रथा ब्रिटिश कुमाऊँ में 1815 ई. से चली आ रही थी।
- शुरुआती प्रयास:
- कमिश्नर विलियम ट्रेल ने 1822 ई. में कुली बेगार को खत्म करने के लिए खच्चर सेना को विकसित करने का प्रयास किया।
- 1903 ई. में जब लॉर्ड कर्जन अल्मोड़ा से गढ़वाल जा रहे थे, तब गौरी दत्त बिष्ट ने उन्हें कुली बेगार के बारे में बताया था।
- 1908 ई. में जोध सिंह नेगी ने कुली एजेंसी की स्थापना की, जिसका नाम “ट्रांसपोर्ट एंड पावर सप्लाई को-ऑपरेटिव एसोसिएशन” रखा गया। इसका मुख्यालय पौड़ी में था।
1.2. आंदोलन की परिणति
- प्रथम घटना: कुली बेगार विरोधी पहली घटना चामी (कत्यूर) में 1 जनवरी 1921 को हुई, जहाँ हरू मंदिर में सभा में कुली उतार न देने की शपथ ली गई।
- मुख्य घटना: 13-14 जनवरी 1921 ई. को बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत व चिरंजीलाल के नेतृत्व में बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर उत्तरायणी मेले के अवसर पर लगभग 40 हजार स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा कुली बेगार न करने की शपथ ली गई एवं इससे संबंधित सारे रजिस्टर नदी में बहा दिए गए।
- गांधी जी का कथन: महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को “रक्तहीन क्रांति” की संज्ञा दी।
- स्वामी सत्यदेव: इन्होंने इसे असहयोग आंदोलन की प्रथम ईंट कहा।
2. चिपको आंदोलन (Chipko Movement)
यह एक प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलन था जिसका उद्देश्य वनों की कटाई को रोकना था।
2.1. पृष्ठभूमि और उद्देश्य
- काल: 1970 के दशक की शुरुआत में।
- स्थान: उत्तराखंड के चमोली जिले में।
- उद्देश्य: व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को रोकना और स्थानीय समुदायों के वन अधिकारों की रक्षा करना।
2.2. प्रमुख घटनाएँ और नेता
- मुख्य घटना: आंदोलन की शुरुआत तब हुई जब स्थानीय ग्रामीण, खासकर महिलाएँ, पेड़ों को काटने से बचाने के लिए उनसे चिपक गईं (चिपको)।
- प्रमुख नेता:
- सुंदरलाल बहुगुणा: आंदोलन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई। “हिमालय बचाओ, देश बचाओ” का नारा दिया।
- गौरा देवी: 1974 ई. में चमोली के रेणी गाँव में महिलाओं के समूह का नेतृत्व किया, जिन्होंने पेड़ों को काटने से रोका।
- चंडी प्रसाद भट्ट: चिपको आंदोलन के जनक माने जाते हैं। 1982 ई. में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित।
- गोविंद सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, बचनी देवी आदि।
2.3. प्रभाव और परिणाम
- इस आंदोलन के परिणामस्वरूप, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1980 ई. में हिमालयी क्षेत्रों में 15 वर्षों के लिए पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया।
- चिपको आंदोलन विश्व भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक प्रेरणा स्रोत बना।
3. मैती आंदोलन (Maiti Movement)
यह पर्यावरण संरक्षण और सामाजिक चेतना से जुड़ा एक अनूठा आंदोलन है।
- शुरुआत: 1994 ई. में चमोली जिले के ग्वालदम में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् कल्याण सिंह रावत ‘मैती’ द्वारा।
- उद्देश्य: पर्यावरण संरक्षण को सामाजिक रीति-रिवाज से जोड़ना, विशेषकर विवाह समारोहों के माध्यम से।
- कार्यप्रणाली: इस आंदोलन के तहत, जब किसी लड़की की शादी होती है, तो वह अपने मायके में एक पौधा लगाती है। यह पौधा उसके माता-पिता और गाँव के लोग मिलकर पालते हैं।
- महत्व: यह आंदोलन पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ महिलाओं के सम्मान, सामुदायिक भागीदारी और सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा देता है। यह आंदोलन अब भारत के कई अन्य राज्यों और विदेशों में भी फैल रहा है।
4. टिहरी राज्य जन आंदोलन (Tehri State People’s Movement)
यह टिहरी रियासत में राजशाही के विरुद्ध चले लोकतांत्रिक अधिकारों के आंदोलन का हिस्सा था।
4.1. प्रजामंडल आंदोलन
- स्थापना: 23 जनवरी 1939 ई. को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजामंडल की स्थापना हुई। इसके संस्थापकों में श्रीदेव सुमन, दौलतराम, नागेंद्र सकलानी आदि प्रमुख थे।
- उद्देश्य: टिहरी रियासत में उत्तरदायी शासन की स्थापना और जनता के अधिकारों की बहाली।
4.2. श्रीदेव सुमन का बलिदान
- भूमिका: श्रीदेव सुमन टिहरी रियासत में जन आंदोलन के एक अग्रणी नेता थे।
- शहादत: राजशाही के विरुद्ध संघर्ष करते हुए, उन्होंने 84 दिन की भूख हड़ताल की, जिसके परिणामस्वरूप 25 जुलाई 1944 ई. को उनकी मृत्यु हो गई। उनका बलिदान आंदोलन के लिए एक प्रेरणा स्रोत बना।
4.3. प्रमुख घटनाएँ
- सकलाना विद्रोह: 1947 ई. में टिहरी में यह विद्रोह हुआ।
- कीर्तिनगर आंदोलन: 1948 ई. में हुए इस आंदोलन में भोलूराम व नागेंद्र सकलानी शहीद हुए।
- तिलाड़ी कांड (रवांई कांड): 30 मई 1930 ई. को टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के आदेश पर किसानों पर गोली चलाई गई, जो अपने वन अधिकारों के लिए तिलाड़ी नामक स्थान पर एकत्रित हुए थे। इसमें लगभग 200-300 लोग मारे गए। इस घटना को उत्तराखंड का जलियांवाला बाग कांड भी कहा जाता है।
5. डोला-पालकी आंदोलन (Dola-Palki Movement)
यह सामाजिक समानता के लिए लड़ा गया एक महत्वपूर्ण आंदोलन था।
- उद्देश्य: दलित शिल्पकारों (जिन्हें तब ‘शिल्पकार’ कहा जाता था) को विवाह के अवसर पर डोला (बारात में दुल्हन के लिए) और पालकी में बैठने का अधिकार दिलाना, जो उन्हें पारंपरिक रूप से वंचित किया जाता था।
- नेतृत्व: इस आंदोलन का नेतृत्व जयानंद भारती ने 1930 के दशक में किया।
- परिणाम: लंबे संघर्ष के बाद, शिल्पकारों को यह सामाजिक अधिकार प्राप्त हुआ, जो उनकी आत्म-सम्मान और समानता के लिए एक बड़ी जीत थी।
6. पानी राखो आंदोलन (Pani Rakho Andolan)
यह जल संरक्षण और पारंपरिक जल स्रोतों के पुनरुद्धार से संबंधित एक महत्वपूर्ण आंदोलन था।
- शुरुआत: 1980 के दशक में पौड़ी गढ़वाल जिले के उप्रेखाल क्षेत्र में।
- नेतृत्व: इस आंदोलन का नेतृत्व सच्चिदानंद भारती ने किया।
- उद्देश्य: जल संरक्षण, पारंपरिक जल स्रोतों (जैसे चाल-खाल) का पुनरुद्धार, और वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देना।
- कार्यप्रणाली: ग्रामीणों ने सामूहिक रूप से चाल-खाल (छोटे तालाब) बनाकर वर्षा जल का संचयन किया, जिससे क्षेत्र में जल स्तर में सुधार हुआ।
- महत्व: यह आंदोलन स्थानीय भागीदारी और पारंपरिक ज्ञान के माध्यम से जल संकट से निपटने का एक सफल उदाहरण है।
7. रक्षा सूत्र आंदोलन (Raksha Sutra Andolan)
यह टिहरी बांध परियोजना के विरोध में वनों और पर्यावरण की रक्षा के लिए चलाया गया एक आंदोलन था।
- शुरुआत: 1994 ई. में टिहरी गढ़वाल जिले में।
- नेतृत्व: इस आंदोलन का नेतृत्व सुरेश भाई ने किया।
- उद्देश्य: टिहरी बांध परियोजना के कारण होने वाले पर्यावरणीय विनाश और बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई का विरोध करना।
- कार्यप्रणाली: चिपको आंदोलन की तर्ज पर, आंदोलनकारियों ने पेड़ों पर रक्षा सूत्र (राखी) बांधकर उन्हें काटने से बचाने का संकल्प लिया।
- महत्व: यह आंदोलन बड़े विकास परियोजनाओं के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ाने में महत्वपूर्ण था।
8. नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन (Nasha Nahi Rojgar Do Andolan)
यह उत्तराखंड में बढ़ती बेरोजगारी और नशे की समस्या के खिलाफ युवाओं द्वारा चलाया गया एक सामाजिक आंदोलन था।
- शुरुआत: 1980 के दशक के अंत में।
- उद्देश्य: राज्य में बढ़ती बेरोजगारी को कम करने के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना और युवाओं में नशे की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकना।
- महत्व: यह आंदोलन सामाजिक बुराइयों और आर्थिक चुनौतियों के खिलाफ युवाओं की सामूहिक आवाज को दर्शाता है।
9. उत्तराखंड राज्य आंदोलन (Movement for Separate Uttarakhand State)
स्वतंत्रता के बाद उत्तराखंड को पृथक राज्य बनाने की मांग ने जोर पकड़ा और एक व्यापक आंदोलन का रूप ले लिया।
9.1. आंदोलन की पृष्ठभूमि और प्रारंभिक मांगें
- पहाड़ी क्षेत्र की विशिष्टता: उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विशिष्टताएँ थीं जो मैदानी उत्तर प्रदेश से भिन्न थीं। विकास की उपेक्षा और संसाधनों के असमान वितरण ने अलग राज्य की मांग को जन्म दिया।
- प्रारंभिक मांग:
- 1938 ई. में श्रीनगर (गढ़वाल) में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने पृथक राज्य की मांग उठाई।
- 1946 ई. में हल्द्वानी में आयोजित कांग्रेस सम्मेलन में बद्रीदत्त पांडे ने कुमाऊँ को एक अलग इकाई बनाने की मांग की।
9.2. प्रमुख संगठन और समितियाँ
- 1950 ई. में पर्वतीय विकास जन समिति का गठन हुआ, जिसने अलग राज्य की मांग को आगे बढ़ाया।
- 1957 ई. में पर्वतीय राज्य परिषद का गठन।
- 1967 ई. में उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) की स्थापना डॉ. देवी दत्त पंत के नेतृत्व में हुई। यह आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था।
- 1979 ई. में उत्तराखंड क्रांति दल का विभाजन हुआ और काशी सिंह ऐरी के नेतृत्व में एक नया गुट बना।
- 1988 ई. में उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति का गठन, जिसने आंदोलन को और गति दी।
- 1994 ई. में उत्तराखंड राज्य निर्माण मोर्चा का गठन।
9.3. आंदोलन के महत्वपूर्ण चरण और घटनाएँ
- गैरसैंण राजधानी की मांग: उत्तराखंड क्रांति दल ने 1992 ई. में गैरसैंण (चंद्रनगर) को प्रस्तावित उत्तराखंड राज्य की राजधानी घोषित किया।
- तीव्र आंदोलन (1990 का दशक):
- खटीमा कांड (1 सितंबर, 1994): राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस द्वारा की गई गोलीबारी, जिसमें कई आंदोलनकारी शहीद हुए।
- मसूरी कांड (2 सितंबर, 1994): खटीमा कांड के विरोध में प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारियों पर मसूरी में पुलिस फायरिंग, जिसमें कई लोग मारे गए।
- मुजफ्फरनगर कांड / रामपुर तिराहा कांड (2 अक्टूबर, 1994): दिल्ली में रैली में भाग लेने जा रहे आंदोलनकारियों पर मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर पुलिस द्वारा बर्बर लाठीचार्ज, गोलीबारी और कथित दुर्व्यवहार, जिसमें कई आंदोलनकारी शहीद हुए और बड़ी संख्या में घायल हुए। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया।
- देहरादून गोलीकांड (3 अक्टूबर, 1994): मुजफ्फरनगर कांड के विरोध में देहरादून में हुए प्रदर्शन के दौरान पुलिस फायरिंग।
- श्री यंत्र टापू कांड (10 नवंबर, 1995): श्रीनगर गढ़वाल में श्री यंत्र टापू पर आंदोलनकारियों पर पुलिस कार्रवाई, जिसमें यशोधर बैंजवाल और राजेश रावत शहीद हुए।
9.4. राज्य का गठन
- इन आंदोलनों और बलिदानों के परिणामस्वरूप, केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ा।
- उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक, 2000: संसद में पारित किया गया।
- स्था स्थापना: 9 नवंबर, 2000 को भारतीय गणतंत्र के 27वें राज्य के रूप में उत्तराखंड का गठन हुआ।
- नाम: गठन के समय राज्य का नाम उत्तरांचल था, जिसे 1 जनवरी, 2007 को बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया।
10. निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड राज्य के आंदोलनों का इतिहास सामाजिक न्याय, पर्यावरण संरक्षण और आत्मनिर्णय के लिए जनता के अथक संघर्ष की गाथा है। कुली बेगार जैसे शोषणकारी प्रथाओं के विरोध से लेकर चिपको और मैती जैसे पर्यावरण आंदोलनों तक, और अंततः पृथक राज्य के लिए चले लंबे और बलिदानपूर्ण संघर्ष तक, इन आंदोलनों ने उत्तराखंड की पहचान और भविष्य को आकार दिया है। ये आंदोलन न केवल राज्य के इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी हैं।