नरमपंथी (Moderates) – भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रारंभिक चरण (1885-1905)
नरमपंथी (Moderates) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक चरण (1885-1905) के नेताओं को संदर्भित करता है। ये नेता ब्रिटिश शासन के प्रति संवैधानिक तरीकों और शांतिपूर्ण विरोध में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि ब्रिटिश न्याय और ईमानदारी में विश्वास रखकर, वे धीरे-धीरे भारत में सुधार ला सकते हैं और स्वशासन की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
1. पृष्ठभूमि और नरमपंथी विचारधारा का उदय (Background and Rise of Moderate Ideology)
19वीं सदी के अंत में, शिक्षित भारतीयों का एक वर्ग ब्रिटिश शासन के तहत सुधारों की वकालत करने लगा।
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना: 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही नरमपंथी विचारधारा का उदय हुआ। कांग्रेस के अधिकांश प्रारंभिक नेता इसी विचारधारा के थे।
- ब्रिटिश शासन में विश्वास: नरमपंथी नेता ब्रिटिश शासन को भारत के लिए एक वरदान मानते थे और उनका मानना था कि ब्रिटिश न्याय और उदारता में विश्वास रखकर ही भारत का विकास संभव है।
- संवैधानिक तरीकों में विश्वास: वे हिंसा या क्रांति में विश्वास नहीं रखते थे। उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार को भारतीयों की शिकायतों और मांगों से अवगत कराकर ही सुधार प्राप्त किए जा सकते हैं।
- पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव: इन नेताओं ने पश्चिमी शिक्षा प्राप्त की थी और वे ब्रिटिश संवैधानिक प्रणाली और उदारवादी विचारों से प्रभावित थे।
2. प्रमुख नरमपंथी नेता (Prominent Moderate Leaders)
कई दूरदर्शी नेताओं ने नरमपंथी आंदोलन का नेतृत्व किया और भारत के राजनीतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- दादाभाई नौरोजी:
- ‘भारत के वयोवृद्ध पुरुष’ (Grand Old Man of India) के रूप में जाने जाते हैं।
- उन्होंने ‘ड्रेन ऑफ वेल्थ’ (धन का निष्कासन) सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने बताया कि कैसे ब्रिटिश शासन भारत के धन को इंग्लैंड ले जा रहा है।
- तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे (1886, 1893, 1906)।
- फिरोजशाह मेहता:
- एक प्रमुख वकील और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्ति।
- उन्होंने बंबई में सार्वजनिक जीवन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- सुरेंद्रनाथ बनर्जी:
- ‘इंडियन एसोसिएशन’ के संस्थापक (1876)।
- एक प्रभावशाली वक्ता और पत्रकार। उन्हें ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’ भी कहा जाता है।
- गोपाल कृष्ण गोखले:
- महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु।
- ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी’ (1905) के संस्थापक।
- उन्होंने शिक्षा और सामाजिक सुधारों पर जोर दिया।
- व्योमेश चंद्र बनर्जी (W.C. Bonnerjee):
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अध्यक्ष।
- एक प्रसिद्ध बैरिस्टर।
- रमेश चंद्र दत्त (R.C. Dutt):
- एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और इतिहासकार।
- उन्होंने ‘भारत का आर्थिक इतिहास’ (Economic History of India) नामक पुस्तक लिखी, जिसमें ब्रिटिश आर्थिक नीतियों की आलोचना की गई।
3. नरमपंथियों की कार्यप्रणाली और माँगें (Methods and Demands of Moderates)
नरमपंथी नेताओं ने ‘प्रार्थना, याचिका और विरोध’ (Prayer, Petition, and Protest) के माध्यम से अपनी माँगें रखीं।
- संवैधानिक आंदोलन: उन्होंने शांतिपूर्ण और संवैधानिक तरीकों में विश्वास किया। वे ब्रिटिश संसद और जनता के समक्ष अपनी माँगें रखने के लिए प्रतिनिधिमंडलों, याचिकाओं और प्रस्तावों का उपयोग करते थे।
- प्रमुख माँगें:
- विधान परिषदों का विस्तार: विधान परिषदों में भारतीयों की संख्या बढ़ाना और उन्हें अधिक अधिकार देना।
- सिविल सेवाओं का भारतीयकरण: भारतीय सिविल सेवा (ICS) परीक्षाओं को भारत में भी आयोजित करना और भारतीयों के लिए अधिक अवसर प्रदान करना।
- सैन्य व्यय में कमी: भारत पर पड़ने वाले अत्यधिक सैन्य व्यय को कम करना।
- न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण: न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
- किसानों और श्रमिकों के हितों की रक्षा: भूमि राजस्व में कमी और कृषि सुधारों की मांग।
- प्रेस की स्वतंत्रता: प्रेस पर लगे प्रतिबंधों को हटाना।
- ‘ड्रेन थ्योरी’: दादाभाई नौरोजी, आर.सी. दत्त और अन्य नेताओं ने ब्रिटिश आर्थिक शोषण को उजागर करने के लिए ‘ड्रेन थ्योरी’ का उपयोग किया, जिससे भारत की गरीबी का वास्तविक कारण सामने आया।
4. नरमपंथियों का महत्व और योगदान (Significance and Contributions of Moderates)
यद्यपि नरमपंथियों को तत्काल बड़ी सफलताएँ नहीं मिलीं, उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की नींव रखी।
- राष्ट्रवाद का विकास: उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की भावना को बढ़ावा दिया और भारतीयों को एक साझा राजनीतिक मंच प्रदान किया।
- राजनीतिक शिक्षा: उन्होंने भारतीयों को राजनीतिक शिक्षा दी और उन्हें अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया।
- ब्रिटिश नीतियों का पर्दाफाश: उन्होंने ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण और अन्यायपूर्ण नीतियों को उजागर किया, जिससे ब्रिटिश शासन का वास्तविक चेहरा सामने आया।
- संवैधानिक परंपराओं की नींव: उन्होंने भारत में संवैधानिक आंदोलन की नींव रखी, जो भविष्य के राजनीतिक विकास के लिए महत्वपूर्ण थी।
- भविष्य के आंदोलनों के लिए आधार: उनके प्रयासों ने भविष्य के उग्रवादी और गांधीवादी आंदोलनों के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया।
- वैचारिक संघर्ष की शुरुआत: उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ वैचारिक संघर्ष की शुरुआत की, जिससे भारतीय बुद्धिजीवियों को सोचने और प्रश्न पूछने का अवसर मिला।
5. नरमपंथियों की सीमाएँ और आलोचना (Limitations and Criticism of Moderates)
नरमपंथियों को उनकी कार्यप्रणाली और सीमित सफलताओं के लिए आलोचना का भी सामना करना पड़ा।
- सीमित जन-आधार: उनका आंदोलन मुख्य रूप से शिक्षित शहरी मध्य वर्ग तक सीमित था और वे ग्रामीण जनता या किसानों और मजदूरों को बड़े पैमाने पर संगठित नहीं कर पाए।
- संवैधानिक तरीकों पर अत्यधिक निर्भरता: उनकी ‘प्रार्थना और याचिका’ की नीति को उग्रवादी नेताओं द्वारा ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ कहा गया।
- धीमी प्रगति: उनकी माँगें धीरे-धीरे और आंशिक रूप से ही मानी गईं, जिससे युवाओं में असंतोष बढ़ा।
- ब्रिटिश न्याय में विश्वास: ब्रिटिश न्याय और ईमानदारी में उनका अत्यधिक विश्वास कभी-कभी अवास्तविक प्रतीत होता था।
- उग्रवादी राष्ट्रवाद का उदय: उनकी कार्यप्रणाली की सीमाओं के कारण उग्रवादी राष्ट्रवाद का उदय हुआ, जिसने अधिक प्रत्यक्ष और आक्रामक तरीकों की वकालत की।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
नरमपंथी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक चरण के महत्वपूर्ण नेता थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के तहत संवैधानिक सुधारों की वकालत की। यद्यपि उनकी कार्यप्रणाली को ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ के रूप में आलोचना का सामना करना पड़ा और उन्हें तत्काल बड़ी सफलताएँ नहीं मिलीं, उन्होंने भारत में राष्ट्रवाद की नींव रखी, ब्रिटिश आर्थिक शोषण को उजागर किया और भारतीयों को राजनीतिक रूप से शिक्षित किया। उनके प्रयासों ने भविष्य के अधिक मुखर और जन-आधारित आंदोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण आधार तैयार किया। नरमपंथियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक वैचारिक और संगठनात्मक मंच प्रदान किया, जिससे वे भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में एक अपरिहार्य भूमिका निभाते हैं।