कुली बेगार आंदोलन ब्रिटिश शासन के दौरान उत्तराखंड में प्रचलित एक शोषणकारी प्रथा के विरुद्ध एक बड़ा और अहिंसक जन आंदोलन था। यह आंदोलन स्थानीय जनता के अधिकारों के हनन और शोषण के खिलाफ एक महत्वपूर्ण आवाज़ बनकर उभरा।
1. पृष्ठभूमि और प्रथा का स्वरूप (Background and Nature of the Practice)
कुली बेगार एक ऐसी प्रथा थी जिसमें स्थानीय लोगों को ब्रिटिश अधिकारियों के लिए अनिवार्य रूप से सेवाएँ देनी पड़ती थीं।
1.1. कुली बेगार प्रथा
- प्रथा का अर्थ: इस प्रथा के तहत, स्थानीय ग्रामीणों को ब्रिटिश अधिकारियों और उनके सामान को बिना मजदूरी या बहुत कम मजदूरी पर ढोना पड़ता था। इसके तीन मुख्य रूप थे:
- कुली बेगार: ग्रामीणों से बिना किसी भुगतान के या बहुत कम भुगतान पर जबरन श्रम लेना।
- कुली उतार: ब्रिटिश अधिकारियों के यात्रा के दौरान उनके सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ढोना।
- कुली बर्दायश: ब्रिटिश अधिकारियों के लिए मुफ्त में राशन, ईंधन और अन्य आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराना।
- शुरुआत: यह शोषणकारी प्रथा ब्रिटिश कुमाऊँ में 1815 ई. से चली आ रही थी, जब ब्रिटिश शासन स्थापित हुआ।
- कारण: ब्रिटिश अधिकारी पहाड़ी क्षेत्रों में यात्रा करते समय अपने सामान और आवश्यकताओं के लिए स्थानीय लोगों पर निर्भर रहते थे, और उन्होंने इस प्रथा को एक कानूनी बाध्यता बना दिया था।
1.2. प्रथा के विरुद्ध शुरुआती प्रयास
- कमिश्नर विलियम ट्रेल ने 1822 ई. में कुली बेगार को खत्म करने के लिए खच्चर सेना को विकसित करने का प्रयास किया, ताकि सामान ढोने के लिए जानवरों का उपयोग किया जा सके।
- 1903 ई. में जब लॉर्ड कर्जन अल्मोड़ा से गढ़वाल जा रहे थे, तब स्थानीय नेता गौरी दत्त बिष्ट ने उन्हें कुली बेगार की समस्या के बारे में बताया था।
- 1908 ई. में जोध सिंह नेगी ने कुली एजेंसी की स्थापना की, जिसका नाम “ट्रांसपोर्ट एंड पावर सप्लाई को-ऑपरेटिव एसोसिएशन” रखा गया। इसका उद्देश्य कुली समस्या का वैकल्पिक समाधान प्रदान करना था, जिसमें मजदूरों को उचित भुगतान किया जाता था। इस एजेंसी का मुख्यालय पौड़ी में था।
2. आंदोलन की परिणति और मुख्य घटनाएँ (Climax and Key Events of the Movement)
यह आंदोलन 1921 ई. में अपने चरम पर पहुँचा, जब जनता ने संगठित होकर इस प्रथा का अंत किया।
2.1. आंदोलन की शुरुआत
- प्रथम घटना: कुली बेगार विरोधी पहली घटना चामी (कत्यूर) में 1 जनवरी 1921 को हुई। यहाँ हरू मंदिर में हुई एक सभा में ग्रामीणों ने कुली उतार न देने की शपथ ली।
- उत्तरायणी मेले का महत्व: आंदोलनकारियों ने बागेश्वर के उत्तरायणी मेले को इस प्रथा के खिलाफ निर्णायक लड़ाई का मंच बनाने का निर्णय लिया।
2.2. बागेश्वर की ऐतिहासिक घटना
- दिनांक: 13-14 जनवरी 1921 ई.।
- स्थान: बागेश्वर में सरयू नदी के तट पर उत्तरायणी मेले के अवसर पर।
- नेतृत्व: इस आंदोलन का नेतृत्व प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत व चिरंजीलाल ने किया।
- जनभागीदारी: लगभग 40 हजार स्वतंत्रता सेनानियों और स्थानीय जनता ने इसमें भाग लिया।
- शपथ और रजिस्टर बहाना: आंदोलनकारियों ने सार्वजनिक रूप से कुली बेगार न करने की शपथ ली और इस प्रथा से संबंधित सभी सरकारी रजिस्टर (जिसमें कुली बेगार के लिए ग्रामीणों के नाम दर्ज होते थे) को सरयू नदी में बहा दिया। यह ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ एक प्रतीकात्मक और साहसिक कार्य था।
2.3. आंदोलन का प्रभाव और परिणाम
- प्रथा का अंत: इस विशाल और अहिंसक आंदोलन के बाद, कुमाऊँ कमिश्नर को कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने की घोषणा करनी पड़ी।
- गांधी जी का कथन: महात्मा गांधी ने इस आंदोलन को “रक्तहीन क्रांति” (Bloodless Revolution) की संज्ञा दी, क्योंकि यह बिना किसी हिंसा के सफल रहा।
- स्वामी सत्यदेव का कथन: स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने इसे असहयोग आंदोलन की प्रथम ईंट कहा, क्योंकि यह राष्ट्रीय आंदोलन के साथ स्थानीय मुद्दों को जोड़ने में सफल रहा।
3. आंदोलन का महत्व (Significance of the Movement)
कुली बेगार आंदोलन ने उत्तराखंड और राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम दोनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- जनभागीदारी: इस आंदोलन ने उत्तराखंड की जनता को, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं और किसानों को, संगठित किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।
- अहिंसक प्रतिरोध: यह आंदोलन अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण था, जिसने गांधीवादी सिद्धांतों को स्थानीय स्तर पर सफलतापूर्वक लागू किया।
- राष्ट्रीय चेतना: इसने उत्तराखंड को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा और देश के अन्य हिस्सों में चल रहे आंदोलनों को प्रेरणा दी।
- सामाजिक न्याय: इस आंदोलन ने एक शोषणकारी सामाजिक प्रथा को समाप्त कर सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया।
- नेतृत्व का विकास: इसने बद्रीदत्त पांडे जैसे कई स्थानीय नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
4. निष्कर्ष (Conclusion)
कुली बेगार आंदोलन उत्तराखंड के इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह न केवल एक शोषणकारी प्रथा का अंत था, बल्कि यह पहाड़ी जनता की सामूहिक शक्ति, दृढ़ संकल्प और अहिंसक प्रतिरोध की क्षमता का भी प्रदर्शन था। इस आंदोलन ने उत्तराखंड में राजनीतिक और सामाजिक चेतना की नींव रखी और बाद के पर्यावरण आंदोलनों और पृथक राज्य आंदोलन के लिए मार्ग प्रशस्त किया।