यूरोपीय शक्तियों का आगमन: डच (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
पुर्तगालियों के बाद, डच भारत में आने वाली दूसरी यूरोपीय शक्ति थे। 16वीं शताब्दी के अंत और 17वीं शताब्दी की शुरुआत में, डच ने पुर्तगालियों के समुद्री एकाधिकार को चुनौती दी और एशिया में एक शक्तिशाली व्यापारिक साम्राज्य स्थापित किया।
1. भारत आने के कारण (Reasons for Coming to India)
डचों के भारत आने के पीछे मुख्य रूप से आर्थिक और व्यापारिक कारण थे।
- मसालों का व्यापार: पुर्तगालियों की तरह, डच भी यूरोपीय बाजारों में मसालों (विशेषकर इंडोनेशियाई मसालों) की भारी मांग से आकर्षित थे।
- पुर्तगाली एकाधिकार को तोड़ना: डच पुर्तगालियों के समुद्री व्यापार एकाधिकार को तोड़ना चाहते थे और सीधे पूर्वी देशों से व्यापारिक संबंध स्थापित करना चाहते थे।
- कपड़ा व्यापार: डच भारत से सूती वस्त्र के व्यापार में विशेष रुचि रखते थे, जिसकी दक्षिण-पूर्व एशिया में मसालों के बदले में भारी मांग थी।
- औद्योगिक क्रांति की शुरुआत: डच एक मजबूत नौसेना और बेहतर व्यापारिक संगठन के साथ आए थे।
2. प्रमुख डच व्यापारिक कंपनियाँ (Key Dutch Trading Companies)
- यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ नीदरलैंड्स (VOC – Vereenigde Oostindische Compagnie):
- 1602 ईस्वी में कई छोटी डच कंपनियों को मिलाकर इसकी स्थापना की गई।
- यह दुनिया की पहली बहुराष्ट्रीय कंपनी और पहली ऐसी कंपनी थी जिसने शेयर जारी किए।
- इसे अपनी सरकार से युद्ध छेड़ने, संधियाँ करने, किले बनाने और उपनिवेश स्थापित करने का अधिकार प्राप्त था।
- इसका मुख्य ध्यान इंडोनेशिया (मसाला द्वीप समूह) पर था, जहाँ उन्होंने मसालों के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित किया।
3. प्रमुख डच बस्तियाँ और व्यापारिक केंद्र (Prominent Dutch Settlements and Trading Posts)
डचों ने भारत के विभिन्न हिस्सों में अपनी व्यापारिक फैक्ट्रियां स्थापित कीं।
- मसूलीपट्टनम (आंध्र प्रदेश): 1605 ईस्वी में भारत में उनकी पहली फैक्ट्री स्थापित की गई।
- पुलीकट (तमिलनाडु): 1610 ईस्वी में स्थापित, जो 1690 तक उनकी मुख्य व्यापारिक बस्ती और मुख्यालय रहा। यहीं पर उन्होंने अपने सोने के सिक्के ‘पैगोडा’ ढाले।
- सूरत (गुजरात): 1616 ईस्वी में स्थापित।
- चिनसुरा (बंगाल): 1653 ईस्वी में स्थापित, जिसे ‘गुस्तावस फोर्ट’ के नाम से जाना जाता था।
- अन्य:
- नागापट्टनम (तमिलनाडु): 1690 में पुलीकट के बाद डचों का मुख्यालय बना।
- कासिमबाजार, पटना, बालासोर, नेगापट्टनम, कोचीन।
- मुख्य व्यापारिक वस्तुएँ: भारत से सूती वस्त्र, रेशम, अफीम, चावल और नील का निर्यात करते थे।
4. डच प्रशासन और नीतियां (Dutch Administration and Policies)
- केंद्रीयकृत नियंत्रण: डच कंपनी एक केंद्रीयकृत बोर्ड द्वारा शासित थी, जो नीदरलैंड में स्थित था। इससे निर्णयों में देरी होती थी।
- व्यापार पर जोर: डचों का मुख्य ध्यान व्यापार पर था, न कि भारत में राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करने पर।
- स्थानीय शासकों से संबंध: उन्होंने स्थानीय शासकों के साथ व्यापारिक समझौते किए और सैन्य संघर्ष से बचने का प्रयास किया, जब तक कि उनके व्यापारिक हित खतरे में न हों।
5. डचों के पतन के कारण (Reasons for the Decline of the Dutch)
18वीं शताब्दी तक भारत में डच शक्ति का तेजी से पतन होने लगा।
- अंग्रेजों के साथ संघर्ष:
- बेदरा का युद्ध (1759 ईस्वी): यह डचों और अंग्रेजों के बीच निर्णायक युद्ध था, जिसमें अंग्रेजों ने डचों को बुरी तरह पराजित किया। इस युद्ध के बाद भारत में डच शक्ति लगभग समाप्त हो गई।
- अंग्रेजों की बेहतर नौसेना और सैन्य शक्ति।
- मसाला द्वीप समूह पर अधिक ध्यान: डचों का मुख्य ध्यान इंडोनेशिया (मसाला द्वीप समूह) पर केंद्रित था, जहाँ उन्हें मसालों के व्यापार में अधिक लाभ मिलता था। उन्होंने भारत को केवल सूती वस्त्र के स्रोत के रूप में देखा।
- कमजोर व्यापारिक संगठन: अंग्रेजों की तुलना में डच कंपनी का संगठन कम लचीला और अधिक केंद्रीयकृत था।
- कमजोर वित्तीय स्थिति: डच कंपनी की वित्तीय स्थिति अंग्रेजों की तुलना में कमजोर पड़ने लगी।
- यूरोपीय राजनीति में व्यस्तता: डच यूरोपीय राजनीति और युद्धों में अधिक व्यस्त थे, जिससे वे भारत पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
डच भारत में आने वाली दूसरी यूरोपीय शक्ति थे और उन्होंने पुर्तगालियों के एकाधिकार को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने भारत से सूती वस्त्र और अन्य वस्तुओं के व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान दिया, लेकिन अंग्रेजों के साथ सैन्य संघर्ष और इंडोनेशिया पर अधिक ध्यान केंद्रित करने के कारण भारत में उनकी शक्ति का पतन हो गया। बेदरा का युद्ध उनके पतन में निर्णायक साबित हुआ, जिसके बाद भारत में ब्रिटिश प्रभुत्व का मार्ग और प्रशस्त हो गया।