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स्थानीय शासन (73वां और 74वां संशोधन) (Local Governance – 73rd and 74th Amendments)

स्थानीय शासन (73वां और 74वां संशोधन) (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

स्थानीय शासन (Local Governance) भारत में शासन की तीसरी परत है, जो केंद्र और राज्य सरकारों के बाद आती है। यह जमीनी स्तर पर लोकतंत्र और विकास को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण तंत्र है। भारतीय संविधान के 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 ने स्थानीय स्वशासन संस्थाओं – पंचायती राज (ग्रामीण) और नगर पालिकाओं (शहरी) – को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया, जिससे भारत में विकेंद्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया।

1. स्थानीय शासन का इतिहास और आवश्यकता (History and Need for Local Governance)

भारत में स्थानीय स्वशासन की अवधारणा प्राचीन काल से चली आ रही है, लेकिन इसे संवैधानिक रूप से सशक्त करने की आवश्यकता स्वतंत्रता के बाद महसूस की गई।

1.1. प्राचीन और मध्यकालीन काल

  • प्राचीन भारत में, ग्राम सभाएँ या पंचायतें गांवों में स्वशासन की इकाइयाँ थीं। चोल साम्राज्य में, स्थानीय स्वशासन की एक सुव्यवस्थित प्रणाली थी।

1.2. ब्रिटिश काल

  • लॉर्ड रिपन (1882) को ‘भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक’ माना जाता है। उन्होंने स्थानीय निकायों को अधिक शक्तियाँ प्रदान कीं।
  • हालांकि, ब्रिटिश काल के दौरान स्थानीय निकायों को सीमित शक्तियाँ और संसाधन दिए गए थे।

1.3. स्वतंत्रता के बाद की आवश्यकता

  • महात्मा गांधी ग्राम स्वराज के प्रबल समर्थक थे और उनका मानना था कि गांवों को आत्मनिर्भर होना चाहिए।
  • संविधान के अनुच्छेद 40 (राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत) में ग्राम पंचायतों के संगठन का प्रावधान किया गया, लेकिन यह गैर-न्यायोचित था।
  • सामुदायिक विकास कार्यक्रम (1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा (1953) जैसे प्रयासों के बावजूद, स्थानीय निकायों को पर्याप्त शक्ति और समर्थन नहीं मिला।
  • बलवंत राय मेहता समिति (1957), अशोक मेहता समिति (1977), जी.वी.के. राव समिति (1985) और एल.एम. सिंघवी समिति (1986) जैसी विभिन्न समितियों ने स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा देने की सिफारिश की।

2. 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992: पंचायती राज (73rd CAA, 1992: Panchayati Raj)

यह अधिनियम ग्रामीण स्थानीय स्वशासन (पंचायती राज संस्थाओं) को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है।

  • अधिनियम का पारित होना: 1992 में संसद द्वारा पारित किया गया और 24 अप्रैल, 1993 को लागू हुआ। (24 अप्रैल को ‘पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाया जाता है)।
  • संवैधानिक दर्जा: इसने पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया।
  • संविधान में जोड़:
    • संविधान में एक नया भाग IX (‘पंचायतें’) जोड़ा गया, जिसमें अनुच्छेद 243 से 243O तक के प्रावधान हैं।
    • एक नई ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें पंचायतों के 29 कार्यात्मक विषय शामिल हैं।
  • त्रि-स्तरीय प्रणाली: सभी राज्यों में (20 लाख से अधिक आबादी वाले) त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली का प्रावधान:
    • ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत।
    • मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत समिति (ब्लॉक/तालुका)।
    • जिला स्तर पर जिला परिषद।
  • चुनाव:
    • पंचायतों के सभी स्तरों पर सदस्यों का प्रत्यक्ष चुनाव।
    • पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया। यदि कोई पंचायत भंग होती है, तो 6 महीने के भीतर नए चुनाव कराना अनिवार्य है।
  • आरक्षण:
    • अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए उनकी आबादी के अनुपात में सीटों का आरक्षण।
    • महिलाओं के लिए कम से कम एक-तिहाई (33%) सीटों का आरक्षण। (कुछ राज्यों ने अपने कानूनों में 50% तक आरक्षण भी प्रदान किया है)।
  • राज्य चुनाव आयोग (State Election Commission – SEC): पंचायतों के चुनाव कराने के लिए प्रत्येक राज्य में SEC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243K)।
  • राज्य वित्त आयोग (State Finance Commission – SFC): पंचायतों की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करने और उन्हें वित्तीय सहायता के लिए सिफारिशें करने के लिए प्रत्येक 5 वर्ष में SFC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243I)।
  • ग्राम सभा: ग्राम सभा को संवैधानिक दर्जा दिया गया (अनुच्छेद 243A), जो प्रत्यक्ष लोकतंत्र का आधार है।

3. 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992: नगरपालिकाएँ (74th CAA, 1992: Municipalities)

यह अधिनियम शहरी स्थानीय स्वशासन (नगर पालिकाओं) को संवैधानिक दर्जा प्रदान करता है।

  • अधिनियम का पारित होना: 1992 में संसद द्वारा पारित किया गया और 1 जून, 1993 को लागू हुआ।
  • संवैधानिक दर्जा: इसने शहरी स्थानीय निकायों (नगर पालिकाओं) को संवैधानिक दर्जा दिया।
  • संविधान में जोड़:
    • संविधान में एक नया भाग IXA (‘नगर पालिकाएँ’) जोड़ा गया, जिसमें अनुच्छेद 243P से 243ZG तक के प्रावधान हैं।
    • एक नई बारहवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें नगर पालिकाओं के 18 कार्यात्मक विषय शामिल हैं।
  • त्रि-स्तरीय प्रणाली: नगर पालिकाओं के तीन प्रकार का प्रावधान:
    • संक्रमणशील क्षेत्र के लिए नगर पंचायत (ग्रामीण से शहरी में संक्रमण)।
    • छोटे शहरी क्षेत्र के लिए नगर परिषद।
    • बड़े शहरी क्षेत्र के लिए नगर निगम।
  • चुनाव और आरक्षण: 73वें संशोधन के समान ही चुनाव और आरक्षण के प्रावधान (5 वर्ष का कार्यकाल, 6 महीने में चुनाव, SC/ST और महिलाओं के लिए 33% आरक्षण)।
  • जिला योजना समिति (District Planning Committee – DPC): प्रत्येक जिले में DPC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243ZD) जो पंचायतों और नगर पालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं को समेकित करता है।
  • महानगर योजना समिति (Metropolitan Planning Committee – MPC): प्रत्येक महानगरीय क्षेत्र में MPC के गठन का प्रावधान (अनुच्छेद 243ZE) जो महानगरीय क्षेत्र के लिए विकास योजना का मसौदा तैयार करता है।

4. स्थानीय शासन का महत्व (Significance of Local Governance)

स्थानीय शासन जमीनी स्तर पर लोकतंत्र और विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

  • लोकतंत्र को गहरा करना: यह जमीनी स्तर पर नागरिकों की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित करता है, जिससे लोकतंत्र अधिक समावेशी और सहभागी बनता है।
  • विकेंद्रीकरण: यह सत्ता का विकेंद्रीकरण करता है, जिससे निर्णय लेने की प्रक्रिया स्थानीय लोगों के करीब आती है।
  • विकास को बढ़ावा: स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं के अनुसार विकास योजनाओं का निर्माण और कार्यान्वयन।
  • जवाबदेही: स्थानीय निकाय जनता के प्रति अधिक जवाबदेह होते हैं।
  • कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण: महिलाओं, SC और ST के लिए आरक्षण ने इन वर्गों को राजनीतिक रूप से सशक्त किया है।
  • प्रशासनिक दक्षता: स्थानीय समस्याओं का स्थानीय स्तर पर अधिक कुशलता से समाधान किया जा सकता है।

5. स्थानीय शासन के समक्ष चुनौतियाँ (Challenges to Local Governance)

संवैधानिक दर्जा मिलने के बावजूद, स्थानीय शासन संस्थाओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

  • निधियों का अभाव: वित्तीय स्वायत्तता की कमी और राज्य सरकारों पर अत्यधिक निर्भरता। राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों का पूर्ण कार्यान्वयन नहीं।
  • कार्यों का हस्तांतरण: राज्यों द्वारा पंचायतों और नगर पालिकाओं को पर्याप्त शक्तियाँ, कार्य और कर्मचारी हस्तांतरित न करना (‘3F’s – Funds, Functions, Functionaries का अभाव)।
  • क्षमता का अभाव: निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों में प्रशिक्षण और कौशल की कमी।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप: राज्य सरकारों और स्थानीय राजनेताओं द्वारा अनुचित हस्तक्षेप।
  • अधिकारशाही का प्रभुत्व: नौकरशाही का स्थानीय निकायों के कामकाज पर हावी होना।
  • सामाजिक बाधाएँ: जातिवाद, सांप्रदायिकता और लैंगिक भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयाँ अभी भी मौजूद हैं।
  • ग्राम सभा / वार्ड समिति की निष्क्रियता: कई स्थानों पर ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों की बैठकें नियमित रूप से नहीं होती हैं या उनमें भागीदारी कम होती है।
  • निर्वाचन अनियमितताएँ: कुछ स्थानों पर स्थानीय चुनावों में अनियमितताएँ।

6. स्थानीय शासन को मजबूत करने के उपाय (Measures to Strengthen Local Governance)

स्थानीय शासन संस्थाओं को प्रभावी बनाने के लिए निरंतर सुधारों की आवश्यकता है।

  • वित्तीय सशक्तिकरण: पंचायतों और नगर पालिकाओं को अधिक वित्तीय संसाधन प्रदान करना, उनके राजस्व आधार को मजबूत करना, और राज्य वित्त आयोग की सिफारिशों को प्रभावी ढंग से लागू करना।
  • कार्यों का पूर्ण हस्तांतरण: राज्यों द्वारा ग्यारहवीं और बारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध सभी विषयों को स्थानीय निकायों को हस्तांतरित करना।
  • क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण: निर्वाचित प्रतिनिधियों और कर्मचारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही: सामाजिक ऑडिट को मजबूत करना और सूचना के अधिकार का प्रभावी कार्यान्वयन।
  • ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों को सक्रिय करना: उनकी नियमित बैठकें सुनिश्चित करना और उनमें जन भागीदारी को बढ़ावा देना।
  • महिलाओं और कमजोर वर्गों की भागीदारी: आरक्षण प्रावधानों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना और उनके नेतृत्व को बढ़ावा देना।
  • ई-गवर्नेंस का उपयोग: स्थानीय शासन में प्रौद्योगिकी का उपयोग कर दक्षता और पारदर्शिता बढ़ाना।
  • जिला योजना समितियों को मजबूत करना: जिला और महानगर योजना समितियों को प्रभावी बनाना।

7. निष्कर्ष (Conclusion)

स्थानीय शासन भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने और जमीनी स्तर पर शासन को विकेंद्रीकृत करने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रणाली है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 ने पंचायती राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान कर भारत में विकेंद्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया। यद्यपि इन संस्थाओं को निधियों की कमी, कार्यों के हस्तांतरण का अभाव और राजनीतिक हस्तक्षेप जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, वे ग्रामीण और शहरी विकास, सामाजिक न्याय और जन भागीदारी के लिए एक महत्वपूर्ण मंच बने हुए हैं। एक मजबूत और जीवंत स्थानीय शासन प्रणाली भारत के लोकतांत्रिक आदर्शों को साकार करने और समावेशी विकास सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

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