ब्रह्म समाज (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
ब्रह्म समाज, जिसकी स्थापना राजा राम मोहन राय ने 20 अगस्त, 1828 को कलकत्ता में की थी, भारत में एक महत्वपूर्ण सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन था। यह आंदोलन मूर्ति पूजा, बहुदेववाद, जाति व्यवस्था और सती प्रथा जैसी तत्कालीन हिंदू समाज की कुरीतियों को चुनौती देने और एकेश्वरवाद तथा तर्कवाद पर आधारित एक नए धार्मिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
1. पृष्ठभूमि और स्थापना (Background and Establishment)
19वीं सदी की शुरुआत में भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और सामाजिक बुराइयों ने राजा राम मोहन राय जैसे प्रबुद्ध विचारकों को सुधार की दिशा में सोचने पर मजबूर किया।
- तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक स्थिति: 19वीं शताब्दी की शुरुआत में भारतीय समाज में मूर्ति पूजा, कर्मकांड, अंधविश्वास, सती प्रथा, बाल विवाह और जातिगत भेदभाव जैसी कई कुरीतियाँ प्रचलित थीं।
- राजा राम मोहन राय का दर्शन: राजा राम मोहन राय एक महान समाज सुधारक थे जो एकेश्वरवाद, तर्कवाद और मानव गरिमा में विश्वास रखते थे। उन्होंने विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया और पाया कि सभी धर्मों का मूल सार एक ही है।
- ब्रह्म सभा की स्थापना: 1828 में, उन्होंने ब्रह्म सभा की स्थापना की, जिसे बाद में ब्रह्म समाज के नाम से जाना गया। इसका उद्देश्य एक ऐसे समाज का निर्माण करना था जो तर्क, नैतिकता और वेदों व उपनिषदों के शुद्ध सिद्धांतों पर आधारित हो।
- ब्रह्म समाज का सिद्धांत: यह समाज एक ईश्वर में विश्वास, मूर्ति पूजा का खंडन, कर्मकांडों का विरोध और सभी धर्मों की एकता पर बल देता था।
2. प्रमुख सिद्धांत और आदर्श (Key Principles and Ideals)
ब्रह्म समाज ने धार्मिक और सामाजिक सुधारों के लिए कुछ मूलभूत सिद्धांतों को अपनाया।
- एकेश्वरवाद: ब्रह्म समाज का केंद्रीय सिद्धांत एक निराकार ईश्वर में विश्वास था, जिसकी पूजा किसी मूर्ति या प्रतीक के बिना की जानी चाहिए।
- मूर्ति पूजा का खंडन: इसने मूर्ति पूजा, कर्मकांड और बलि प्रथा का कड़ा विरोध किया।
- जाति व्यवस्था का विरोध: ब्रह्म समाज ने जाति व्यवस्था और छुआछूत का विरोध किया और सभी मनुष्यों की समानता पर जोर दिया।
- सामाजिक सुधार: इसने सती प्रथा, बाल विवाह और बहुविवाह जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन के लिए सक्रिय रूप से काम किया। इसने विधवा पुनर्विवाह और महिला शिक्षा का समर्थन किया।
- तर्कवाद और मानवतावाद: ब्रह्म समाज ने धार्मिक सत्य की खोज में तर्क और विवेक पर जोर दिया। इसने मानवतावाद और सार्वभौमिक भाईचारे को बढ़ावा दिया।
- सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता: यह सभी धर्मों के मूल सत्य में विश्वास करता था और धार्मिक सहिष्णुता का प्रचार करता था।
3. प्रमुख नेता और उनका योगदान (Key Leaders and Their Contributions)
राजा राम मोहन राय के बाद कई प्रमुख नेताओं ने ब्रह्म समाज को आगे बढ़ाया और इसके सिद्धांतों का प्रचार किया।
- राजा राम मोहन राय (1772-1833):
- संस्थापक और ‘भारतीय राष्ट्रवाद के पैगंबर’ के रूप में जाने जाते हैं।
- सती प्रथा के उन्मूलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई (1829 का सती निषेध अधिनियम)।
- पश्चिमी शिक्षा और वैज्ञानिक सोच के समर्थक थे।
- ‘संवाद कौमुदी’ और ‘मिरात-उल-अखबार’ जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन किया।
- महर्षि देवेंद्रनाथ टैगोर (1817-1905):
- राजा राम मोहन राय की मृत्यु के बाद 1843 में ब्रह्म समाज में शामिल हुए और इसे पुनर्जीवित किया।
- उन्होंने तत्त्वबोधिनी सभा (1839) की स्थापना की, जिसने ब्रह्म समाज के सिद्धांतों का प्रचार किया।
- उन्होंने वेदों और उपनिषदों पर आधारित सिद्धांतों को बढ़ावा दिया।
- केशव चंद्र सेन (1838-1884):
- 1857 में ब्रह्म समाज में शामिल हुए और अपनी वाक्पटुता और गतिशील नेतृत्व से इसे लोकप्रिय बनाया।
- उन्होंने ब्रह्म समाज को जन आंदोलन बनाने का प्रयास किया और इसे बंगाल से बाहर भी फैलाया।
- उनके प्रयासों से नेटिव मैरिज एक्ट (1872) पारित हुआ, जिसने बाल विवाह पर रोक लगाई और विधवा पुनर्विवाह को वैध बनाया।
4. ब्रह्म समाज में विभाजन (Divisions within Brahmo Samaj)
विचारधारा और सुधारों की गति को लेकर ब्रह्म समाज में कई विभाजन हुए।
- पहला विभाजन (1866):
- कारण: देवेंद्रनाथ टैगोर और केशव चंद्र सेन के बीच सुधारों की गति और प्रकृति को लेकर मतभेद। देवेंद्रनाथ अधिक रूढ़िवादी थे, जबकि केशव चंद्र सेन अधिक कट्टरपंथी सुधारों के पक्ष में थे।
- परिणाम: केशव चंद्र सेन ने भारतीय ब्रह्म समाज (Brahmo Samaj of India) की स्थापना की, जबकि देवेंद्रनाथ टैगोर का गुट आदि ब्रह्म समाज (Adi Brahmo Samaj) कहलाया।
- दूसरा विभाजन (1878):
- कारण: केशव चंद्र सेन द्वारा अपनी 13 वर्षीय बेटी का विवाह कूच बिहार के महाराजा से करना, जो उनके अपने नेटिव मैरिज एक्ट (1872) के खिलाफ था।
- परिणाम: केशव चंद्र सेन के अनुयायियों में से एक वर्ग ने विद्रोह कर साधारण ब्रह्म समाज (Sadharan Brahmo Samaj) की स्थापना की। आनंद मोहन बोस, शिवनाथ शास्त्री और उमेश चंद्र दत्त इसके प्रमुख नेता थे।
5. महत्व और प्रभाव (Significance and Impact)
ब्रह्म समाज ने भारतीय समाज और धर्म पर गहरा और स्थायी प्रभाव डाला।
- धार्मिक सुधार: इसने मूर्ति पूजा, कर्मकांडों और अंधविश्वासों पर हमला करके हिंदू धर्म को शुद्ध करने का प्रयास किया।
- सामाजिक सुधार: इसने सती प्रथा, बाल विवाह और जाति व्यवस्था जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी और महिला शिक्षा और विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया।
- आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा: इसने पश्चिमी शिक्षा और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय समाज में आधुनिकता और तर्कवाद का प्रसार हुआ।
- राष्ट्रवाद का उदय: ब्रह्म समाज ने भारतीयों में आत्म-सम्मान और राष्ट्रीय चेतना की भावना जगाई, जिससे भविष्य के राष्ट्रवादी आंदोलनों को बल मिला।
- अन्य सुधार आंदोलनों के लिए प्रेरणा: इसने अन्य सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों जैसे आर्य समाज और रामकृष्ण मिशन के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
- प्रेस की भूमिका: इसने अपने विचारों के प्रसार के लिए समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का प्रभावी ढंग से उपयोग किया।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
ब्रह्म समाज भारतीय पुनर्जागरण और सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों में एक अग्रणी शक्ति था। राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित इस आंदोलन ने भारतीय समाज को आधुनिकता और तर्कवाद की ओर अग्रसर किया। यद्यपि इसमें आंतरिक विभाजन हुए, ब्रह्म समाज ने एकेश्वरवाद, सामाजिक समानता और मानव गरिमा के सिद्धांतों को बढ़ावा देकर भारतीय समाज पर एक अमिट छाप छोड़ी। इसके प्रयासों ने न केवल कई सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने में मदद की, बल्कि इसने भारतीयों में आत्म-जागरूकता और राष्ट्रीय चेतना की भावना भी जगाई, जिससे भारत के स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी गई। यह भारत के सामाजिक और धार्मिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बना रहेगा।