क्रांतिकारी आंदोलन (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण पहलू था, जो अहिंसक तरीकों से असंतुष्ट युवाओं द्वारा चलाया गया था। इन क्रांतिकारियों का मानना था कि ब्रिटिश शासन को केवल सशस्त्र संघर्ष और हिंसा के माध्यम से ही उखाड़ फेंका जा सकता है। यह आंदोलन दो प्रमुख चरणों में विकसित हुआ: पहला चरण (1900 के दशक की शुरुआत से 1920 के दशक के मध्य तक) और दूसरा चरण (1920 के दशक के मध्य से 1930 के दशक के अंत तक)।
1. पृष्ठभूमि और उदय के कारण (Background and Causes for Rise)
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का उदय कई कारकों का परिणाम था, जिसमें ब्रिटिश दमन और नरमपंथियों की धीमी प्रगति शामिल थी।
- नरमपंथियों की विफलता: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरमपंथी नेताओं की ‘प्रार्थना और याचिका’ की नीति से अपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण युवाओं में निराशा बढ़ी।
- ब्रिटिश दमन: ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियाँ, जैसे बंगाल विभाजन (1905), रॉलेट एक्ट (1919) और जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919), ने भारतीयों में आक्रोश पैदा किया और उन्हें हिंसक प्रतिरोध की ओर धकेला।
- आर्थिक शोषण: ब्रिटिश शासन के तहत बढ़ती गरीबी, अकाल और आर्थिक शोषण ने भी युवाओं में असंतोष को बढ़ावा दिया।
- अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव: जापान की रूस पर जीत (1905), आयरलैंड, तुर्की, रूस और चीन में क्रांतिकारी आंदोलनों ने भारतीयों को प्रेरित किया कि पश्चिमी शक्तियाँ अजेय नहीं हैं और सशस्त्र संघर्ष से स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है।
- धार्मिक पुनरुत्थान: कुछ धार्मिक और सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलनों ने भी युवाओं में आत्म-सम्मान और देशभक्ति की भावना जगाई।
2. क्रांतिकारी आंदोलन का पहला चरण (First Phase of Revolutionary Movement) – 1900-1920s
यह चरण मुख्य रूप से बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब तक सीमित था, जिसमें व्यक्तिगत वीरता और राजनीतिक हत्याओं पर जोर दिया गया।
- बंगाल:
- अनुशीलन समिति: 1902 में कलकत्ता में प्रमथनाथ मित्रा द्वारा स्थापित। इसकी कई शाखाएँ थीं, जिनमें ढाका अनुशीलन समिति (पुलिन बिहारी दास) प्रमुख थी।
- युगांतर: 1906 में बारिन घोष और भूपेंद्रनाथ दत्त द्वारा शुरू किया गया एक क्रांतिकारी साप्ताहिक।
- अलीपुर बम कांड (1908): अरविंद घोष और बारिन घोष सहित कई क्रांतिकारियों को फंसाया गया। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या का प्रयास किया।
- सूर्य सेन और चटगांव शस्त्रागार छापा (1930): सूर्य सेन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने चटगांव के सरकारी शस्त्रागार पर छापा मारा।
- महाराष्ट्र:
- मित्र मेला (1899) / अभिनव भारत (1904): वी.डी. सावरकर (विनायक दामोदर सावरकर) और उनके भाई गणेश सावरकर द्वारा स्थापित। यह एक गुप्त समाज था।
- चापेकर बंधु (दामोदर और बालकृष्ण चापेकर): 1897 में पुणे में प्लेग कमिश्नर रैंड और लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या की।
- पंजाब:
- भारत माता सोसाइटी: अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) द्वारा स्थापित।
- लाला लाजपत राय और अजीत सिंह जैसे नेताओं ने भी क्रांतिकारी विचारों को बढ़ावा दिया।
- विदेश में क्रांतिकारी गतिविधियाँ:
- इंडिया हाउस (लंदन): श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा 1905 में स्थापित। मदनलाल ढींगरा ने कर्जन वायली की हत्या की (1909)।
- गदर पार्टी (अमेरिका और कनाडा): 1913 में लाला हरदयाल और सोहन सिंह भकना द्वारा स्थापित। इसका उद्देश्य भारत में सशस्त्र क्रांति लाना था।
3. क्रांतिकारी आंदोलन का दूसरा चरण (Second Phase of Revolutionary Movement) – 1920s-1930s
यह चरण अधिक संगठित था और इसका उद्देश्य समाजवादी विचारों को शामिल करते हुए ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना था।
- हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) / हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA):
- HRA (1924): सचिन सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल और जोगेश चंद्र चटर्जी द्वारा कानपुर में स्थापित।
- काकोरी कांड (1925): HRA के सदस्यों ने लखनऊ के पास काकोरी में एक ट्रेन में सरकारी खजाने को लूटा। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, रोशन सिंह और राजेंद्र लाहिड़ी को फांसी दी गई।
- HSRA (1928): चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह और सुखदेव द्वारा दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में स्थापित। इसका उद्देश्य एक समाजवादी गणतंत्र की स्थापना करना था।
- भगत सिंह और उनके साथी:
- सांडर्स की हत्या (1928): भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जे.पी. सांडर्स की हत्या की।
- केंद्रीय विधानमंडल में बम फेंकना (1929): भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘बहरों को सुनाने के लिए’ केंद्रीय विधानमंडल में बम फेंके। उनका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था, बल्कि विरोध दर्ज कराना था।
- लाहौर षड्यंत्र केस: भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सांडर्स की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया और 23 मार्च, 1931 को फांसी दी गई।
- सूर्य सेन और चटगांव शस्त्रागार छापा (1930):
- मास्टर दा के नाम से प्रसिद्ध सूर्य सेन के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने चटगांव (बंगाल) के सरकारी शस्त्रागार पर छापा मारा।
- यह एक संगठित प्रयास था जिसमें महिलाओं (जैसे प्रीतिलता वाद्देदार और कल्पना दत्त) ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
4. क्रांतिकारी आंदोलन का महत्व और सीमाएँ (Significance and Limitations)
क्रांतिकारी आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नई दिशा दी, लेकिन इसकी अपनी सीमाएँ भी थीं।
- महत्व:
- राष्ट्रवाद को तीव्र करना: क्रांतिकारियों ने युवाओं में देशभक्ति और बलिदान की भावना जगाई।
- जनता में भय कम करना: उन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रति जनता के भय को कम किया।
- समाजवादी विचारों का प्रसार: दूसरे चरण के क्रांतिकारियों ने समाजवादी विचारों को बढ़ावा दिया, जिससे सामाजिक न्याय और समानता पर जोर दिया गया।
- प्रेरणा स्रोत: उनके बलिदान ने भविष्य के स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरित किया।
- सीमाएँ:
- जन-आधार का अभाव: यह आंदोलन बड़े पैमाने पर जन-आधारित नहीं था और मुख्य रूप से युवाओं और बुद्धिजीवियों तक सीमित था।
- अहिंसा का अभाव: गांधीजी के अहिंसक दर्शन के विपरीत, यह आंदोलन हिंसा पर आधारित था, जिसे व्यापक जनता का समर्थन नहीं मिला।
- संगठन की कमी: पहले चरण में संगठन की कमी थी, हालांकि दूसरे चरण में कुछ हद तक सुधार हुआ।
- सरकारी दमन: ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर दमनकारी नीतियाँ अपनाईं, जिससे कई नेता मारे गए या जेल गए।
5. निष्कर्ष (Conclusion)
क्रांतिकारी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण और गतिशील पहलू था, जिसने ब्रिटिश शासन को चुनौती देने के लिए सशस्त्र संघर्ष और बलिदान का मार्ग अपनाया। यद्यपि यह आंदोलन अपने तात्कालिक उद्देश्य, ब्रिटिश शासन को सीधे उखाड़ फेंकने में सफल नहीं हुआ, इसने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नई ऊर्जा दी, युवाओं में देशभक्ति की भावना जगाई और ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और सूर्य सेन जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान ने भारतीय इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी और वे आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बहुआयामी प्रकृति को दर्शाता है, जिसमें अहिंसक और क्रांतिकारी दोनों धाराएँ शामिल थीं।