यूरोपीय शक्तियों का आगमन: डेनिश (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
पुर्तगालियों, डचों और अंग्रेजों के बाद, डेनिश (डेनमार्क के लोग) भी भारत में व्यापारिक अवसरों की तलाश में आए। हालांकि, उनकी उपस्थिति अन्य यूरोपीय शक्तियों की तुलना में कम महत्वपूर्ण और सीमित रही।
1. भारत आने के कारण (Reasons for Coming to India)
डेनिश के भारत आने के पीछे मुख्य रूप से व्यापारिक महत्वाकांक्षाएँ थीं।
- पूर्वी व्यापार में रुचि: डेनमार्क भी पूर्वी देशों के साथ मसालों, रेशम और अन्य वस्तुओं के व्यापार से लाभ कमाना चाहता था।
- अन्य यूरोपीय शक्तियों का अनुसरण: अन्य यूरोपीय देशों की सफलता को देखते हुए, डेनमार्क ने भी अपनी व्यापारिक कंपनी स्थापित करने का निर्णय लिया।
2. प्रमुख डेनिश व्यापारिक कंपनी (Key Danish Trading Company)
- डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी (Danish East India Company):
- 1616 ईस्वी में इसकी स्थापना की गई।
- यह कंपनी डेनमार्क-नॉर्वे के राजा क्रिश्चियन IV के संरक्षण में स्थापित हुई थी।
- इसका उद्देश्य भारत और पूर्वी एशिया के साथ व्यापार करना था।
3. प्रमुख डेनिश बस्तियाँ और व्यापारिक केंद्र (Prominent Danish Settlements and Trading Posts)
डेनिश ने भारत में कुछ व्यापारिक बस्तियां स्थापित कीं, लेकिन वे कभी भी बड़ी शक्ति नहीं बन पाए।
- त्रावणकोर (तमिलनाडु): 1620 ईस्वी में भारत में उनकी पहली फैक्ट्री स्थापित की गई। इसे ‘फोर्ट डेंसबर्ग’ के नाम से जाना जाता था।
- सेरामपुर (बंगाल): 1755 ईस्वी में स्थापित, जिसे ‘फ्रेडरिकनगर’ के नाम से जाना जाता था। यह बाद में डेनिश मिशनरी गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
- अन्य:
- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर भी उनका कुछ समय के लिए नियंत्रण था।
- मुख्य व्यापारिक वस्तुएँ: भारत से मसाले, रेशम, चाय और नील का व्यापार करते थे।
4. डेनिश के पतन के कारण (Reasons for the Decline of the Danish)
भारत में डेनिश शक्ति का पतन मुख्य रूप से उनकी सीमित क्षमताओं और अन्य यूरोपीय शक्तियों से प्रतिस्पर्धा के कारण हुआ।
- सीमित वित्तीय संसाधन: डेनिश कंपनी के पास अन्य बड़ी यूरोपीय शक्तियों (जैसे ब्रिटिश और फ्रेंच) की तुलना में बहुत कम वित्तीय संसाधन थे।
- कमजोर सैन्य शक्ति: उनकी सैन्य शक्ति अन्य शक्तियों की तुलना में नगण्य थी, जिससे वे व्यापारिक एकाधिकार के लिए प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाए।
- अन्य शक्तियों से प्रतिस्पर्धा: भारत में पहले से ही स्थापित और शक्तिशाली ब्रिटिश, डच और फ्रेंच कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा करना उनके लिए मुश्किल था।
- व्यापार में लाभहीनता: उन्हें भारत में व्यापार से पर्याप्त लाभ नहीं मिल रहा था, जिससे कंपनी की वित्तीय स्थिति कमजोर हुई।
- यूरोपीय युद्धों का प्रभाव: नेपोलियन युद्धों के दौरान डेनमार्क को काफी नुकसान हुआ, जिससे भारत में उनकी व्यापारिक गतिविधियों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
5. निष्कर्ष (Conclusion)
डेनिश भारत में आने वाली यूरोपीय शक्तियों में से एक थे, लेकिन वे कभी भी एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में स्थापित नहीं हो पाए। उनकी सीमित वित्तीय और सैन्य क्षमताएँ, साथ ही अन्य शक्तिशाली यूरोपीय शक्तियों से प्रतिस्पर्धा के कारण, वे भारत में अपनी स्थिति को मजबूत नहीं कर सके। अंततः, उन्होंने अपनी सभी भारतीय बस्तियों को 1845 ईस्वी में अंग्रेजों को बेच दिया, जिससे भारत में उनकी उपस्थिति समाप्त हो गई। उनका मुख्य योगदान मिशनरी गतिविधियों के क्षेत्र में रहा, विशेषकर सेरामपुर में।