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पावना विद्रोह (Pabna Revolt)

पावना विद्रोह (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

पावना विद्रोह (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

पावना विद्रोह, जो 1873 से 1876 के दौरान बंगाल के पावना जिले (वर्तमान बांग्लादेश में) में हुआ, जमींदारों के उत्पीड़न और लगान में मनमानी वृद्धि के खिलाफ एक महत्वपूर्ण किसान आंदोलन था। यह विद्रोह काफी हद तक अहिंसक रहा, लेकिन इसने किसानों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक नया मार्ग प्रशस्त किया।

1. पृष्ठभूमि और कारण (Background and Causes)

बंगाल में स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement) के तहत जमींदारों को भूमि का पूर्ण स्वामी बना दिया गया था, जिससे किसानों का शोषण बढ़ गया था।

  • स्थायी बंदोबस्त का प्रभाव: स्थायी बंदोबस्त (1793) ने जमींदारों को अत्यधिक शक्ति दी, जिससे किसानों को उनके रहमोकरम पर छोड़ दिया गया। जमींदार अक्सर मनमाने ढंग से लगान बढ़ाते थे और उन्हें बेदखल करते थे।
  • किरायेदारी अधिकार: 1859 के अधिनियम (Act X of 1859) ने किसानों को कुछ हद तक किरायेदारी अधिकार दिए थे, लेकिन जमींदार अक्सर इसे लागू नहीं करते थे। जमींदार यह दावा करते थे कि किसान बिना किसी किरायेदारी अधिकार के “इच्छाधारी काश्तकार” (tenants at will) हैं।
  • लगान की मनमानी वृद्धि: पावना में, यूसुफशाही परगना के जमींदार लगान में लगातार वृद्धि कर रहे थे, जो कि न्यायसंगत नहीं था। किसानों को बढ़े हुए लगान के लिए मजबूर किया जाता था।
  • उत्पीड़न और अवैध वसूली: जमींदार किसानों से विभिन्न प्रकार के अवैध उपकर (अब्वाब) वसूल करते थे और उन्हें अदालत में भी झूठे मुकदमों में फंसाते थे।
  • ऋण का बोझ: किसानों पर बढ़े हुए लगान और अवैध वसूलियों के कारण ऋण का बोझ लगातार बढ़ रहा था, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति और खराब हो रही थी।

2. नेतृत्व और प्रमुख नेता (Leadership and Key Leaders)

यह विद्रोह मुख्य रूप से स्थानीय किसानों द्वारा संगठित था, जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ अपनी आवाज उठाई।

  • किसान संघों का गठन: पावना के किसानों ने यूसुफशाही परगना में एक कृषि लीग (Agrarian League) का गठन किया। यह लीग किसानों को एकजुट करने और उनके अधिकारों के लिए लड़ने का एक माध्यम बन गई।
  • ईशान चंद्र रॉय: इस विद्रोह के प्रमुख नेता ईशान चंद्र रॉय (या ईशान चंद्र राय) थे, जो यूसुफशाही परगना के प्रमुख किसान नेता थे।
  • अन्य सहयोगी: शंभु पाल और खुदी मोल्लाह जैसे अन्य स्थानीय नेता भी इस आंदोलन में सक्रिय थे।
  • बुद्धिजीवियों का समर्थन: कई उदारवादी बुद्धिजीवियों जैसे बंकिम चंद्र चटर्जी, आर.सी. दत्त, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और आनंदमोहन बोस ने भी किसानों के आंदोलन का समर्थन किया। इंडियन एसोसिएशन (सुरेंद्रनाथ बनर्जी द्वारा स्थापित) ने भी किसानों का समर्थन किया।

3. विद्रोह के चरण और घटनाएँ (Phases and Events of the Revolt)

पावना विद्रोह ने किसानों द्वारा कानूनी और संगठित प्रतिरोध के नए तरीकों का प्रदर्शन किया।

  • शुरुआत: यह विद्रोह मई 1873 में यूसुफशाही परगना के पावना जिले में शुरू हुआ।
  • ‘कर नहीं’ अभियान: किसानों ने बढ़े हुए और अवैध लगान का भुगतान करने से इनकार कर दिया।
  • शांतिपूर्ण प्रतिरोध: नील विद्रोह के विपरीत, पावना विद्रोह काफी हद तक अहिंसक और कानूनी दायरे में रहा। किसानों ने अपनी शिकायतों को कानूनी रूप से उठाया।
  • जमींदारों का बहिष्कार: किसानों ने जमींदारों और उनके एजेंटों का सामाजिक बहिष्कार किया।
  • जनता के लिए धन संग्रह: किसानों ने मुकदमा लड़ने के लिए और अपने आंदोलन को चलाने के लिए धन इकट्ठा किया।
  • सरकारी अदालतों में अपील: किसानों ने जमींदारों के खिलाफ अदालतों में मुकदमे दायर किए और अपने किरायेदारी अधिकारों को साबित करने के लिए दस्तावेजी सबूत पेश किए।
  • पुलिस से टकराव: कुछ स्थानों पर, जब जमींदारों के लठैत (लाठीधारी गुंडे) आए, तो किसानों और पुलिस के बीच छोटे-मोटे टकराव हुए, लेकिन बड़े पैमाने पर हिंसा से बचा गया।
  • विद्रोह का फैलाव: यह विद्रोह धीरे-धीरे पावना से बंगाल के अन्य जिलों जैसे बोगरा, ढाका और मैमनसिंह तक फैल गया।

4. विद्रोह का दमन और परिणाम (Suppression and Outcomes of the Revolt)

सरकार का प्रारंभिक रुख तटस्थ रहा, लेकिन अंततः किसानों के पक्ष में कुछ कदम उठाए गए।

  • सरकार का हस्तक्षेप: बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जॉर्ज कैंपबेल ने शुरू में विद्रोह को दबाने की कोशिश नहीं की और जमींदारों को फटकार लगाई।
  • विद्रोह की समाप्ति: विद्रोह 1876 तक काफी हद तक समाप्त हो गया, क्योंकि किसानों ने कानूनी जीत हासिल की थी और सरकार ने जमींदारों के खिलाफ कुछ कदम उठाए थे।
  • किरायेदारी अधिनियम, 1885: हालांकि पावना विद्रोह सीधे तौर पर किसी विशेष अधिनियम को तुरंत लागू नहीं करवा सका, इसने बंगाल किरायेदारी अधिनियम (Bengal Tenancy Act), 1885 के पारित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • अधिनियम के प्रावधान: इस अधिनियम ने किसानों के किरायेदारी अधिकारों को सुरक्षित किया, जमींदारों की मनमानी बेदखली को रोका, और लगान में वृद्धि के लिए कानूनी प्रक्रियाएँ स्थापित कीं।
  • किसानों को राहत: इस अधिनियम ने किसानों को कुछ हद तक शोषण से राहत दिलाई और उनके अधिकारों को कानूनी मान्यता प्रदान की।

5. विद्रोह का महत्व (Significance of the Revolt)

पावना विद्रोह ने भारतीय किसान आंदोलनों के इतिहास में एक नया अध्याय खोला।

  • अहिंसक और कानूनी प्रतिरोध: यह विद्रोह इस मायने में अनूठा था कि यह मुख्य रूप से अहिंसक और कानूनी दायरे में रहकर लड़ा गया, जिससे यह भविष्य के आंदोलनों के लिए एक मिसाल बन गया।
  • किसान संघों का उदय: इसने किसानों द्वारा अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए संगठित संघों (कृषि लीग) के महत्व को स्थापित किया।
  • बुद्धिजीवियों का समर्थन: इसने दर्शाया कि कैसे बुद्धिजीवियों और प्रेस का समर्थन किसान आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।
  • सरकारी नीति पर प्रभाव: विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने और उनके किरायेदारी अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनाने के लिए मजबूर किया, जिसके परिणामस्वरूप 1885 का किरायेदारी अधिनियम पारित हुआ।
  • राष्ट्रवादी आंदोलन से अलगाव: यह विद्रोह मुख्य रूप से जमींदारों के खिलाफ था, न कि सीधे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ, और इस प्रकार राष्ट्रीय आंदोलन से इसका सीधा जुड़ाव नहीं था।

6. निष्कर्ष (Conclusion)

पावना विद्रोह ब्रिटिश भारत में किसानों के शोषण के खिलाफ एक महत्वपूर्ण और सफल आंदोलन था। इसने दिखाया कि किसान, संगठित होकर और कानूनी व शांतिपूर्ण तरीकों का उपयोग करके, अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं। हालांकि यह सीधे तौर पर ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं था, इसने किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक precedent स्थापित किया और बंगाल किरायेदारी अधिनियम, 1885 जैसे महत्वपूर्ण कानूनों को जन्म दिया। पावना विद्रोह ने भारतीय किसान आंदोलनों के चरित्र को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और भविष्य के संघर्षों के लिए एक मॉडल प्रदान किया।

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