गोलमेज सम्मेलन (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
गोलमेज सम्मेलन (Round Table Conferences) ब्रिटिश सरकार द्वारा 1930 और 1932 के बीच लंदन में आयोजित किए गए तीन सम्मेलनों की एक श्रृंखला थी। इनका मुख्य उद्देश्य भारत में संवैधानिक सुधारों पर चर्चा करना और भारत के भविष्य के लिए एक आम सहमति बनाना था, जिसमें भारतीय राजनीतिक दलों और रियासतों के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया था।
1. पृष्ठभूमि और आयोजन के कारण (Background and Reasons for Organization)
साइमन कमीशन की रिपोर्ट और भारत में बढ़ते राजनीतिक असंतोष ने ब्रिटिश सरकार को इन सम्मेलनों का आयोजन करने के लिए प्रेरित किया।
- साइमन कमीशन की रिपोर्ट (1930): साइमन कमीशन ने भारत में संवैधानिक सुधारों पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, लेकिन इसमें किसी भी भारतीय सदस्य को शामिल न करने के कारण इसका व्यापक विरोध हुआ। इस रिपोर्ट पर चर्चा करने के लिए एक मंच की आवश्यकता थी।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930): महात्मा गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन पूरे भारत में फैल गया था, जिससे ब्रिटिश सरकार पर दबाव बढ़ गया था। सरकार को यह एहसास हुआ कि कांग्रेस जैसे प्रमुख भारतीय दल की भागीदारी के बिना कोई भी संवैधानिक सुधार सफल नहीं हो सकता।
- डोमिनियन स्टेटस की मांग: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन (1929) में पूर्ण स्वराज की मांग की थी, जबकि ब्रिटिश सरकार अभी भी डोमिनियन स्टेटस पर चर्चा करना चाहती थी।
- भारतीय रियासतों की भागीदारी: ब्रिटिश सरकार भारतीय रियासतों को भी संवैधानिक प्रक्रिया में शामिल करना चाहती थी ताकि भविष्य के भारत में उनकी भूमिका निर्धारित की जा सके।
2. पहला गोलमेज सम्मेलन (First Round Table Conference)
यह सम्मेलन कांग्रेस की अनुपस्थिति के कारण अधूरा रहा और कोई ठोस परिणाम नहीं दे सका।
- अवधि: नवंबर 1930 – जनवरी 1931।
- स्थान: लंदन।
- अध्यक्ष: ब्रिटिश प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड।
- प्रतिनिधि:
- भारतीय रियासतों के प्रतिनिधि (लगभग 16)।
- ब्रिटिश भारतीय राजनीतिक दल (मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, उदारवादी, दलित वर्ग, सिख, ईसाई आदि)।
- बी.आर. अंबेडकर ने दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व किया।
- कांग्रेस की अनुपस्थिति: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के कारण इस सम्मेलन का बहिष्कार किया।
- चर्चा के मुख्य बिंदु: भारत के लिए एक संघीय ढांचा, अल्पसंख्यकों के अधिकार और रक्षा जैसे मुद्दे।
- परिणाम: कांग्रेस की अनुपस्थिति के कारण यह सम्मेलन असफल रहा। कोई ठोस संवैधानिक निर्णय नहीं लिया जा सका, लेकिन यह स्वीकार किया गया कि कांग्रेस की भागीदारी आवश्यक है।
3. गांधी-इरविन समझौता (Gandhi-Irwin Pact)
पहले गोलमेज सम्मेलन की विफलता के बाद, ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस को दूसरे सम्मेलन में शामिल करने के लिए प्रयास किए।
- तिथि: 5 मार्च, 1931।
- पृष्ठभूमि: वायसराय लॉर्ड इरविन और महात्मा गांधी के बीच लंबी बातचीत हुई।
- समझौते के बिंदु:
- सरकार ने सभी राजनीतिक कैदियों (हिंसा में शामिल न होने वाले) को रिहा करने पर सहमति व्यक्त की।
- नमक बनाने की अनुमति दी गई।
- विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर शांतिपूर्ण धरना देने की अनुमति दी गई।
- गांधीजी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने पर सहमति व्यक्त की।
- महत्व: इस समझौते ने गांधीजी को दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने का मार्ग प्रशस्त किया।
4. दूसरा गोलमेज सम्मेलन (Second Round Table Conference)
गांधीजी की उपस्थिति के बावजूद, सांप्रदायिक मुद्दों पर गतिरोध के कारण यह सम्मेलन भी असफल रहा।
- अवधि: सितंबर 1931 – दिसंबर 1931।
- स्थान: लंदन।
- अध्यक्ष: ब्रिटिश प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड।
- प्रतिनिधि:
- महात्मा गांधी: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
- बी.आर. अंबेडकर: दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग की।
- सरोजिनी नायडू: महिला प्रतिनिधि।
- मदन मोहन मालवीय: भारतीय प्रतिनिधि।
- मुस्लिम लीग, रियासतों और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के प्रतिनिधि।
- विवाद के मुख्य मुद्दे:
- सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व: पृथक निर्वाचन मंडल की मांग पर गंभीर गतिरोध रहा। गांधीजी ने इसका कड़ा विरोध किया।
- अल्पसंख्यकों के अधिकार।
- सत्ता हस्तांतरण का स्वरूप।
- परिणाम: सांप्रदायिक मुद्दे पर कोई सहमति न बन पाने के कारण यह सम्मेलन भी असफल रहा। गांधीजी खाली हाथ भारत लौटे और उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन को फिर से शुरू किया।
5. तीसरा गोलमेज सम्मेलन (Third Round Table Conference)
कांग्रेस की अनुपस्थिति और सीमित भागीदारी के कारण यह सम्मेलन भी कोई ठोस परिणाम नहीं दे सका।
- अवधि: नवंबर 1932 – दिसंबर 1932।
- स्थान: लंदन।
- अध्यक्ष: ब्रिटिश प्रधान मंत्री रामसे मैकडोनाल्ड।
- प्रतिनिधि: इस सम्मेलन में बहुत कम प्रतिनिधि शामिल हुए, क्योंकि कांग्रेस ने इसका बहिष्कार किया था और कई प्रमुख भारतीय नेता जेल में थे। बी.आर. अंबेडकर ने इस सम्मेलन में भी भाग लिया।
- परिणाम: यह सम्मेलन भी कोई ठोस निर्णय नहीं दे सका। इसकी सिफारिशों के आधार पर श्वेत पत्र (White Paper) जारी किया गया, जिसे बाद में भारत सरकार अधिनियम, 1935 का आधार बनाया गया।
6. गोलमेज सम्मेलनों का महत्व (Significance of Round Table Conferences)
यद्यपि गोलमेज सम्मेलन अपने तात्कालिक उद्देश्यों में असफल रहे, उन्होंने भारतीय संवैधानिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- संवैधानिक चर्चा का मंच: इन्होंने भारत के संवैधानिक भविष्य पर चर्चा के लिए एक महत्वपूर्ण मंच प्रदान किया, जिसमें विभिन्न भारतीय हितधारकों को शामिल किया गया।
- कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका: इन्होंने ब्रिटिश सरकार को यह एहसास कराया कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बिना कोई भी संवैधानिक सुधार सफल नहीं हो सकता और यह भारत का सबसे बड़ा प्रतिनिधि संगठन है।
- भारतीय नेताओं का अनुभव: इन्होंने भारतीय नेताओं को ब्रिटिश नीति निर्माताओं के साथ सीधे बातचीत करने और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर अपने विचारों को रखने का अवसर दिया।
- सांप्रदायिक मतभेद: इन सम्मेलनों ने विभिन्न भारतीय समुदायों के बीच मतभेदों को उजागर किया, विशेषकर सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर, जिसने भविष्य की विभाजनकारी राजनीति को बढ़ावा दिया।
- भारत सरकार अधिनियम, 1935 का आधार: इन सम्मेलनों में हुई चर्चाओं और सिफारिशों ने भारत सरकार अधिनियम, 1935 के निर्माण का आधार तैयार किया, जो भारत के संवैधानिक विकास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर था।
- दलितों का प्रतिनिधित्व: बी.आर. अंबेडकर ने इन सम्मेलनों में दलितों के अधिकारों के लिए जोरदार वकालत की, जिससे दलितों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व का मुद्दा राष्ट्रीय एजेंडे पर आया।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
गोलमेज सम्मेलन भारतीय संवैधानिक सुधारों पर चर्चा करने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा किया गया एक महत्वपूर्ण प्रयास था। यद्यपि ये सम्मेलन अपने तात्कालिक उद्देश्यों में असफल रहे, विशेषकर सांप्रदायिक मुद्दे पर सहमति न बन पाने और कांग्रेस की प्रारंभिक अनुपस्थिति के कारण, इन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव डाला। इन सम्मेलनों ने ब्रिटिश सरकार को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया और भारत के संवैधानिक भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण आधार तैयार किया, जिसका परिणाम अंततः भारत सरकार अधिनियम, 1935 के रूप में सामने आया। यह भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय बना रहेगा, जो ब्रिटिश और भारतीय नेताओं के बीच बातचीत और गतिरोध दोनों को दर्शाता है।