परिचय:
भारत की औद्योगिक नीतियाँ विभिन्न समय-काल में देश की आर्थिक परिस्थितियों, सरकार के विचारधारा एवं वैश्विक घटनाक्रम के अनुरूप बदलती रही हैं। 1947 में स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक कई नीतिगत परिवर्तन हुए हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य औद्योगिक विकास को दिशा देना, आत्मनिर्भरता बढ़ाना, उद्यमिता को प्रोत्साहन देना, तथा प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाना रहा है। प्रमुख औद्योगिक नीतियों में 1956, 1977, 1980, और 1991 की नीतियाँ महत्वपूर्ण मील के पत्थर (milestones) के रूप में जानी जाती हैं।
औद्योगिक नीति, 1956 (Industrial Policy Resolution, 1956)
- पृष्ठभूमि:
- 1948 की औद्योगिक नीति के पश्चात् समाजवादी विचारधारा की ओर झुकाव।
- सार्वजनिक क्षेत्र को अर्थव्यवस्था के मुख्य वाहक के रूप में स्थापित करने की सोच।
- मुख्य बिंदु:
- उद्योगों का वर्गीकरण 3 श्रेणियों में:
- अनुसूची ‘A’: सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्योग, जिनका स्वामित्व एवं विकास पूर्णतः राज्य के हाथ में। जैसे- इस्पात, कोयला, रेलवे, बिजली उत्पादन।
- अनुसूची ‘B’: उद्योगों में राज्य व निजी क्षेत्र दोनों की भागीदारी संभव, पर नेतृत्व राज्य का।
- अनुसूची ‘C’: शेष उद्योग जिनमें निजी क्षेत्र को कार्य करने की छूट।
- सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार: बुनियादी एवं हेवी उद्योगों में राज्य नेतृत्व सुनिश्चित।
- औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली लागू, जिससे निजी क्षेत्र की स्वतंत्रता सीमित।
- उद्योगों का वर्गीकरण 3 श्रेणियों में:
- महत्त्व:
- बुनियादी ढाँचे के विकास और आत्मनिर्भरता की नींव रखी।
- औद्योगिक विकास हेतु राज्य की नेतृत्वकारी भूमिका निर्धारित।
औद्योगिक नीति, 1977
- पृष्ठभूमि:
- आपातकाल (1975-77) के बाद आई नई सरकार (जनता सरकार) की नीति।
- गरीबी उन्मूलन, विकेंद्रीकरण व लघु उद्योगों को प्रोत्साहन पर जोर।
- मुख्य बिंदु:
- लघु, कुटीर तथा ग्रामीण उद्योगों को बढ़ावा: इससे रोजगार एवं आय वितरण में संतुलन की अपेक्षा।
- बड़े उद्योगों के विस्तार पर नियंत्रण, क्षेत्रीय असंतुलन कम करने की कोशिश।
- आयात प्रतिस्थापन के साथ-साथ निर्यात प्रोत्साहन की बात, परंतु मुख्य फोकस लघु उद्योगों पर।
- महत्त्व:
- औद्योगिक विकास का विकेंद्रीकरण और लघु उद्योगों को महत्त्व देने का प्रयास।
- परंतु निवेशकों में अनिश्चितता और बड़े उद्योगों की ग्रोथ में कमी देखी गई।
औद्योगिक नीति, 1980
- पृष्ठभूमि:
- राजनीतिक अस्थिरता के बाद पुनः कांग्रेस सरकार का आगमन।
- विकास दर को पुनर्जीवित करने, औद्योगिक संरचना में सुधार तथा बड़ी इकाइयों की क्षमता उपयोग बढ़ाने का प्रयास।
- मुख्य बिंदु:
- नई टेक्नोलॉजी को अपनाना, औद्योगिक क्षमता का आधुनिकरण।
- कुछ हद तक लाइसेंसिंग नियमों का शिथिलीकरण, बड़े उद्योगों की व्यावहारिक समस्याओं का समाधान।
- अस्वस्थ इकाइयों के पुनर्वास (revival) पर जोर और निर्यात बढ़ाने की रणनीति।
- महत्त्व:
- औद्योगिक विकास को पुनर्जीवित करने, टेक्नोलॉजी अपग्रेडेशन और आधुनिकरण पर फोकस।
- 1956 की नीति में स्थापित पब्लिक सेक्टर व लाइसेंसिंग ढाँचे में थोड़ी ढील, पर पूर्ण उदारीकरण नहीं।
औद्योगिक नीति, 1991 (New Industrial Policy, 1991)
- पृष्ठभूमि:
- गंभीर आर्थिक संकट, विदेशी मुद्रा भंडार में कमी, भुगतान संतुलन (Balance of Payments) संकट।
- वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के युग की शुरुआत।
- मुख्य बिंदु:
- लाइसेंस राज में व्यापक कटौती: अधिकांश उद्योग लाइसेंसिंग से मुक्त।
- सार्वजनिक क्षेत्र का पुनर्निर्धारण: केवल रणनीतिक उद्योगों को ही सार्वजनिक क्षेत्र में रखने पर जोर, बाकी में निजीकरण और विनिवेश (disinvestment) को बढ़ावा।
- विदेशी निवेश के लिए द्वार खोलना: एफडीआई सीमा बढ़ाना, प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को प्रोत्साहन।
- प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ाने के लिए आयात-निर्यात नीतियों में उदारीकरण।
- महत्त्व:
- भारत में आर्थिक उदारीकरण की नींव, वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ाव।
- उच्च आर्थिक विकास दर, निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी, विदेशी निवेश में वृद्धि, कुशल प्रबंधन और नवाचार का प्रोत्साहन।
मुख्य सार:
- 1956 की नीति ने सार्वजनिक क्षेत्र के वर्चस्व और समाजवादी मॉडल पर जोर दिया।
- 1977 की नीति में लघु उद्योग और विकेंद्रीकरण पर फोकस था।
- 1980 की नीति ने उद्योगों के आधुनिकीकरण और क्षमता विस्तार पर जोर दिया।
- 1991 की नीति ने उदारीकरण, निजीकरण, और वैश्विक जुड़ाव के माध्यम से भारतीय उद्योगों को एक नई दिशा दी, जिससे अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्धी और बाजारोन्मुख बनी।
इन नीतियों का क्रमिक विकास भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भरता से वैश्विक प्रतिस्पर्धा की ओर ले गया, उद्योगों में सुधार लाने, निवेश आकर्षित करने, तथा उत्पादकता एवं निर्यात को बढ़ाने में मदद मिली।