स्थानीय निकायों को शक्तियों का विकेंद्रीकरण (Decentralization of Powers to Local Bodies) भारत में लोकतांत्रिक शासन और विकास का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका अर्थ है केंद्र और राज्य सरकारों से शक्तियों, कार्यों और संसाधनों को स्थानीय स्तर पर, यानी पंचायती राज संस्थाओं (ग्रामीण) और नगर पालिकाओं (शहरी) को हस्तांतरित करना। यह प्रक्रिया 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा संवैधानिक रूप से अनिवार्य की गई थी।
1. विकेंद्रीकरण की अवधारणा (Concept of Decentralization)
विकेंद्रीकरण शासन को जनता के करीब लाता है।
1.1. परिभाषा
- विकेंद्रीकरण का अर्थ है सत्ता, जिम्मेदारी और संसाधनों का केंद्र या राज्य सरकार से निचले स्तरों (स्थानीय निकायों) को हस्तांतरण।
- यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो निर्णय लेने की प्रक्रिया को उन लोगों के करीब लाती है जो उन निर्णयों से प्रभावित होते हैं।
1.2. विकेंद्रीकरण के प्रकार
- राजनीतिक विकेंद्रीकरण: स्थानीय स्तर पर निर्वाचित प्रतिनिधियों को निर्णय लेने की शक्ति देना (जैसे पंचायतें)।
- प्रशासनिक विकेंद्रीकरण: प्रशासनिक कार्यों और जिम्मेदारियों को निचले स्तर के अधिकारियों को सौंपना।
- वित्तीय विकेंद्रीकरण: स्थानीय निकायों को अपने स्वयं के राजस्व स्रोत और वित्तीय प्रबंधन की शक्ति प्रदान करना।
1.3. विकेंद्रीकरण का महत्व
- लोकतंत्र को गहरा करना: यह जमीनी स्तर पर नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करता है।
- बेहतर सेवा वितरण: स्थानीय निकाय स्थानीय जरूरतों को बेहतर ढंग से समझते हैं और सेवाओं को अधिक कुशलता से वितरित कर सकते हैं।
- जवाबदेही बढ़ाना: स्थानीय प्रतिनिधि जनता के प्रति अधिक जवाबदेह होते हैं।
- समावेशी विकास: हाशिए पर पड़े और कमजोर वर्गों (जैसे महिलाएँ, SC/ST) को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करता है।
- क्षमता निर्माण: स्थानीय स्तर पर नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमता का विकास करता है।
2. 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992: पंचायती राज (73rd CAA, 1992: Panchayati Raj)
यह अधिनियम ग्रामीण स्थानीय स्वशासन (पंचायती राज संस्थाओं) को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है।
- अधिनियम का पारित होना: 1992 में संसद द्वारा पारित किया गया और 24 अप्रैल, 1993 को लागू हुआ। (24 अप्रैल को ‘पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाया जाता है)।
- संवैधानिक दर्जा: इसने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया।
- संविधान में जोड़:
- संविधान में एक नया भाग IX (‘पंचायतें’) जोड़ा गया, जिसमें अनुच्छेद 243 से 243O तक के प्रावधान हैं।
- एक नई ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें पंचायतों के 29 कार्यात्मक विषय शामिल हैं।
- त्रि-स्तरीय प्रणाली: सभी राज्यों में (20 लाख से अधिक आबादी वाले) त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली का प्रावधान:
- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत।
- मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति (ब्लॉक/तालुका)।
- जिला स्तर पर जिला परिषद।
- चुनाव:
- पंचायतों के सभी स्तरों पर सदस्यों का प्रत्यक्ष चुनाव।
- पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया। यदि कोई पंचायत भंग होती है, तो 6 महीने के भीतर नए चुनाव कराना अनिवार्य है।
- आरक्षण:
- अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए उनकी आबादी के अनुपात में सीटों का आरक्षण।
- महिलाओं के लिए कम से कम एक-तिहाई (33%) सीटों का आरक्षण। (कुछ राज्यों में 50% तक)।
- राज्य चुनाव आयोग (State Election Commission – SEC): पंचायतों के चुनाव कराने के लिए प्रत्येक राज्य में SEC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243K)।
- राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission – SFC): पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करने और उन्हें वित्तीय सहायता के लिए सिफारिशें करने के लिए प्रत्येक 5 वर्ष में SFC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243I)।
- ग्राम सभा: ग्राम सभा को संवैधानिक दर्जा दिया गया (अनुच्छेद 243A), जो प्रत्यक्ष लोकतंत्र का आधार है।
3. 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992: नगरपालिकाएँ (74th CAA, 1992: Municipalities)
यह अधिनियम शहरी स्थानीय स्वशासन (नगर पालिकाओं) को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है।
- अधिनियम का पारित होना: 1992 में संसद द्वारा पारित किया गया और 1 जून, 1993 को लागू हुआ।
- संवैधानिक दर्जा: इसने शहरी स्थानीय निकायों (नगर पालिकाओं) को संवैधानिक दर्जा दिया।
- संविधान में जोड़:
- संविधान में एक नया भाग IXA (‘नगर पालिकाएँ’) जोड़ा गया, जिसमें अनुच्छेद 243P से 243ZG तक के प्रावधान हैं।
- एक नई बारहवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें नगर पालिकाओं के 18 कार्यात्मक विषय शामिल हैं।
- त्रि-स्तरीय प्रणाली: नगर पालिकाओं के तीन प्रकार का प्रावधान:
- संक्रमणशील क्षेत्र के लिए नगर पंचायत (ग्रामीण से शहरी में संक्रमण)।
- छोटे शहरी क्षेत्र के लिए नगर परिषद।
- बड़े शहरी क्षेत्र के लिए नगर निगम।
- चुनाव और आरक्षण: 73वें संशोधन के समान ही चुनाव और आरक्षण के प्रावधान (5 वर्ष का कार्यकाल, 6 महीने में चुनाव, SC/ST और महिलाओं के लिए 33% आरक्षण)।
- जिला योजना समिति (District Planning Committee – DPC): प्रत्येक जिले में DPC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243ZD) जो पंचायतों और नगर पालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करता है।
- महानगर योजना समिति (Metropolitan Planning Committee – MPC): प्रत्येक महानगरीय क्षेत्र में MPC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243ZE) जो महानगरीय क्षेत्र के लिए विकास योजना का मसौदा तैयार करता है।
4. शक्तियों के विकेंद्रीकरण के लाभ (Benefits of Decentralization of Powers)
स्थानीय निकायों को शक्तियों का विकेंद्रीकरण लोकतंत्र और विकास के लिए कई फायदे प्रदान करता है।
- लोकतंत्र को गहरा करना: यह जमीनी स्तर पर नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करता है, जिससे लोकतंत्र अधिक समावेशी और सहभागी बनता है।
- बेहतर सेवा वितरण: स्थानीय निकाय स्थानीय जरूरतों को बेहतर ढंग से समझते हैं और सेवाओं को अधिक कुशलता से वितरित कर सकते हैं।
- जवाबदेही बढ़ाना: स्थानीय प्रतिनिधि जनता के प्रति अधिक जवाबदेह होते हैं।
- समावेशी विकास: महिलाओं, SC, ST और अन्य कमजोर वर्गों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करता है, जिससे विकास अधिक समावेशी होता है।
- क्षमता निर्माण: स्थानीय स्तर पर नेतृत्व और प्रशासनिक क्षमता का विकास करता है।
- संसाधनों का इष्टतम उपयोग: स्थानीय स्तर पर संसाधनों का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है।
5. शक्तियों के विकेंद्रीकरण के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges to Decentralization of Powers)
स्थानीय निकायों को शक्तियों के प्रभावी विकेंद्रीकरण के मार्ग में कई बाधाएँ मौजूद हैं।
- निधियों का अभाव: वित्तीय स्वायत्तता की कमी और राज्य सरकारों पर अत्यधिक निर्भरता। राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों का पूर्ण कार्यान्वयन नहीं।
- कार्यों का हस्तांतरण: राज्यों द्वारा पंचायतों और नगर पालिकाओं को पर्याप्त शक्तियाँ, कार्य और कर्मचारी हस्तांतरित न करना (‘3F’s – Funds, Functions, Functionaries का अभाव)।
- क्षमता का अभाव: निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों में प्रशिक्षण और कौशल की कमी।
- राजनीतिक हस्तक्षेप: राज्य सरकारों और स्थानीय राजनेताओं द्वारा अनुचित हस्तक्षेप।
- अधिकारशाही का प्रभुत्व: नौकरशाही का स्थानीय निकायों के कामकाज पर हावी होना।
- सामाजिक बाधाएँ: जातिवाद, सांप्रदायिकता और लैंगिक भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयाँ अभी भी मौजूद हैं, जो प्रभावी भागीदारी को बाधित करती हैं।
- ग्राम सभा / वार्ड समिति की निष्क्रियता: कई स्थानों पर ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों की बैठकें नियमित रूप से नहीं होती हैं या उनमें भागीदारी कम होती है।
- निर्वाचन अनियमितताएँ: कुछ स्थानों पर स्थानीय चुनावों में अनियमितताएँ।
6. आगे की राह और सुधार (Way Forward and Reforms)
स्थानीय निकायों को और अधिक सशक्त बनाने के लिए निरंतर सुधारों की आवश्यकता है।
- वित्तीय सशक्तिकरण: पंचायतों और नगर पालिकाओं को अधिक वित्तीय संसाधन प्रदान करना, उनके राजस्व आधार को मजबूत करना, और राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों को प्रभावी ढंग से लागू करना।
- कार्यों का पूर्ण हस्तांतरण: राज्यों द्वारा ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध सभी विषयों को स्थानीय निकायों को पूर्ण रूप से हस्तांतरित करना।
- क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण: निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों के लिए नियमित और गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण कार्यक्रम।
- पारदर्शिता और जवाबदेही: सामाजिक ऑडिट को मजबूत करना और सूचना के अधिकार का प्रभावी कार्यान्वयन।
- ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों को सक्रिय करना: उनकी नियमित बैठकें सुनिश्चित करना और उनमें जन भागीदारी को बढ़ावा देना।
- महिलाओं और कमजोर वर्गों की भागीदारी: आरक्षण प्रावधानों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना और उनके नेतृत्व को बढ़ावा देना।
- ई-गवर्नेंस का उपयोग: स्थानीय शासन में प्रौद्योगिकी का उपयोग कर दक्षता और पारदर्शिता बढ़ाना।
- जिला योजना समितियों को मजबूत करना: जिला और महानगर योजना समितियों को प्रभावी बनाना ताकि वे स्थानीय योजनाओं को बेहतर ढंग से समेकित कर सकें।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
स्थानीय निकायों को शक्तियों का विकेंद्रीकरण भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने और जमीनी स्तर पर शासन को अधिक समावेशी और प्रभावी बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों ने पंचायती राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान कर इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। यद्यपि निधियों की कमी, कार्यों के हस्तांतरण का अभाव और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसी चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं, विकेंद्रीकरण ने लोकतंत्र को गहरा किया है और कमजोर वर्गों को सशक्त बनाया है। एक मजबूत, वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर और कार्यात्मक रूप से स्वायत्त स्थानीय शासन प्रणाली भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को साकार करने और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक है।