सांप्रदायिकता (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
सांप्रदायिकता (Communalism) एक ऐसी विचारधारा है जिसमें एक धार्मिक समूह अपने हितों को अन्य धार्मिक समूहों के हितों से अलग और अक्सर विरोधी मानता है। यह अक्सर अपने धार्मिक समूह के लिए राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक लाभ प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित होती है, जिससे सामाजिक विभाजन और हिंसा हो सकती है। भारत जैसे बहु-धार्मिक समाज में सांप्रदायिकता एक गंभीर चुनौती रही है।
1. सांप्रदायिकता की अवधारणा (Concept of Communalism)
सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा है जो धार्मिक पहचान को राजनीतिक पहचान से जोड़ती है।
- परिभाषा: सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा है जो किसी धार्मिक समूह के हितों को एक अलग सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक इकाई के रूप में देखती है, जो अक्सर अन्य धार्मिक समूहों के हितों के विपरीत होती है।
- मुख्य विशेषताएँ:
- धार्मिक पहचान को सर्वोच्च मानना: व्यक्ति की प्राथमिक पहचान उसकी धार्मिक संबद्धता होती है।
- धार्मिक हितों को राजनीतिक हितों से जोड़ना: धार्मिक समूह के हितों को राजनीतिक लक्ष्यों के रूप में प्रस्तुत करना।
- अन्य धर्मों के प्रति अविश्वास/शत्रुता: अन्य धार्मिक समूहों को प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन के रूप में देखना।
- मिथकों और रूढ़ियों का उपयोग: धार्मिक मिथकों, प्रतीकों और रूढ़ियों का उपयोग अपने समूह को एकजुट करने और दूसरों को बदनाम करने के लिए करना।
- सांप्रदायिकता के चरण:
- उदार सांप्रदायिकता: धार्मिक पहचान को राजनीतिक पहचान से जोड़ना लेकिन अन्य धर्मों के प्रति कोई प्रत्यक्ष शत्रुता नहीं।
- चरमपंथी सांप्रदायिकता: अन्य धर्मों के प्रति अविश्वास और शत्रुता।
- आतंकवादी सांप्रदायिकता: हिंसा और आतंक का सहारा लेना।
2. भारत में सांप्रदायिकता के कारण (Causes of Communalism in India)
भारत में सांप्रदायिकता के उदय और विकास के लिए कई ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारक जिम्मेदार हैं।
- ब्रिटिश ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति:
- ब्रिटिश सरकार ने अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए धार्मिक आधार पर विभाजन को बढ़ावा दिया।
- पृथक निर्वाचन मंडल (मॉर्ले-मिंटो सुधार, 1909) ने सांप्रदायिक राजनीति को संस्थागत रूप दिया।
- ऐतिहासिक कारक: मध्यकालीन इतिहास की कुछ घटनाओं की सांप्रदायिक व्याख्या।
- आर्थिक पिछड़ेपन और असमानताएँ: संसाधनों और अवसरों के लिए प्रतिस्पर्धा अक्सर धार्मिक आधार पर विभाजन को बढ़ावा देती है।
- राजनीतिक कारक:
- वोट बैंक की राजनीति और चुनाव जीतने के लिए धार्मिक भावनाओं का शोषण।
- क्षेत्रीय दलों द्वारा धार्मिक पहचान का उपयोग।
- सांप्रदायिक संगठनों और नेताओं का उदय।
- सामाजिक-सांस्कृतिक कारक:
- धार्मिक रूढ़िवादिता और कट्टरता।
- सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ जो धार्मिक समूहों के बीच मौजूद हैं।
- शिक्षा का अभाव और अंधविश्वास।
- बाहरी प्रभाव: कुछ मामलों में, बाहरी तत्वों द्वारा धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देना।
3. भारत में सांप्रदायिकता का विकास (Evolution of Communalism in India)
सांप्रदायिकता ने भारतीय इतिहास में विभिन्न चरणों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है।
- प्रारंभिक चरण (19वीं सदी के अंत – 1920s):
- मुस्लिम लीग की स्थापना (1906): मुसलमानों के राजनीतिक हितों की रक्षा के लिए।
- पृथक निर्वाचन मंडल (1909): सांप्रदायिक विभाजन को गहरा किया।
- हिंदू महासभा का गठन (1915)।
- मध्य चरण (1920s – 1940s):
- खिलाफत आंदोलन के बाद हिंदू-मुस्लिम एकता में दरार।
- द्वि-राष्ट्र सिद्धांत: मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा प्रस्तुत, जिसने भारत के विभाजन का आधार तैयार किया।
- ‘प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस’ (16 अगस्त, 1946): मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग के लिए व्यापक सांप्रदायिक हिंसा।
- स्वतंत्रता के बाद:
- भारत के विभाजन के बाद भी सांप्रदायिक हिंसा जारी रही।
- कुछ क्षेत्रों में सांप्रदायिक दंगे और तनाव।
- राजनीतिक दलों द्वारा धार्मिक पहचान का उपयोग।
4. सांप्रदायिकता के नकारात्मक प्रभाव (Negative Impacts of Communalism)
सांप्रदायिकता भारतीय समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी प्रभाव डालती है।
- राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा: यह भारत की विविधता में एकता की भावना को कमजोर करती है और अलगाववाद को बढ़ावा देती है।
- सामाजिक सद्भाव का विघटन: यह विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच अविश्वास, घृणा और शत्रुता पैदा करती है, जिससे सामाजिक ताना-बाना टूटता है।
- सांप्रदायिक हिंसा: यह सांप्रदायिक दंगों और हिंसा को जन्म देती है, जिसमें जान-माल का भारी नुकसान होता है।
- आर्थिक विकास में बाधा: सांप्रदायिक तनाव और हिंसा निवेश को हतोत्साहित करती है और आर्थिक गतिविधियों को बाधित करती है।
- लोकतंत्र के लिए खतरा: यह धार्मिक आधार पर वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रियाएँ कमजोर होती हैं।
- मानवाधिकारों का उल्लंघन: सांप्रदायिक हिंसा के दौरान अक्सर मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।
- प्रशासन पर दबाव: सांप्रदायिक तनाव कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रशासन पर भारी दबाव डालता है।
5. सांप्रदायिकता का मुकाबला करने के उपाय (Measures to Combat Communalism)
सांप्रदायिकता एक बहुआयामी समस्या है जिसके समाधान के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
- कानून और व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण: सांप्रदायिक हिंसा को रोकने और दोषियों को दंडित करने के लिए कठोर कानून प्रवर्तन।
- धर्मनिरपेक्ष शिक्षा: शिक्षा प्रणाली में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देना और सभी धर्मों के प्रति सम्मान सिखाना।
- आर्थिक समानता: क्षेत्रीय और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को कम करना ताकि धार्मिक आधार पर प्रतिस्पर्धा कम हो।
- राजनीतिक सुधार: वोट बैंक की राजनीति को हतोत्साहित करना और सांप्रदायिक भाषणों पर प्रतिबंध लगाना।
- मीडिया की भूमिका: मीडिया को सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने और गलत सूचनाओं को रोकने में जिम्मेदार भूमिका निभानी चाहिए।
- नागरिक समाज की भूमिका: नागरिक समाज संगठनों को सांप्रदायिक सद्भाव और अंतर-धार्मिक संवाद को बढ़ावा देना चाहिए।
- अंतर-धार्मिक संवाद: विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच बातचीत और समझ को बढ़ावा देना।
- इतिहास की वस्तुनिष्ठ व्याख्या: इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्याओं का खंडन करना और वस्तुनिष्ठ ऐतिहासिक ज्ञान को बढ़ावा देना।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
सांप्रदायिकता भारत के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने के लिए एक गंभीर चुनौती रही है। यह एक ऐसी विचारधारा है जो धार्मिक पहचान को राजनीतिक पहचान से जोड़ती है और अक्सर सामाजिक विभाजन, अविश्वास और हिंसा को जन्म देती है। ब्रिटिश ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति, आर्थिक असमानताएँ और राजनीतिक स्वार्थ ने भारत में सांप्रदायिकता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव और आर्थिक विकास के लिए सांप्रदायिकता का मुकाबला करना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए कानून प्रवर्तन, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, आर्थिक समानता और नागरिक समाज की सक्रिय भागीदारी सहित एक बहुआयामी और सतत प्रयास की आवश्यकता है।