पर्यावरणीय चिंताएँ (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)
पर्यावरणीय चिंताएँ (Environmental Concerns) उन मुद्दों को संदर्भित करती हैं जो प्राकृतिक पर्यावरण और मानव कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। तीव्र औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि और अनियंत्रित उपभोग ने वैश्विक स्तर पर कई गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं को जन्म दिया है, जो मानव अस्तित्व और सतत विकास के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई हैं।
1. प्रमुख पर्यावरणीय चिंताएँ (Major Environmental Concerns)
विश्व और भारत दोनों में कई गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियाँ मौजूद हैं।
1.1. जलवायु परिवर्तन (Climate Change)
- कारण: जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, गैस) के जलने से ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) का उत्सर्जन। वनों की कटाई।
- प्रभाव:
- वैश्विक तापमान में वृद्धि: ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्र के स्तर में वृद्धि।
- चरम मौसमी घटनाएँ: बाढ़, सूखा, तूफान, लू की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि।
- कृषि पर प्रभाव, जैव विविधता का नुकसान, खाद्य सुरक्षा का संकट।
1.2. वायु प्रदूषण (Air Pollution)
- कारण: औद्योगिक उत्सर्जन, वाहनों से निकलने वाला धुआँ, पराली जलाना, निर्माण गतिविधियाँ, जीवाश्म ईंधन का जलना।
- प्रभाव:s
- श्वसन संबंधी बीमारियाँ: अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, फेफड़ों का कैंसर।
- अम्लीय वर्षा, स्मॉग का निर्माण, दृश्यता में कमी।
- फसलों और इमारतों को नुकसान।
1.3. जल प्रदूषण (Water Pollution)
- कारण: अनुपचारित औद्योगिक अपशिष्ट, घरेलू सीवेज, कृषि अपवाह (कीटनाशक, उर्वरक), प्लास्टिक कचरा।
- प्रभाव:
- जल जनित रोग: हैजा, टाइफाइड, पेचिश।
- जलीय जीवन को नुकसान, पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन।
- पीने योग्य पानी की कमी।
1.4. मृदा प्रदूषण और निम्नीकरण (Soil Pollution and Degradation)
- कारण: कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग, औद्योगिक कचरा, वनों की कटाई, अत्यधिक चराई।
- प्रभाव:
- मिट्टी की उर्वरता में कमी: कृषि उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव।
- मृदा अपरदन, मरुस्थलीकरण, जैव विविधता का नुकसान।
- खाद्य श्रृंखला में विषाक्त पदार्थों का प्रवेश।
1.5. जैव विविधता का नुकसान (Loss of Biodiversity)
- कारण: वनों की कटाई, आवास का विनाश, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, आक्रामक प्रजातियाँ, अत्यधिक दोहन।
- प्रभाव:
- पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन: खाद्य श्रृंखला का विघटन।
- प्रजातियों का विलुप्त होना, पारिस्थितिकी सेवाओं (जैसे परागण, जल शुद्धिकरण) में कमी।
1.6. ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (Solid Waste Management)
- कारण: शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि, उपभोग पैटर्न में बदलाव, प्लास्टिक का अत्यधिक उपयोग।
- प्रभाव:
- भूमि और जल प्रदूषण: लैंडफिल से लीचेट का रिसाव।
- स्वास्थ्य जोखिम, वायु प्रदूषण (कचरा जलाने से)।
- संसाधनों की बर्बादी।
2. पर्यावरणीय चिंताओं के कारण (Causes of Environmental Concerns)
पर्यावरणीय समस्याओं के मूल में मानव गतिविधियाँ और नीतियाँ हैं।
- जनसंख्या वृद्धि: संसाधनों पर बढ़ता दबाव और अपशिष्ट उत्पादन में वृद्धि।
- तीव्र औद्योगीकरण और शहरीकरण: प्रदूषण, प्राकृतिक आवासों का विनाश, और संसाधनों का अत्यधिक दोहन।
- अनियंत्रित उपभोग पैटर्न: ‘उपयोग करो और फेंको’ की संस्कृति, जिससे अपशिष्ट उत्पादन बढ़ता है।
- वनों की कटाई और वनोन्मूलन: जैव विविधता का नुकसान, जलवायु परिवर्तन में योगदान, मृदा अपरदन।
- कृषि पद्धतियाँ: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग, जिससे मृदा और जल प्रदूषण होता है।
- ऊर्जा उत्पादन: जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता, जिससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।
- पर्यावरणीय कानूनों का कमजोर कार्यान्वयन: कानूनों का प्रभावी ढंग से लागू न होना और नियामक निकायों की कमजोरी।
- पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता का अभाव: जनता में पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति जागरूकता की कमी।
3. पर्यावरणीय चिंताओं के प्रभाव (Impacts of Environmental Concerns)
पर्यावरणीय समस्याएँ मानव स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी तंत्र पर व्यापक प्रभाव डालती हैं।
- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव: वायु, जल और मृदा प्रदूषण के कारण विभिन्न बीमारियाँ (श्वसन, पाचन, कैंसर)।
- आर्थिक प्रभाव: कृषि उत्पादकता में कमी, आपदाओं से नुकसान, पर्यटन पर नकारात्मक प्रभाव, स्वास्थ्य देखभाल लागत में वृद्धि।
- सामाजिक प्रभाव: जल संकट, खाद्य असुरक्षा, विस्थापन, सामाजिक अशांति।
- पारिस्थितिक प्रभाव: जैव विविधता का नुकसान, पारिस्थितिकी तंत्र का असंतुलन, प्रजातियों का विलुप्त होना।
- संसाधन की कमी: पीने योग्य पानी, स्वच्छ हवा और उपजाऊ भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनों की कमी।
4. भारत सरकार द्वारा किए गए उपाय (Measures Taken by the Government of India)
भारत सरकार ने पर्यावरणीय चिंताओं को दूर करने के लिए कई नीतियाँ, कानून और कार्यक्रम लागू किए हैं।
- कानूनी ढाँचा:
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 (EPA 1986): यह एक व्यापक कानून है जो केंद्र सरकार को पर्यावरण की गुणवत्ता की रक्षा और सुधार के लिए व्यापक शक्तियाँ प्रदान करता है। इसके तहत कई नियम बनाए गए हैं, जैसे:
- खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन, हैंडलिंग और सीमा पार आवाजाही) नियम।
- ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम।
- जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1974।
- वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम, 1981।
- वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972।
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980।
- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 (SWM Rules, 2016): शहरी ठोस अपशिष्ट के संग्रह, पृथक्करण, परिवहन, प्रसंस्करण और निपटान के लिए नियम।
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 (EPA 1986): यह एक व्यापक कानून है जो केंद्र सरकार को पर्यावरण की गुणवत्ता की रक्षा और सुधार के लिए व्यापक शक्तियाँ प्रदान करता है। इसके तहत कई नियम बनाए गए हैं, जैसे:
- नीतिगत पहलें:
- राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2006: पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करने के लिए एक व्यापक ढाँचा।
- राष्ट्रीय कार्य योजना जलवायु परिवर्तन (NAPCC), 2008: जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए 8 राष्ट्रीय मिशन:
- राष्ट्रीय सौर मिशन।
- संवर्धित ऊर्जा दक्षता के लिए राष्ट्रीय मिशन।
- सतत पर्यावास पर राष्ट्रीय मिशन।
- राष्ट्रीय जल मिशन।
- हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय मिशन।
- हरित भारत मिशन।
- सतत कृषि के लिए राष्ट्रीय मिशन।
- जलवायु परिवर्तन के लिए रणनीतिक ज्ञान पर राष्ट्रीय मिशन।
- राष्ट्रीय वन नीति, 1988 (National Forest Policy, 1988): वन संरक्षण, सतत प्रबंधन और वन आवरण बढ़ाने पर केंद्रित।
- स्वच्छ भारत अभियान, नमामि गंगे कार्यक्रम।
- संस्थागत ढाँचा: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC), केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB), राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCBs)।
5. अंतर्राष्ट्रीय समझौते और भारत की भागीदारी (International Agreements and India’s Participation)
भारत ने वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करने के लिए विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में सक्रिय रूप से भाग लिया है।
- रियो डी जनेरियो शिखर सम्मेलन (पृथ्वी शिखर सम्मेलन), 1992 (Rio de Janeiro Summit – Earth Summit, 1992):
- भारत ने इस ऐतिहासिक सम्मेलन में सक्रिय रूप से भाग लिया।
- इसके परिणामस्वरूप एजेंडा 21 (सतत विकास के लिए एक कार्य योजना), जैव विविधता पर कन्वेंशन (CBD) और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज और समझौते हुए।
- जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC):
- भारत UNFCCC का एक पक्षकार है, जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है।
- यह ‘सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों’ (Common But Differentiated Responsibilities – CBDR) के सिद्धांत का समर्थन करता है।
- क्योटो प्रोटोकॉल, 1997 (Kyoto Protocol, 1997):
- भारत ने इस प्रोटोकॉल की पुष्टि की है, जो विकसित देशों के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए बाध्यकारी लक्ष्य निर्धारित करता है।
- भारत को विकासशील देश के रूप में उत्सर्जन कटौती के लिए कोई बाध्यकारी लक्ष्य नहीं दिया गया था, लेकिन उसने स्वच्छ विकास तंत्र (CDM) में भाग लिया।
- पेरिस समझौता, 2015 (Paris Agreement, 2015):
- भारत ने पेरिस समझौते की पुष्टि की है, जिसका उद्देश्य वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2°C से काफी नीचे रखना और 1.5°C तक सीमित करने के प्रयासों को जारी रखना है।
- भारत ने अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions – NDCs) प्रस्तुत किए हैं, जिनमें शामिल हैं:
- 2005 के स्तर से 2030 तक अपनी अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता को 45% तक कम करना।
- 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा संसाधनों से लगभग 50% संचयी विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता प्राप्त करना।
- 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन (Net Zero Emissions) प्राप्त करना।
- सतत विकास लक्ष्य (Sustainable Development Goals – SDGs):
- भारत संयुक्त राष्ट्र के 17 सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रतिबद्ध है, जिन्हें 2030 तक प्राप्त किया जाना है।
- इन लक्ष्यों में गरीबी उन्मूलन, भूखमरी समाप्त करना, स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक समानता, स्वच्छ जल और स्वच्छता, सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा, जलवायु कार्रवाई, भूमि पर जीवन और पानी के नीचे जीवन जैसे पर्यावरणीय पहलू भी शामिल हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance – ISA):
- भारत और फ्रांस द्वारा 2015 में शुरू की गई एक पहल, जिसका उद्देश्य सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना है।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
पर्यावरणीय चिंताएँ आज वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर पर सबसे गंभीर चुनौतियों में से एक हैं। जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, जैव विविधता का नुकसान और संसाधन की कमी मानव अस्तित्व और सतत विकास के लिए खतरा पैदा करती है। भारत, अपनी विशाल जनसंख्या और विकास की आकांक्षाओं के साथ, इन चुनौतियों का सामना करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सरकार द्वारा किए गए कानूनी (जैसे EPA 1986, SWM नियम), नीतिगत (जैसे NAPCC, राष्ट्रीय वन नीति) और संस्थागत उपायों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय समझौतों (जैसे पेरिस समझौता, क्योटो प्रोटोकॉल, SDG) में सक्रिय भागीदारी के माध्यम से इन समस्याओं का समाधान करना एक सतत प्रयास है। एक स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास के बीच संतुलन बनाना अत्यंत आवश्यक है।