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जमींदारी उन्मूलन (Abolition of Zamindari)

उत्तराखंड में जमींदारी उन्मूलन (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

भारत की स्वतंत्रता के पश्चात, कृषि क्षेत्र में समानता लाने और काश्तकारों की स्थिति में सुधार के लिए भूमि सुधार एक महत्वपूर्ण कदम था। उत्तराखंड, जो उस समय उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, में भी जमींदारी उन्मूलन और अन्य भूमि सुधार कानूनों को लागू किया गया, जिसका राज्य की सामाजिक-आर्थिक संरचना और कृषि व्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा।

उत्तराखंड में जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • उत्तराखंड में जमींदारी उन्मूलन मुख्यतः उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 के माध्यम से हुआ, जो 1 जुलाई 1952 से प्रभावी हुआ।
  • इसका मुख्य उद्देश्य बिचौलियों (जमींदारों) को समाप्त करना और भूमि का वास्तविक जोतदार को मालिक बनाना था।
  • पर्वतीय क्षेत्रों की विशिष्ट भूमि व्यवस्थाओं (जैसे खायकर, सयानाचारी) को ध्यान में रखते हुए कुमाऊँ एवं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1960 भी लाया गया।
  • भूमि सुधारों का लक्ष्य सामाजिक न्याय स्थापित करना, कृषि उत्पादकता बढ़ाना और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना था।
  • टिहरी रियासत में भूमि व्यवस्था भिन्न थी, और भारत में विलय के बाद वहाँ भी भूमि सुधार लागू हुए।

1. स्वतंत्रता पूर्व भूमि व्यवस्था एवं जमींदारी प्रथा

  • ब्रिटिश काल में भूमि व्यवस्था:
    • ब्रिटिश शासन के दौरान उत्तराखंड के कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की भू-राजस्व प्रणालियाँ लागू की गईं।
    • स्थायी बंदोबस्त का प्रभाव सीमित था, लेकिन रैयतवाड़ी और महालवाड़ी जैसी प्रणालियों के तत्व मौजूद थे।
    • पर्वतीय क्षेत्रों में खायकर (राज्य को सीधे लगान देने वाला काश्तकार) और सयाना (गांव का मुखिया, जो लगान वसूलता था) जैसी पारंपरिक व्यवस्थाएँ भी थीं।
    • कुछ क्षेत्रों में हिससेदारी व्यवस्था भी थी, जहाँ भूमि पर सामूहिक स्वामित्व होता था।
    • तराई और भाबर क्षेत्रों में जमींदारी प्रथा अधिक स्पष्ट रूप में मौजूद थी, जहाँ बड़े जमींदार भूमि के मालिक होते थे और काश्तकारों से लगान वसूलते थे।
  • टिहरी रियासत में भूमि व्यवस्था:
    • टिहरी रियासत में राजा भूमि का सर्वोच्च स्वामी होता था और विभिन्न प्रकार के तिहुड़ (भू-राजस्व अधिकारी) और पधान लगान वसूली करते थे।
    • यहाँ भी काश्तकारों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और उन्हें कई प्रकार के कर और बेगार देने पड़ते थे।
  • जमींदारी प्रथा की समस्याएँ:
    • किसानों का शोषण: जमींदार काश्तकारों से अत्यधिक लगान वसूलते थे और उन्हें भूमि से बेदखल करने का डर बना रहता था।
    • कृषि में निवेश की कमी: काश्तकारों के पास भूमि का स्वामित्व न होने के कारण वे कृषि में दीर्घकालिक निवेश करने से हिचकते थे।
    • सामाजिक असमानता: भूमि का स्वामित्व कुछ ही लोगों के हाथों में केंद्रित होने से सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ बढ़ती थीं।

2. जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार कानून

क. उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950

  • यह अधिनियम 26 जनवरी 1951 को राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित हुआ और 1 जुलाई 1952 से उत्तर प्रदेश (जिसमें तत्कालीन उत्तराखंड शामिल था) में लागू हुआ।
  • मुख्य उद्देश्य:
    • जमींदारी प्रथा को समाप्त करना।
    • बिचौलियों की भूमिका समाप्त कर राज्य और काश्तकार के बीच सीधा संबंध स्थापित करना।
    • वास्तविक जोतदारों को भूमि का स्वामित्व प्रदान करना।
    • कृषि योग्य भूमि का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित करना।
  • प्रमुख प्रावधान:
    • जमींदारों के भूमि अधिकारों की समाप्ति और उन्हें मुआवजा देने का प्रावधान।
    • काश्तकारों को विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया और उन्हें भूमिधर, सीरदार और आसामी जैसे अधिकार दिए गए।
      • भूमिधर: इन्हें भूमि पर स्थायी, वंशानुगत और हस्तांतरणीय अधिकार प्राप्त हुए।
      • सीरदार: इन्हें भी स्थायी और वंशानुगत अधिकार मिले, लेकिन भूमि हस्तांतरण का अधिकार सीमित था। बाद में इन्हें भी भूमिधर अधिकार देने का प्रावधान किया गया।
      • आसामी: ये मुख्यतः सरकारी भूमि या ग्राम सभा की भूमि पर अस्थायी काश्तकार थे।
    • ग्राम पंचायतों को गाँव की सार्वजनिक भूमि (जैसे चारागाह, तालाब, जंगल) के प्रबंधन का अधिकार दिया गया।
    • भूमि की अधिकतम सीमा (सीलिंग) का भी प्रावधान किया गया, हालांकि इसका क्रियान्वयन जटिल रहा।

ख. कुमाऊँ एवं उत्तराखंड जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1960

  • पर्वतीय क्षेत्रों की विशिष्ट भूमि व्यवस्थाओं और भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह अधिनियम लाया गया।
  • इसने खायकर और सयानाचारी जैसी पारंपरिक व्यवस्थाओं को समाप्त करने और भूमि अधिकारों को स्पष्ट करने में भूमिका निभाई।
  • इसका उद्देश्य भी पर्वतीय क्षेत्रों में काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व दिलाना और बिचौलियों को खत्म करना था।

ग. टिहरी रियासत में भूमि सुधार

  • टिहरी रियासत का भारत में विलय 1 अगस्त 1949 को हुआ।
  • इसके पश्चात, उत्तर प्रदेश के भूमि सुधार कानून धीरे-धीरे टिहरी क्षेत्र में भी लागू किए गए।
  • टिहरी गढ़वाल कृषि भूमि संबंधी आज्ञापत्र (Tehri Garhwal Agricultural Land Related Ordinance) और बाद के अधिनियमों ने यहाँ की भूमि व्यवस्था को नियमित किया।

3. जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधारों का प्रभाव

  • सामाजिक प्रभाव:
    • सामाजिक समानता में वृद्धि: भूमिहीन और सीमांत किसानों को भूमि का अधिकार मिलने से उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ और सामंती ढाँचे का अंत हुआ।
    • जातिगत भेदभाव में कमी: भूमि सुधारों ने परंपरागत रूप से भूमिहीन समझे जाने वाले समुदायों को भी भूमि का मालिक बनाया, जिससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ी।
    • ग्रामीण शक्ति संरचना में परिवर्तन: जमींदारों का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव कम हुआ और ग्रामीण समाज में नए नेतृत्व का उदय हुआ।
  • आर्थिक प्रभाव:
    • कृषि उत्पादकता में वृद्धि: काश्तकारों को भूमि का स्वामित्व मिलने से उनमें कृषि में निवेश करने और उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा जगी।
    • किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार: लगान के बोझ से मुक्ति और उपज पर अधिक अधिकार मिलने से किसानों की आय में वृद्धि हुई।
    • हालांकि, छोटी और बिखरी जोतों की समस्या बनी रही, जिससे कृषि का पूर्ण व्यावसायीकरण बाधित हुआ।
  • प्रशासनिक प्रभाव:
    • भूमि अभिलेखों का मानकीकरण और सुधार।
    • भू-राजस्व व्यवस्था का सरलीकरण।
    • हालांकि, भूमि सुधारों के क्रियान्वयन में प्रशासनिक जटिलताएँ और कानूनी अड़चनें भी आईं।

4. भूमि सुधारों से संबंधित वर्तमान चुनौतियाँ एवं प्रयास

  • छोटी और विखंडित जोतें: यह पर्वतीय कृषि की प्रमुख समस्या है, जो मशीनीकरण और व्यावसायिक खेती में बाधा डालती है। चकबंदी (Consolidation of Holdings) पर्वतीय क्षेत्रों की जटिलताओं के कारण प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाई है।
  • भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण: कई क्षेत्रों में भूमि अभिलेख अभी भी पुराने और अपूर्ण हैं, जिससे भूमि विवाद होते हैं। डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम (DILRMP) के तहत सुधार के प्रयास।
  • कृषि भूमि का गैर-कृषि कार्यों में उपयोग: शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण उपजाऊ कृषि भूमि का अन्य कार्यों में उपयोग बढ़ रहा है।
  • पलायन और बंजर होती भूमि: पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन के कारण कई खेत बंजर हो रहे हैं।
  • वन अधिकार अधिनियम, 2006 का क्रियान्वयन: वनों पर आश्रित समुदायों के अधिकारों को मान्यता देने में चुनौतियाँ।
  • सरकारी प्रयास:
    • भूमि बंदोबस्त (Land Settlement) कार्यों को समय-समय पर किया जाता है।
    • उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (अनुकूलन एवं उपांतरण आदेश), 2001 द्वारा मूल अधिनियम को राज्य के लिए अनुकूलित किया गया।
    • राज्य सरकार द्वारा भूमिहीन और सीमांत किसानों को भूमि आवंटित करने की योजनाएँ।
    • कृषि भूमि के संरक्षण के लिए नीतियाँ।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड में जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधारों ने राज्य के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए। इन सुधारों से जहाँ एक ओर किसानों को शोषण से मुक्ति मिली और उनकी स्थिति में सुधार हुआ, वहीं दूसरी ओर कृषि उत्पादकता और ग्रामीण विकास को भी बल मिला। हालांकि, छोटी जोतों, भूमि प्रबंधन और अभिलेखों के आधुनिकीकरण जैसी चुनौतियाँ अभी भी विद्यमान हैं, जिनके समाधान के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है ताकि भूमि सुधारों के वास्तविक लाभ सभी तक पहुँच सकें और राज्य का सतत एवं समावेशी विकास सुनिश्चित हो सके।

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