सिंधु घाटी सभ्यता – सभ्यता का पतन
सिंधु घाटी सभ्यता, जो अपनी उन्नत नगर नियोजन और समृद्ध संस्कृति के लिए जानी जाती थी, लगभग 1900 ईसा पूर्व के आसपास पतन की ओर अग्रसर होने लगी। इसके पतन के सटीक कारणों को लेकर विद्वानों में अभी भी बहस जारी है, और संभवतः यह किसी एक कारण का नहीं, बल्कि कई कारकों के संयोजन का परिणाम था।
1. पतन की प्रक्रिया (Process of Decline)
- पतन की प्रक्रिया अचानक नहीं हुई, बल्कि यह एक क्रमिक प्रक्रिया थी।
- लगभग 1900 ईसा पूर्व के बाद, प्रमुख शहरी केंद्रों जैसे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में गिरावट के संकेत मिलते हैं:
- नगर नियोजन में कमी।
- घरों की गुणवत्ता में गिरावट।
- सार्वजनिक भवनों का अतिक्रमण।
- जल निकासी प्रणाली की उपेक्षा।
- मानकीकृत ईंटों और माप-तौल प्रणाली का गायब होना।
- मुहरों और विशिष्ट कलाकृतियों का अभाव।
- कई शहरी स्थल छोड़ दिए गए, और जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित हो गई।
- इसके बाद की संस्कृतियों को उत्तर-हड़प्पा (Late Harappan) या पोस्ट-अर्बन हड़प्पा (Post-Urban Harappan) चरण कहा जाता है, जो कम जटिल और ग्रामीण प्रकृति की थीं।
2. पतन के प्रमुख सिद्धांत (Major Theories of Decline)
विद्वानों ने सिंधु सभ्यता के पतन के लिए कई सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं:
2.1. आर्य आक्रमण का सिद्धांत (Aryan Invasion Theory)
- समर्थक: मार्टिमर व्हीलर।
- तर्क: व्हीलर ने ऋग्वेद में इंद्र को ‘पुरंदर’ (किलों को नष्ट करने वाला) कहे जाने और मोहनजोदड़ो में मिले कुछ मानव कंकालों को आधार बनाकर यह तर्क दिया कि आर्यों के आक्रमण ने सिंधु शहरों को नष्ट कर दिया।
- आलोचना:
- आधुनिक शोध ने इस सिद्धांत को व्यापक रूप से खारिज कर दिया है।
- मोहनजोदड़ो के कंकाल ‘नरसंहार’ के नहीं, बल्कि बीमारी या अन्य कारणों से मरने वाले व्यक्तियों के थे।
- ऋग्वेद में वर्णित ‘पुर’ (किले) सिंधु शहरों से भिन्न थे।
- आर्यों के आगमन का समय सिंधु सभ्यता के पतन के बाद का माना जाता है।
- कोई ठोस पुरातात्विक साक्ष्य नहीं है जो बड़े पैमाने पर आक्रमण या युद्ध का समर्थन करता हो।
2.2. जलवायु परिवर्तन और शुष्कता (Climatic Change and Aridification)
- समर्थक: आर.एल. राइकस, गुडे।
- तर्क: इस सिद्धांत के अनुसार, लगभग 2000-1700 ईसा पूर्व के बीच जलवायु में महत्वपूर्ण बदलाव आया, जिससे वर्षा में कमी आई और क्षेत्र में शुष्कता (Aridification) बढ़ी।
- परिणाम:
- कृषि उत्पादन में गिरावट आई, जिससे खाद्य संकट पैदा हुआ।
- नदियों में पानी की कमी हो गई, जिससे सिंचाई और परिवहन प्रभावित हुआ।
- यह सिद्धांत कई विद्वानों द्वारा समर्थित है क्योंकि यह पुरातात्विक और भूवैज्ञानिक साक्ष्यों से मेल खाता है।
2.3. नदी मार्गों में परिवर्तन / बाढ़ (Changes in River Courses / Floods)
- समर्थक: एच.टी. लैम्ब्रिक, एम.आर. मुगल, रॉबर्ट एल. राइकस।
- तर्क:
- सिंधु नदी और उसकी सहायक नदियों के मार्गों में परिवर्तन आया। कुछ नदियाँ सूख गईं (जैसे सरस्वती/घग्गर-हाकरा नदी), जबकि कुछ ने अपना मार्ग बदल लिया।
- बार-बार आने वाली विनाशकारी बाढ़ों ने शहरों को नष्ट कर दिया या उन्हें छोड़ना पड़ा। मोहनजोदड़ो में बाढ़ की कई परतें मिली हैं।
- परिणाम: इसने कृषि को बाधित किया, व्यापार मार्गों को प्रभावित किया और लोगों को नए, कम उपजाऊ क्षेत्रों में पलायन करने पर मजबूर किया।
2.4. पारिस्थितिक असंतुलन (Ecological Imbalance)
- तर्क: अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि, वनों की कटाई (ईंटों को पकाने के लिए), और अति-चराई के कारण पर्यावरण का अत्यधिक दोहन हुआ।
- परिणाम: इससे मिट्टी का क्षरण, भूमि की उर्वरता में कमी और जल संसाधनों पर दबाव बढ़ा, जिससे सभ्यता का निर्वाह करना कठिन हो गया।
2.5. प्रशासनिक शिथिलता / आंतरिक संघर्ष (Administrative Weakness / Internal Conflict)
- तर्क: कुछ विद्वानों का मानना है कि एक कमजोर या अक्षम केंद्रीय प्रशासन ने सभ्यता को बनाए रखने की क्षमता खो दी।
- आंतरिक संघर्ष या सामाजिक अशांति भी पतन का कारण हो सकती है, हालांकि इसके प्रत्यक्ष पुरातात्विक साक्ष्य कम हैं।
3. निष्कर्ष (Conclusion)
वर्तमान में, अधिकांश विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि सिंधु घाटी सभ्यता का पतन किसी एक कारण का नहीं, बल्कि कई कारकों के संयोजन का परिणाम था। जलवायु परिवर्तन, नदी मार्गों में बदलाव, और पारिस्थितिक असंतुलन जैसे पर्यावरणीय कारक संभवतः सबसे महत्वपूर्ण थे, जिन्होंने धीरे-धीरे कृषि और शहरी जीवन को अस्थिर कर दिया। आर्य आक्रमण का सिद्धांत अब व्यापक रूप से स्वीकार्य नहीं है। सभ्यता का अंत पूरी तरह से नहीं हुआ, बल्कि यह एक सांस्कृतिक परिवर्तन था, जहाँ शहरी जीवन समाप्त हो गया और लोग छोटे, ग्रामीण समुदायों में बिखर गए, जिससे उत्तर-हड़प्पा संस्कृतियों का उदय हुआ।