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राज्यपाल (Governor of State)

राज्यपाल (Governor) भारतीय संघ की राज्य कार्यपालिका का प्रमुख होता है। वह राज्य में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भी कार्य करता है। भारतीय संविधान के भाग VI (अनुच्छेद 153 से 167) में राज्यपाल से संबंधित प्रावधान हैं। राज्यपाल का पद केंद्र और राज्य के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्य करता है।

1. संवैधानिक प्रावधान और नियुक्ति (Constitutional Provisions and Appointment)

राज्यपाल का पद भारत में संसदीय प्रणाली और संघीय ढांचे दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।

1.1. संवैधानिक प्रावधान

  • भारतीय संविधान का भाग VI (अनुच्छेद 153 से 167) राज्य कार्यपालिका से संबंधित है, जिसमें राज्यपाल भी शामिल है।
  • अनुच्छेद 153: प्रत्येक राज्य का एक राज्यपाल होगा। (हालांकि, 7वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 के तहत, एक ही व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है)।
  • अनुच्छेद 154: राज्य की कार्यकारी शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा।

1.2. नियुक्ति

  • राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वह सीधे लोगों द्वारा नहीं चुना जाता है, न ही अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्वाचक मंडल द्वारा।
  • यह कनाडा के मॉडल पर आधारित है, जहाँ केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति की जाती है, जो भारत के संघीय ढांचे में केंद्र के मजबूत होने की विशेषता को दर्शाता है।

1.3. कार्यकाल (अनुच्छेद 156)

  • राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
  • हालांकि, उसका सामान्य कार्यकाल 5 वर्ष का होता है।
  • राष्ट्रपति उसे किसी भी समय उसके पद से हटा सकते हैं।
  • वह अपने उत्तराधिकारी के पदभार ग्रहण करने तक पद पर बना रहता है।

1.4. योग्यताएँ (अनुच्छेद 157)

  • वह भारत का नागरिक होना चाहिए।
  • उसने 35 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो।
  • वह संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होना चाहिए।
  • वह किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए।

1.5. शपथ (अनुच्छेद 159)

  • राज्यपाल संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (या उनकी अनुपस्थिति में वरिष्ठतम न्यायाधीश) के समक्ष शपथ लेता है।

2. राज्यपाल की शक्तियाँ और कार्य (Powers and Functions of the Governor)

राज्यपाल के पास व्यापक शक्तियाँ होती हैं, जो कुछ मामलों में विवेकाधीन भी होती हैं।

2.1. कार्यकारी शक्तियाँ (Executive Powers)

  • राज्य के सभी कार्यकारी कार्य उसके नाम पर किए जाते हैं।
  • वह मुख्यमंत्री और मंत्रियों की नियुक्ति करता है।
  • वह राज्य के महाधिवक्ता, राज्य चुनाव आयुक्त, राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति करता है।
  • वह राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति (Chancellor) होता है और कुलपतियों की नियुक्ति करता है।
  • वह राज्य के प्रशासन से संबंधित कोई भी जानकारी मुख्यमंत्री से मांग सकता है।

2.2. विधायी शक्तियाँ (Legislative Powers)

  • वह राज्य विधानमंडल के सत्र बुलाता है, सत्रावसान करता है और राज्य विधानसभा को भंग कर सकता है।
  • वह राज्य विधानमंडल को संबोधित कर सकता है और संदेश भेज सकता है।
  • वह राज्य विधान परिषद के कुल सदस्यों के 1/6वें हिस्से को नामांकित करता है (कला, साहित्य, विज्ञान, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा के क्षेत्र से)।
  • वह राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को अपनी सहमति देता है, रोक सकता है, या राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकता है (अनुच्छेद 200)।
  • अध्यादेश जारी करने की शक्ति (अनुच्छेद 213): जब राज्य विधानमंडल सत्र में न हो, तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है, जिसका वही बल और प्रभाव होता है जो राज्य विधानमंडल द्वारा पारित अधिनियम का होता है। यह अध्यादेश विधानमंडल के अगले सत्र के 6 सप्ताह के भीतर अनुमोदित होना चाहिए।

2.3. वित्तीय शक्तियाँ (Financial Powers)

  • राज्य का वार्षिक वित्तीय विवरण (राज्य बजट) राज्य विधानमंडल के समक्ष रखवाता है।
  • धन विधेयक उसकी पूर्व सिफारिश से ही राज्य विधानसभा में पेश किया जा सकता है।
  • वह राज्य की आकस्मिक निधि (Contingency Fund of the State) से अप्रत्याशित व्यय को पूरा करने के लिए अग्रिम निकाल सकता है।
  • वह प्रत्येक पांचवें वर्ष राज्य वित्त आयोग का गठन करता है।

2.4. न्यायिक शक्तियाँ (Judicial Powers)

  • वह राज्य के कानूनों के तहत किसी अपराध के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति की सजा को क्षमा, निलंबित, कम या परिवर्तित कर सकता है (अनुच्छेद 161)। (मृत्युदंड के मामलों में नहीं)।
  • वह उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति से परामर्श करता है।

2.5. विवेकाधीन शक्तियाँ (Discretionary Powers)

  • संवैधानिक विवेक:
    • राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना (अनुच्छेद 200)।
    • राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के संबंध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट भेजना (अनुच्छेद 356)।
    • मुख्यमंत्री की नियुक्ति, जब विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिले।
    • मंत्रिपरिषद द्वारा विधानसभा में विश्वास खोने पर विधानसभा को भंग करना।
    • कुछ केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासक के रूप में कार्य करते समय।
  • परिस्थितिजन्य विवेक: जब कोई स्पष्ट बहुमत नहीं होता या सरकार गिर जाती है।

3. राज्यपाल का दोहरा चरित्र (Dual Role of the Governor)

राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख होने के साथ-साथ केंद्र सरकार का प्रतिनिधि भी होता है।

  • राज्य का संवैधानिक प्रमुख: वह राज्य की कार्यकारी शक्ति का नाममात्र का प्रमुख होता है और राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है।
  • केंद्र का प्रतिनिधि: वह केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है और राज्य में संवैधानिक तंत्र के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करता है। वह राष्ट्रपति को राज्य में संवैधानिक विफलता की रिपोर्ट भेज सकता है (अनुच्छेद 356)।
  • इस दोहरी भूमिका के कारण कई बार केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव उत्पन्न होता है।

4. राज्यपाल के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges to the Governor)

राज्यपाल के पद को लेकर कई बार विवाद उत्पन्न हुए हैं।

  • राजनीतिक हस्तक्षेप: राज्यपाल की नियुक्ति और हटाने में राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप।
  • विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग: अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के तहत विवेकाधीन शक्तियों के दुरुपयोग के आरोप।
  • विधेयकों को रोकना: राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करने या उन्हें लंबे समय तक रोके रखने के आरोप।
  • केंद्र-राज्य संबंध: राज्यपाल की भूमिका केंद्र और राज्यों के बीच तनाव का एक स्रोत बन सकती है।
  • मुख्यमंत्री की नियुक्ति: त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति पर विवाद।

5. राज्यपाल से संबंधित महत्वपूर्ण समितियाँ और वाद (Important Committees and Cases Related to Governor)

राज्यपाल के पद और शक्तियों की समीक्षा के लिए कई समितियाँ और आयोग गठित किए गए हैं।

  • प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) – 1966: राज्यपाल के पद की भूमिका की समीक्षा की।
  • राजमन्नार समिति (1969): केंद्र-राज्य संबंधों पर। राज्यपाल को केवल संवैधानिक प्रमुख होना चाहिए।
  • भगवान सहाय समिति (1971): राज्यपाल की भूमिका पर।
  • सरकारिया आयोग (1983): केंद्र-राज्य संबंधों पर सबसे महत्वपूर्ण आयोग। इसने राज्यपाल की नियुक्ति, कार्यकाल और विवेकाधीन शक्तियों पर विस्तृत सिफारिशें कीं।
  • पुंछी आयोग (2007): केंद्र-राज्य संबंधों पर। इसने राज्यपाल के पद और शक्तियों पर भी सिफारिशें कीं।
  • एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ वाद (1994): सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाने की राज्यपाल की शक्ति पर महत्वपूर्ण दिशानिर्देश निर्धारित किए।

6. निष्कर्ष (Conclusion)

राज्यपाल भारतीय संघीय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण संवैधानिक पद है, जो राज्य कार्यपालिका का प्रमुख और केंद्र सरकार का प्रतिनिधि होता है। वह राज्य में संवैधानिक तंत्र के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करता है और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर अपनी सहमति देता है या उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित करता है। यद्यपि राज्यपाल के पास व्यापक कार्यकारी, विधायी, वित्तीय और न्यायिक शक्तियाँ होती हैं, उसकी विवेकाधीन शक्तियों और केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में उसकी दोहरी भूमिका के कारण कई बार विवाद उत्पन्न हुए हैं। सरकारिया आयोग और पुंछी आयोग जैसी समितियों ने राज्यपाल के पद की भूमिका और कार्यप्रणाली को स्पष्ट करने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं, ताकि यह पद संवैधानिक मूल्यों और सहकारी संघवाद के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर सके।

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