ताम्रपाषाण युग (Chalcolithic Age) – समग्र नोट्स
ताम्रपाषाण युग मानव इतिहास का वह महत्वपूर्ण संक्रमण काल है जो नवपाषाण काल के बाद और कांस्य युग (हड़प्पा सभ्यता) से पहले आता है। इस काल में मनुष्य ने पत्थर के औजारों के साथ-साथ तांबे का उपयोग करना भी सीख लिया था।
1. परिचय (Introduction)
ताम्रपाषाण युग (Chalcolithic Age), जिसे ‘कॉपर-स्टोन एज’ भी कहा जाता है, लगभग 3500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक फैला हुआ था। यह वह अवधि है जब मानव ने पत्थर के औजारों का उपयोग जारी रखा, लेकिन साथ ही तांबे (Copper) जैसी धातु का भी प्रयोग करना शुरू कर दिया। यह नवपाषाण काल की ग्रामीण जीवन शैली और कांस्य युग की शहरी सभ्यताओं के बीच एक सेतु का काम करता है।
- नामकरण: ‘चैल्को’ (Chalco) ग्रीक शब्द ‘खल्कोस’ (khalkos) से आया है जिसका अर्थ ‘तांबा’ है, और ‘लिथोस’ (lithos) का अर्थ ‘पत्थर’ है।
- भौगोलिक विस्तार: भारत में ताम्रपाषाण संस्कृतियाँ मुख्य रूप से राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में विकसित हुईं।
2. मुख्य विशेषताएँ (Key Characteristics)
- धातु का उपयोग:
- यह मानव द्वारा उपयोग की जाने वाली पहली धातु ‘तांबा’ का काल है।
- तांबे का उपयोग औजारों, हथियारों, गहनों और बर्तनों के लिए किया जाता था। हालांकि, पत्थर के औजारों का उपयोग भी व्यापक रूप से जारी रहा।
- ग्रामीण जीवन और कृषि:
- ताम्रपाषाण कालीन संस्कृतियाँ मुख्य रूप से ग्रामीण थीं और बड़े पैमाने पर कृषि पर आधारित थीं।
- गेहूँ, जौ, चावल, दालें आदि प्रमुख फसलें थीं।
- पशुपालन भी महत्वपूर्ण था; गाय, भेड़, बकरी, भैंस जैसे जानवरों को पाला जाता था।
- मृदभांड (Pottery):
- इस काल की मृदभांड कला काफी विकसित थी। विभिन्न प्रकार के मृदभांड पाए गए हैं, जैसे काले और लाल मृदभांड (Black and Red Ware – BRW)।
- मृदभांडों पर ज्यामितीय और प्रकृति-आधारित डिज़ाइन बनाए जाते थे।
- कुछ स्थानों पर चित्रित मृदभांड भी मिले हैं।
- बस्तियाँ (Settlements):
- बस्तियाँ आमतौर पर नदी घाटियों या उपजाऊ क्षेत्रों के पास स्थित होती थीं।
- घर मिट्टी, घास-फूस और लकड़ी के बने होते थे। कुछ स्थानों पर गोलाकार या आयताकार घरों के साक्ष्य मिले हैं।
- कुछ बस्तियाँ किलेबंद भी थीं, जो सुरक्षा का संकेत देती हैं।
- सामाजिक संगठन:
- समाज में कुछ हद तक सामाजिक स्तरीकरण के साक्ष्य मिलते हैं, जैसे बड़े घरों का मिलना या कुछ कब्रों में अधिक वस्तुओं का होना।
- मुख्यतः मुखिया-आधारित या कबीलाई समाज था।
- धार्मिक विश्वास:
- मातृदेवी की पूजा के साक्ष्य मिलते हैं (जैसे मिट्टी की मूर्तियाँ)।
- बैल की पूजा भी प्रचलित थी, जो कृषि और प्रजनन से जुड़ी हो सकती है।
- कुछ स्थानों पर अग्नि वेदियों के भी साक्ष्य मिले हैं।
- शिल्प और कला:
- तांबे के औजारों के अलावा, मनके (Beads) बनाना (सेलखड़ी, कार्नेलियन, जैस्पर से), मिट्टी की मूर्तियाँ बनाना और आभूषण बनाना भी प्रचलित था।
- कपड़ा बुनाई के भी कुछ साक्ष्य मिले हैं।
- अंत्येष्टि प्रथाएँ:
- मृतकों को आमतौर पर घरों के फर्श के नीचे दफनाया जाता था, अक्सर उत्तर-दक्षिण दिशा में।
- कभी-कभी कब्रों में कुछ बर्तन या वस्तुएँ भी रखी जाती थीं।
3. भारत में प्रमुख ताम्रपाषाण कालीन संस्कृतियाँ/स्थल (Major Chalcolithic Cultures/Sites in India)
- आहार-बनास संस्कृति (Ahar-Banas Culture):
- क्षेत्र: दक्षिण-पूर्वी राजस्थान (बनास नदी घाटी)।
- समय: लगभग 2500 ईसा पूर्व – 1500 ईसा पूर्व।
- विशेषताएँ: तांबे का व्यापक उपयोग (तांबे के औजार और भट्टियाँ मिली हैं), काले और लाल मृदभांड (BRW) पर सफेद चित्रकारी।
- प्रमुख स्थल: आहार (तांबवती), गिलुंड।
- कायथा संस्कृति (Kayatha Culture):
- क्षेत्र: मध्य प्रदेश (चंबल नदी की सहायक काली सिंध नदी घाटी)।
- समय: लगभग 2400 ईसा पूर्व – 1700 ईसा पूर्व।
- विशेषताएँ: तांबे के औजारों के साथ-साथ पत्थर के सूक्ष्म औजार, विशिष्ट गहरे भूरे रंग के मृदभांड।
- प्रमुख स्थल: कायथा।
- मालवा संस्कृति (Malwa Culture):
- क्षेत्र: पश्चिमी मध्य प्रदेश (नर्मदा नदी घाटी)।
- समय: लगभग 1700 ईसा पूर्व – 1200 ईसा पूर्व।
- विशेषताएँ: अपने उत्कृष्ट चित्रित मृदभांडों के लिए प्रसिद्ध (लाल या नारंगी पृष्ठभूमि पर काले रंग के डिज़ाइन)।
- प्रमुख स्थल: नवदाटोली, एरण, नागदा।
- जोरवे संस्कृति (Jorwe Culture):
- क्षेत्र: महाराष्ट्र (गोदावरी और भीमा नदी घाटियाँ)।
- समय: लगभग 1400 ईसा पूर्व – 700 ईसा पूर्व।
- विशेषताएँ: सबसे विकसित ताम्रपाषाण संस्कृति, लाल रंग के मृदभांड पर काले रंग की चित्रकारी। बच्चों को घरों के फर्श के नीचे दफनाने की प्रथा।
- प्रमुख स्थल: इनामगाँव, जोरवे, नेवासा, दायमाबाद (सबसे बड़ा जोरवे स्थल, बाद में हड़प्पा से प्रभावित)।
- पूर्वी भारत के स्थल (Eastern India Sites):
- क्षेत्र: बिहार, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश।
- समय: लगभग 1500 ईसा पूर्व – 700 ईसा पूर्व।
- विशेषताएँ: काले और लाल मृदभांड, कृषि और पशुपालन।
- प्रमुख स्थल: चिरांद (बिहार), महिषदल (पश्चिम बंगाल), सोनपुर (बिहार)।
4. पतन के कारण (Reasons for Decline)
ताम्रपाषाण संस्कृतियों के पतन के कई कारण माने जाते हैं:
- जलवायु परिवर्तन: कुछ क्षेत्रों में वर्षा में कमी और शुष्कता में वृद्धि।
- संसाधनों की कमी: तांबे के स्रोतों की कमी या उनके दोहन में कठिनाई।
- बाढ़: नदी घाटियों में स्थित होने के कारण बार-बार आने वाली बाढ़।
- महामारी: स्वच्छता की कमी और घनी बस्तियों में बीमारियों का फैलना।
- तकनीकी पिछड़ापन: कांस्य युग की सभ्यताओं (जैसे हड़प्पा) की तुलना में तकनीकी रूप से कम उन्नत होना।
- बाहरी आक्रमण/प्रवास: कुछ क्षेत्रों में बाहरी समूहों के साथ संघर्ष या उनका विलय।
5. महत्व (Significance)
ताम्रपाषाण युग का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है:
- धातु युग की शुरुआत: यह पहला चरण था जब मानव ने धातु (तांबा) का उपयोग करना शुरू किया, जो भविष्य के तकनीकी विकास का आधार बना।
- ग्रामीण जीवन का विकास: इसने कृषि-आधारित ग्रामीण बस्तियों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो बाद में शहरीकरण की ओर बढ़ीं।
- कृषि और पशुपालन में प्रगति: नवपाषाण काल से शुरू हुई कृषि और पशुपालन की गतिविधियों को और अधिक परिष्कृत किया।
- सांस्कृतिक विविधता: विभिन्न क्षेत्रीय ताम्रपाषाण संस्कृतियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में एक समृद्ध सांस्कृतिक विविधता को दर्शाया।
- हड़प्पा सभ्यता से संबंध: कुछ ताम्रपाषाण स्थल (जैसे दायमाबाद) हड़प्पा सभ्यता से प्रभावित हुए, जिससे यह दोनों युगों के बीच के संबंधों को समझने में मदद करता है।