परिचय:
स्वतंत्रता के बाद भारत के औद्योगिक विकास ने कई चरणों से गुजरते हुए समयानुसार अपनी प्राथमिकताएँ और नीतिगत रुझान बदले हैं। इन चरणों का निर्धारण आर्थिक नीतियों, राजनीतिक परिवेश, अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम, तथा तकनीकी प्रगति के आधार पर किया जा सकता है। मुख्यतः इन चरणों को 1951-1965, 1965-1980, 1981-1990, और 1991-वर्तमान अवधि में विभाजित किया जाता है।
1951-1965: समाजवादी दृष्टिकोण और बुनियादी उद्योगों की नींव
- मुख्य विशेषताएँ:
- 1951 का औद्योगिक नीति संकल्प और 1956 की औद्योगिक नीति ने सार्वजनिक क्षेत्र को अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाया।
- हेवी इंडस्ट्रीज (इस्पात, मशीनरी, बिजली संयंत्र), बुनियादी ढाँचा, और आयात प्रतिस्थापन (Import Substitution) पर जोर।
- लाइसेंस राज और नियंत्रित अर्थव्यवस्था का जन्म, जहाँ निजी उद्यमों को सीमित स्वतंत्रता।
- सरकारी नियोजन (पंचवर्षीय योजनाएँ) के जरिए संसाधनों का आबंटन, आत्मनिर्भरता (Self-Reliance) का लक्ष्य।
- परिणाम:
- बुनियादी उद्योगों की स्थापना और औद्योगिक आधार मजबूत हुआ।
- हालांकि निजी क्षेत्र पर नियंत्रण और आयात प्रतिस्थापन नीति से दक्षता एवं प्रतिस्पर्धा सीमित रही।
1965-1980: मंदी, नियंत्रण एवं लघु उद्योगों का प्रोत्साहन
- मुख्य विशेषताएँ:
- 1960 के उत्तरार्ध में खाद्य संकट और विदेशी मुद्रा का अभाव, 1966 में मुद्रा अवमूल्यन (Devaluation)।
- हरित क्रांति से कृषि क्षेत्र में सुधार, परंतु औद्योगिक विकास की रफ्तार धीमी।
- 1973 के तेल संकट, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक चुनौतियाँ।
- 1977 की औद्योगिक नीति में लघु, कुटीर एवं विकेन्द्रीकृत उद्योगों को बढ़ावा।
- बड़े उद्योगों पर नियंत्रण, लाइसेंसिंग नियमों में कठोरता।
- परिणाम:
- औद्योगिक विकास की गति धीमी, लाइसेंस राज के कारण प्रतिबंधित उद्यमशीलता।
- लघु उद्योगों का कुछ विस्तार पर बड़े उद्योगों में पर्याप्त वृद्धि नहीं।
1981-1990: उदारीकरण के शुरुआती संकेत एवं आधुनिकीकरण
- मुख्य विशेषताएँ:
- 1980 की औद्योगिक नीति में आधुनिकरण, तकनीकी उन्नयन, और उत्पादकता वृद्धि पर बल।
- कुछ हद तक लाइसेंस राज में ढील, निर्यात संवर्धन, नई तकनीक का समावेश।
- सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार की चर्चा, पर बड़े पैमाने पर निजीकरण अभी भी सीमित।
- आयात लाइसेंसिंग में आंशिक सुधार, कुछ उद्योगों में विदेशी तकनीकी सहयोग बढ़ा।
- परिणाम:
- औद्योगिक वृद्धि की दर में थोड़ा सुधार, टेक्नोलॉजी के स्तर में उन्नयन।
- परंतु संरचनात्मक समस्याएँ बनी रहीं, विदेशी निवेश अभी भी कम, प्रतिस्पर्धात्मकता सीमित।
1991-वर्तमान: उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण का युग
- मुख्य विशेषताएँ:
- 1991 की नई औद्योगिक नीति के बाद व्यापक उदारीकरण (Liberalization): लाइसेंस राज में कटौती, निजी क्षेत्र को खुली छूट, विदेशी निवेश के लिए द्वार खुले।
- वैश्वीकरण (Globalization) से अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा बढ़ी, मल्टीनेशनल कंपनियों का प्रवेश।
- विनिवेश (Disinvestment) और सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार, रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर अन्य में निजीकरण का समर्थन।
- सेवा क्षेत्र का तेजी से विस्तार, आईटी/आईटीईएस, फार्मा, ऑटोमोबाइल, टेलिकॉम, ई-कॉमर्स में तेज वृद्धि।
- मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी पहलें, अवसंरचना विकास (औद्योगिक कॉरिडोर, SEZ), व सस्ते क्रेडिट प्रावधानों द्वारा औद्योगिक आधार को सुदृढ़ करना।
- परिणाम:
- उच्च जीडीपी वृद्धि दर, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) में वृद्धि, निर्यात संवर्धन।
- प्रतिस्पर्धात्मकता और उत्पादकता में सुधार, लेकिन साथ ही असमानता, क्षेत्रीय असंतुलन एवं रोजगार गुणवत्ता संबंधी चिंताएँ।
- वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला में भारत की भूमिका मजबूत।
मुख्य सार:
- 1951-1965: सार्वजनिक क्षेत्र के वर्चस्व, आयात प्रतिस्थापन, एवं औद्योगिक आधार मजबूत करने पर जोर।
- 1965-1980: आर्थिक मंदी, नियंत्रण बढ़ने से विकास धीमी, लघु उद्योग प्रोत्साहन पर ध्यान।
- 1981-1990: आधुनिकरण, कुछ हद तक उदारीकरण, निर्यात प्रोत्साहन, पर अभी भी सीमित सुधार।
- 1991-वर्तमान: उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण से उच्च वृद्धि, प्रतिस्पर्धा, तकनीकी प्रगति, और वैश्विक जुड़ाव।
इन चार चरणों के माध्यम से भारत की औद्योगिक यात्रा नियंत्रित अर्थव्यवस्था से आगे बढ़ते हुए आज वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धी भूमिका अदा करने के स्तर तक पहुँची है।