पंचायती राज (Panchayati Raj) भारत में ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की प्रणाली है। यह जमीनी स्तर पर लोकतंत्र के निर्माण और ग्रामीण विकास को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण तंत्र है। भारतीय संविधान के 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया, जिससे भारत में विकेंद्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया।
1. पंचायती राज का इतिहास (History of Panchayati Raj)
भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा प्राचीन काल से चली आ रही है।
1.1. प्राचीन और मध्यकालीन काल
- प्राचीन भारत में, ग्राम सभाएँ या पंचायतें गांवों में स्वशासन की इकाइयाँ थीं।
- चोल साम्राज्य में, स्थानीय स्वशासन की एक सुव्यवस्थित प्रणाली थी।
1.2. ब्रिटिश काल
- लॉर्ड रिपन (1882) को ‘भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक’ माना जाता है। उन्होंने स्थानीय निकायों को अधिक शक्तियाँ प्रदान कीं।
- हालांकि, ब्रिटिश काल के दौरान स्थानीय निकायों को सीमित शक्तियाँ और संसाधन दिए गए थे।
1.3. स्वतंत्रता के बाद
- महात्मा गांधी ग्राम स्वराज के प्रबल समर्थक थे और उनका मानना था कि गांवों को आत्मनिर्भर होना चाहिए।
- संविधान के अनुच्छेद 40 (राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत) में ग्राम पंचायतों के संगठन का प्रावधान किया गया।
2. पंचायती राज से संबंधित महत्वपूर्ण समितियाँ (Important Committees Related to Panchayati Raj)
पंचायती राज प्रणाली को मजबूत करने के लिए विभिन्न समितियों ने सिफारिशें कीं।
- बलवंत राय मेहता समिति (1957):
- इस समिति ने भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की सिफारिश की:
- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत।
- ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति।
- जिला स्तर पर जिला परिषद।
- इसने लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की अवधारणा पेश की।
- इस समिति ने भारत में त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की सिफारिश की:
- अशोक मेहता समिति (1977):
- इसने द्वि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की सिफारिश की: मंडल पंचायत और जिला परिषद।
- इसने पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने की भी सिफारिश की।
- जी.वी.के. राव समिति (1985):
- इसने योजना प्रक्रिया में पंचायतों की भूमिका पर जोर दिया।
- इसने ‘बिना जड़ों के घास’ (grass without roots) की स्थिति को समाप्त करने की सिफारिश की।
- एल.एम. सिंघवी समिति (1986):
- इसने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश की।
- इसने ग्राम न्यायालयों की स्थापना की भी सिफारिश की।
3. 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 (73rd Constitutional Amendment Act, 1992)
यह अधिनियम पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है और उन्हें सशक्त बनाता है।
- अधिनियम का पारित होना: 1992 में संसद द्वारा पारित किया गया और 24 अप्रैल, 1993 को लागू हुआ। (24 अप्रैल को ‘पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाया जाता है)।
- संवैधानिक दर्जा: इसने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया।
- संविधान में जोड़:
- संविधान में एक नया भाग IX (‘पंचायतें’) जोड़ा गया।
- एक नई ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें पंचायतों के 29 कार्यात्मक विषय शामिल हैं।
- त्रि-स्तरीय प्रणाली: सभी राज्यों में (20 लाख से अधिक आबादी वाले) त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली का प्रावधान:
- ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत।
- मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति (ब्लॉक/तालुका)।
- जिला स्तर पर जिला परिषद।
- चुनाव:
- पंचायतों के सभी स्तरों पर सदस्यों का प्रत्यक्ष चुनाव।
- पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया।
- यदि कोई पंचायत भंग होती है, तो 6 महीने के भीतर नए चुनाव कराना अनिवार्य है।
- आरक्षण:
- अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए उनकी आबादी के अनुपात में सीटों का आरक्षण।
- महिलाओं के लिए कम से कम एक-तिहाई (33%) सीटों का आरक्षण। (कुछ राज्यों में 50% तक)।
- राज्य चुनाव आयोग (State Election Commission – SEC): पंचायतों के चुनाव कराने के लिए प्रत्येक राज्य में SEC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243K)।
- राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission – SFC): पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करने और उन्हें वित्तीय सहायता के लिए सिफारिशें करने के लिए प्रत्येक 5 वर्ष में SFC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243I)।
- ग्राम सभा: ग्राम सभा को संवैधानिक दर्जा दिया गया, जो प्रत्यक्ष लोकतंत्र का आधार है।
4. पंचायती राज संस्थाओं के कार्य और शक्तियाँ (Functions and Powers of Panchayati Raj Institutions)
पंचायती राज संस्थाएँ ग्रामीण विकास और शासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- ग्यारहवीं अनुसूची में 29 विषय:
- कृषि, भूमि सुधार, लघु सिंचाई, पशुपालन, मत्स्य पालन।
- पेयजल, ग्रामीण आवास, सड़कें, पुल।
- शिक्षा (प्राथमिक और माध्यमिक), स्वास्थ्य और स्वच्छता।
- महिला और बाल विकास, सामाजिक कल्याण।
- गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम।
- विकास कार्य: ग्रामीण विकास योजनाओं का निर्माण और कार्यान्वयन।
- सामाजिक न्याय: कमजोर वर्गों के हितों की रक्षा करना।
- राजस्व संग्रह: कुछ करों, शुल्कों और उपकरों को लगाने और एकत्र करने की शक्ति।
- जन भागीदारी: ग्राम सभा के माध्यम से नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करना।
5. पंचायती राज के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges to Panchayati Raj)
संवैधानिक दर्जा मिलने के बावजूद, पंचायती राज संस्थाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- निधियों का अभाव: वित्तीय स्वायत्तता की कमी और राज्य सरकारों पर अत्यधिक निर्भरता।
- कार्यों का हस्तांतरण: राज्यों द्वारा पंचायतों को पर्याप्त शक्तियाँ और कार्य हस्तांतरित न करना।
- क्षमता का अभाव: निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों में प्रशिक्षण और कौशल की कमी।
- राजनीतिक हस्तक्षेप: राज्य सरकारों और स्थानीय राजनेताओं द्वारा अनुचित हस्तक्षेप।
- अधिकारशाही का प्रभुत्व: नौकरशाही का पंचायतों के कामकाज पर हावी होना।
- सामाजिक बाधाएँ: जातिवाद, सांप्रदायिकता और लैंगिक भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयाँ।
- ग्राम सभा की निष्क्रियता: कई स्थानों पर ग्राम सभाओं की बैठकें नियमित रूप से नहीं होती हैं या उनमें भागीदारी कम होती है।
6. पंचायती राज को मजबूत करने के उपाय (Measures to Strengthen Panchayati Raj)
पंचायती राज संस्थाओं को प्रभावी बनाने के लिए निरंतर सुधारों की आवश्यकता है।
- वित्तीय सशक्तिकरण: पंचायतों को अधिक वित्तीय संसाधन प्रदान करना और उनके राजस्व आधार को मजबूत करना।
- कार्यों का पूर्ण हस्तांतरण: राज्यों द्वारा ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध सभी 29 विषयों को पंचायतों को हस्तांतरित करना।
- क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण: निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम।
- पारदर्शिता और जवाबदेही: सामाजिक ऑडिट को मजबूत करना और सूचना के अधिकार का प्रभावी कार्यान्वयन।
- ग्राम सभाओं को सक्रिय करना: ग्राम सभाओं की नियमित बैठकें सुनिश्चित करना और उनमें जन भागीदारी को बढ़ावा देना।
- महिलाओं और कमजोर वर्गों की भागीदारी: आरक्षण प्रावधानों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना।
- ई-गवर्नेंस का उपयोग: पंचायती राज में प्रौद्योगिकी का उपयोग कर दक्षता और पारदर्शिता बढ़ाना।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
पंचायती राज भारत में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने और जमीनी स्तर पर शासन को विकेंद्रीकृत करने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रणाली है। बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों से लेकर 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 तक, भारत ने स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण प्रगति की है। यद्यपि पंचायती राज संस्थाओं को निधियों की कमी, कार्यों के हस्तांतरण का अभाव और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वे ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय और जन भागीदारी के लिए एक महत्वपूर्ण मंच बने हुए हैं। एक मजबूत और जीवंत पंचायती राज प्रणाली भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को साकार करने और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक है।