स्वदेशी आंदोलन (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
स्वदेशी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जो मुख्य रूप से बंगाल विभाजन (1905) के विरोध में शुरू हुआ। यह आंदोलन न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक राजनीतिक संघर्ष था, बल्कि यह आत्म-निर्भरता, राष्ट्रीय गौरव और आर्थिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने का एक व्यापक प्रयास भी था। इसका उद्देश्य ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार करना और भारतीय निर्मित उत्पादों तथा संस्थाओं को बढ़ावा देना था।
1. पृष्ठभूमि और कारण (Background and Causes)
स्वदेशी आंदोलन का उद्भव 19वीं सदी के अंत में बढ़ती राजनीतिक चेतना और ब्रिटिश नीतियों के प्रति असंतोष के कारण हुआ, जिसमें बंगाल विभाजन एक तात्कालिक उत्प्रेरक था।
- बंगाल विभाजन (तात्कालिक कारण): लॉर्ड कर्जन द्वारा 1905 में बंगाल का विभाजन स्वदेशी आंदोलन का तात्कालिक और सबसे महत्वपूर्ण कारण था। ब्रिटिश सरकार ने इसे प्रशासनिक सुविधा का तर्क दिया, लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य बंगाल में बढ़ती राष्ट्रवादी गतिविधियों को कमजोर करना था।
- आर्थिक शोषण: ब्रिटिश आर्थिक नीतियों ने भारत के पारंपरिक उद्योगों को नष्ट कर दिया था और देश को कच्चे माल का निर्यातक तथा ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का बाजार बना दिया था। इस ‘धन के निष्कासन’ (Drain of Wealth) ने भारतीयों में गहरा असंतोष पैदा किया।
- बढ़ता राष्ट्रवाद: 19वीं सदी के अंत तक, भारतीय राष्ट्रवाद मजबूत हो रहा था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य संगठनों ने भारतीयों के अधिकारों और स्वशासन की मांग करना शुरू कर दिया था।
- पश्चिमी प्रभाव और भारतीय पहचान: पश्चिमी शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ, भारतीयों में अपनी संस्कृति और पहचान को संरक्षित करने की भावना भी बढ़ रही थी।
- विभिन्न वर्गों का असंतोष: किसान, मजदूर, बुद्धिजीवी और व्यापारी वर्ग सभी ब्रिटिश नीतियों से किसी न किसी रूप में प्रभावित थे और उनमें असंतोष बढ़ रहा था।
2. स्वदेशी आंदोलन का उद्भव और विकास (Origin and Evolution of Swadeshi Movement)
आंदोलन की शुरुआत बंगाल में हुई, लेकिन जल्द ही यह देश के अन्य हिस्सों में भी फैल गया।
- घोषणा और प्रारंभिक विरोध:
- 7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता के टाउन हॉल में एक विशाल जनसभा में स्वदेशी आंदोलन की औपचारिक घोषणा की गई। यहीं पर बहिष्कार प्रस्ताव पारित किया गया।
- 16 अक्टूबर, 1905 (विभाजन प्रभावी होने का दिन) को शोक दिवस के रूप में मनाया गया। हिंदू और मुसलमानों ने अपनी एकता प्रदर्शित करने के लिए एक दूसरे को ‘राखी’ बांधी।
- आंदोलन के चरण:
- उदारवादी चरण (1903-1905): इस चरण में सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे उदारवादी नेताओं ने संवैधानिक तरीकों से विरोध किया।
- उग्रवादी चरण (1905-1908): विभाजन के बाद, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल (लाल-बाल-पाल) और अरविंद घोष जैसे उग्रवादी नेताओं ने आंदोलन को एक जन आंदोलन में बदल दिया, जिसमें बहिष्कार और निष्क्रिय प्रतिरोध पर जोर दिया गया।
3. स्वदेशी आंदोलन के प्रमुख कार्यक्रम और तरीके (Key Programs and Methods of Swadeshi Movement)
स्वदेशी आंदोलन ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विभिन्न रचनात्मक और प्रतिरोधात्मक तरीकों का उपयोग किया।
- बहिष्कार (Boycott):
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार: ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं, विशेषकर मैनचेस्टर के कपड़े, लिवरपूल के नमक और चीनी का बहिष्कार किया गया। सार्वजनिक रूप से विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई।
- सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार: ब्रिटिश अदालतों, स्कूलों, कॉलेजों और सरकारी सेवाओं का बहिष्कार किया गया।
- सामाजिक बहिष्कार: उन लोगों का सामाजिक बहिष्कार किया गया जो ब्रिटिश वस्तुओं का व्यापार करते थे या उन्हें खरीदते थे।
- स्वदेशी (Promotion of Indigenous):
- स्वदेशी उद्योगों का विकास: भारतीय उद्यमियों ने स्वदेशी कारखाने, बैंक, बीमा कंपनियाँ, दुकानें और कपड़ा मिलें खोलीं।
- राष्ट्रीय शिक्षा: ब्रिटिश शिक्षण संस्थानों के बहिष्कार के जवाब में, बंगाल नेशनल कॉलेज (अरविंद घोष इसके पहले प्रधानाचार्य थे) और कई राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना की गई।
- सांस्कृतिक पुनरुत्थान: रवींद्रनाथ टैगोर (अमर सोनार बांग्ला), रजनीकांत सेन, सैयद अबू मोहम्मद जैसे कवियों और कलाकारों ने देशभक्ति के गीत लिखे और कला के माध्यम से राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
- जन भागीदारी:
- छात्र: छात्रों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- महिलाएँ: महिलाओं ने जुलूसों में भाग लिया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया।
- किसान और मजदूर: यद्यपि यह आंदोलन मुख्य रूप से शहरी मध्य वर्ग तक सीमित था, कुछ क्षेत्रों में किसानों और मजदूरों ने भी भाग लिया।
- समितियाँ और स्वयंसेवक: ‘स्वदेश बांधव समिति’ (अश्विनी कुमार दत्त द्वारा स्थापित) जैसी कई स्वयंसेवी समितियाँ बनाई गईं, जिन्होंने आंदोलन को संगठित किया।
4. आंदोलन का प्रसार और प्रमुख नेता (Spread of the Movement and Key Leaders)
स्वदेशी आंदोलन बंगाल से निकलकर देश के अन्य हिस्सों में भी फैला, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- बंगाल: सुरेंद्रनाथ बनर्जी, बिपिन चंद्र पाल, अरविंद घोष, रवींद्रनाथ टैगोर, अश्विनी कुमार दत्त।
- महाराष्ट्र: बाल गंगाधर तिलक (उन्होंने शिवाजी और गणपति उत्सवों का उपयोग आंदोलन को लोकप्रिय बनाने के लिए किया)।
- पंजाब: लाला लाजपत राय, अजीत सिंह।
- दिल्ली: सैयद हैदर रजा।
- मद्रास: चिदंबरम पिल्लई, सुब्रमण्यम भारती।
5. स्वदेशी आंदोलन का महत्व और परिणाम (Significance and Consequences of Swadeshi Movement)
स्वदेशी आंदोलन के दूरगामी परिणाम हुए, जिन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदल दी।
- राष्ट्रवाद का तीव्र विकास: इसने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नई ऊर्जा दी और इसे एक जन आंदोलन में बदल दिया, जिसमें समाज के विभिन्न वर्ग शामिल हुए।
- उग्रवादी राष्ट्रवाद का उदय: उदारवादी तरीकों की सीमाओं को उजागर करते हुए, इसने गरम दल (उग्रवादी राष्ट्रवाद) को बढ़ावा दिया, जो अधिक मुखर और प्रत्यक्ष कार्रवाई में विश्वास रखते थे।
- आर्थिक राष्ट्रवाद: इसने स्वदेशी उद्योगों और उत्पादों को बढ़ावा दिया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का विचार लोकप्रिय हुआ।
- राष्ट्रीय शिक्षा: ब्रिटिश संस्थानों के बहिष्कार ने राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास को प्रेरित किया, जिससे भारतीय मूल्यों और संस्कृति पर आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिला।
- सांस्कृतिक पुनरुत्थान: कला, साहित्य और संगीत के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया गया।
- सांप्रदायिकता का बढ़ना: हालाँकि आंदोलन ने हिंदू-मुस्लिम एकता के कुछ उदाहरण दिखाए, लेकिन ब्रिटिश की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के कारण सांप्रदायिक विभाजन भी गहरा हुआ, जिसके परिणामस्वरूप 1906 में मुस्लिम लीग का गठन हुआ।
- भविष्य के आंदोलनों के लिए नींव: इसने गांधीवादी आंदोलनों, विशेषकर असहयोग आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण नींव तैयार की, जिसमें बहिष्कार और रचनात्मक कार्यक्रमों का उपयोग किया गया।
6. आंदोलन की सीमाएँ और पतन (Limitations and Decline of the Movement)
कुछ सफलताओं के बावजूद, स्वदेशी आंदोलन की अपनी सीमाएँ थीं जिसके कारण यह 1908 तक कमजोर पड़ गया।
- नेतृत्व का अभाव: तिलक और अरविंद घोष जैसे प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी और निर्वासन ने आंदोलन को कमजोर कर दिया।
- संगठन की कमी: आंदोलन में एक मजबूत अखिल भारतीय संगठन और प्रभावी नेतृत्व की कमी थी।
- उदारवादी-उग्रवादी विभाजन: 1907 के सूरत विभाजन ने कांग्रेस को कमजोर कर दिया और आंदोलन की गति को धीमा कर दिया।
- सरकारी दमन: ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर दमनकारी नीतियाँ अपनाईं, जिसमें नेताओं की गिरफ्तारी, सभाओं पर प्रतिबंध और प्रेस पर नियंत्रण शामिल था।
- जन-आधार का अभाव: यह आंदोलन मुख्य रूप से शहरी मध्य वर्ग और बुद्धिजीवियों तक सीमित रहा और किसानों तथा मजदूरों के बड़े वर्ग तक पूरी तरह से नहीं पहुँच पाया।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
स्वदेशी आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण और दूरगामी प्रभाव वाला चरण था। बंगाल विभाजन के विरोध में शुरू हुआ यह आंदोलन केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि यह भारतीय समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति के पुनरुत्थान का एक व्यापक प्रयास था। इसने भारतीयों में आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता और राष्ट्रीय गौरव की भावना जगाई, जिससे भविष्य के राष्ट्रवादी आंदोलनों के लिए एक मजबूत नींव तैयार हुई। यद्यपि यह कुछ सीमाओं और सरकारी दमन के कारण कमजोर पड़ गया, स्वदेशी आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नई दिशा दी और यह साबित कर दिया कि जन भागीदारी और रचनात्मक प्रतिरोध ब्रिटिश शासन के खिलाफ एक शक्तिशाली हथियार हो सकते हैं।