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हिंदी साहित्य के भक्तिकाल का विस्तृत अध्ययन

परिचय: हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग

भक्तिकाल, जिसे हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग भी कहा जाता है, लगभग 14वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक विस्तृत है। यह आदिकाल की वीरगाथाओं और रीतिकाल की शृंगारिकता के बीच का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। इस काल में भक्ति की एक ऐसी प्रबल लहर उठी जिसने पूरे भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य को गहराई से प्रभावित किया। इस युग के कवियों ने ईश्वर के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया, जो आज भी भारतीय जनमानस का मार्गदर्शन करती है।

भक्तिकाल का वर्गीकरण

भक्तिकाल के साहित्य को मुख्य रूप से ईश्वर की उपासना की पद्धति के आधार पर दो प्रमुख धाराओं में विभाजित किया जाता है: निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति। इन दोनों धाराओं की भी दो-दो उपधाराएँ हैं।

1. निर्गुण भक्ति धारा

इस धारा के कवि ईश्वर को निराकार, सर्वव्यापी और घट-घट वासी मानते थे। वे मूर्तिपूजा, कर्मकांड और जाति-पाति का खंडन करते थे।

  • ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य): इस शाखा के कवि ज्ञान को मोक्ष का साधन मानते थे। कबीरदास इसके प्रतिनिधि कवि हैं। इन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर गहरा प्रहार किया।
  • प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य): इस शाखा के कवियों ने प्रेम को ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताया। मलिक मुहम्मद जायसी इसके प्रतिनिधि कवि हैं। इनकी रचनाओं में हिंदू घरों की प्रेम-कथाओं के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना की गई है।

2. सगुण भक्ति धारा

इस धारा के कवि ईश्वर के साकार रूप (अवतार) की उपासना करते थे। इनकी भक्ति में लीलाओं, कथाओं और मूर्तिपूजा का महत्व था।

  • रामभक्ति शाखा: इस शाखा के कवियों ने भगवान विष्णु के अवतार श्री राम को अपना आराध्य माना। तुलसीदास इसके सर्वप्रमुख कवि हैं, जिनका “रामचरितमानस” एक कालजयी महाकाव्य है।
  • कृष्णभक्ति शाखा: इस शाखा के कवियों ने भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण की लीलाओं का गान किया। सूरदास इसके प्रतिनिधि कवि हैं, जिन्हें ‘वात्सल्य रस का सम्राट’ कहा जाता है। मीराबाई, रसखान भी इसी धारा के प्रमुख कवि हैं।

भक्तिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

  • भक्ति भावना की प्रधानता: इस काल के साहित्य का केंद्रबिंदु ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति है।
  • सामाजिक सुधार की भावना: संत कवियों ने जाति-प्रथा, धार्मिक आडंबरों और सामाजिक असमानता का पुरजोर विरोध किया।
  • गुरु की महत्ता: निर्गुण और सगुण, दोनों ही धाराओं में गुरु को ईश्वर प्राप्ति का मार्गदर्शक माना गया है।
  • लोक भाषाओं का प्रयोग: कवियों ने संस्कृत के स्थान पर आम जनता की भाषाओं जैसे अवधी, ब्रजभाषा, और सधुक्कड़ी का प्रयोग किया, जिससे साहित्य जन-जन तक पहुँचा।
  • समन्वय की भावना: तुलसीदास जैसे कवियों ने ज्ञान और भक्ति, निर्गुण और सगुण, तथा विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया।

प्रमुख रचनाएँ और रचनाकार

  • कबीरदास: इनकी रचनाओं का संग्रह “बीजक” (साखी, सबद, रमैनी) कहलाता है।
  • मलिक मुहम्मद जायसी: इनका महाकाव्य “पद्मावत” सूफी काव्य परंपरा का श्रेष्ठ ग्रंथ है।
  • सूरदास: इनकी प्रमुख रचनाएँ “सूरसागर”, “सूरसारावली” और “साहित्य-लहरी” हैं।
  • तुलसीदास: इनका “श्रीरामचरितमानस” विश्व साहित्य की महान कृतियों में से एक है। अन्य रचनाओं में “विनयपत्रिका”, “कवितावली” प्रमुख हैं।
  • मीराबाई: इनके “पद” कृष्ण के प्रति इनके अनन्य प्रेम और भक्ति को दर्शाते हैं।

भक्तिकाल का महत्व

भक्तिकाल केवल एक साहित्यिक युग नहीं, बल्कि एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन था। इसने पहली बार साहित्य को राजदरबारों से निकालकर आम जनता से जोड़ा। इस काल के कवियों ने न केवल उच्च कोटि के साहित्य की रचना की, बल्कि भारतीय समाज को एक नई दिशा भी दी। उनकी रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और हमें समानता, प्रेम और मानवता का संदेश देती हैं।

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