उत्तराखंड का प्राचीन काल प्रागैतिहासिक काल के बाद का वह समय है जिसके बारे में हमें पुरातात्विक साक्ष्यों के साथ-साथ पौराणिक ग्रंथों, साहित्यिक स्रोतों और अभिलेखों से भी जानकारी मिलती है। यह काल राज्य के प्रारंभिक राजवंशों और सांस्कृतिक विकास का साक्षी रहा है।
1. पुरातात्विक साक्ष्य (Archaeological Evidences)
उत्तराखंड में प्राचीन काल के कई महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थल और अवशेष मिले हैं।
1.1. महाश्म संस्कृति (Megalithic Culture)
- स्थान: द्वाराहाट (चंपावत) के चंद्रेश्वर मंदिर के दक्षिण से संबंधित आकृतियाँ प्राप्त हुईं।
- खोज: 1877 ई. में रिबेट कार्नक द्वारा लगभग 200 कपमार्क्स (ओखली) बारह समांतर पंक्तियों में खुदे मिले।
- संबंध: कपमार्क्स का संबंध महाश्म संस्कृति से है।
- अन्य खोजें:
- डॉ. एम.पी. जोशी ने कुमाऊँ से प्राप्त महाश्म कालीन कपमार्क्स को 7 भागों में विभाजित किया।
- पश्चिमी रामगंगा घाटी के नौलाग्राम से डॉ. यशोधर मठपाल ने 73 कपमार्क्स खोजे।
- गोपेश्वर के समीप मंडल तथा पश्चिमी नयार घाटी में ग्वाड आदि स्थानों पर कपमार्क्स की खोज डॉ. यशवंत कठौच ने की।
- सिस्ट: महाश्म संस्कृति में पत्थर से बनी संरचना थी जो मकबरों के रूप में प्रयुक्त होती थी।
1.2. ताम्र उपकरण (Copper Implements)
- हरिद्वार के बहादराबाद में ताम्र उपकरण व मृदभांड की खोज 1951 ई. में हुई।
- 1953 ई. को यज्ञदत्त शर्मा ने हरिद्वार के बहादराबाद से पाषाण उपकरणों एवं मृदभांडों की खोज की थी।
- 1986 में अल्मोड़ा जनपद से भी एक ताम्र उपकरण की खोज हुई।
- 1989 में पिथौरागढ़ के बनकोट से 8 ताम्र उपकरण प्राप्त हुए, जिन्हें अल्मोड़ा के राजकीय संग्रहालय में रखा गया है।
- नैनीताल में 1999 ई. को पाँच ताम्र मानव आकृतियों की खोज हुई।
- ताम्र आपूर्ति: पुराविदों का मानना है कि ताम्र-संस्कृति निर्माताओं को ताम्र-आपूर्ति गढ़वाल-कुमाऊँ में स्थित पोखरी, धनपुर-डोबरी, अस्कोट आदि खानों से हुई।
1.3. चित्रित धूसर मृदभांड (Painted Grey Ware – PGW)
- ऊपरी गंगा घाटी में ताम्र संस्कृति के पश्चात चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति का समय था।
- उत्तराखंड के अलकनंदा घाटी के थापली (श्रीनगर) और यमुना घाटी के पुरोला से चित्रित धूसर मृदभांड के साक्ष्य प्राप्त हुए।
- इतिहासकार बी. बी. लाल ने चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति को महाभारतकालीन बताया।
- उत्तर भारत की तरह उत्तराखंड क्षेत्र में भी चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति को लौह युग के प्रचलन का श्रेय जाता है।
1.4. अन्य पुरातात्विक खोजें
- हटवाल घोड़ा शैलचित्र: अल्मोड़ा जिले से प्राप्त हुए।
- ठडुंगा शैल चित्र: उत्तरकाशी जिले से प्राप्त हुए।
- कसार देवी शैलाश्रय (अल्मोड़ा): यहाँ से 14 नृतकों का सुंदर चित्रण मिलता है।
- मोरध्वज: यहाँ 1887 ई. में एम. मरखम द्वारा उत्खनन कार्य किया गया।
- हरिपुर: देहरादून जिले में स्थित पुरास्थल।
- देवल गाँव (उत्तरकाशी): यमुना घाटी में स्थित, यहाँ से भैंसामुखी चतुर्भुज मानव प्रतिमा मिली, जिसे इतिहासकारों ने सैंधव कालीन बताया।
2. साहित्यिक स्रोत (Literary Sources)
उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास की जानकारी विभिन्न धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों से मिलती है।
2.1. वैदिक ग्रंथ
- ऋग्वेद: उत्तराखंड का प्रथम उल्लेख मिलता है, जिसमें इस क्षेत्र को देवभूमि एवं मनीषियों की पूर्ण भूमि कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार, इस क्षेत्र में असुर राजा शम्बर के 100 गढ़ों को इंद्र व सुदास ने नष्ट किया था।
- ऐतरेय ब्राह्मण: उत्तराखंड के लिए उत्तर-कुरु शब्द का प्रयोग हुआ है।
- कौषीतकि ब्राह्मण: वाक्देवी का निवास स्थान बद्रीकाश्रम बताया गया है।
2.2. पुराण
- स्कंद पुराण: 5 हिमालयी खंडों (नेपाल, केदारखंड, मानसखंड, कश्मीर, जालंधर) का वर्णन मिलता है।
- केदारखंड: माया क्षेत्र (हरिद्वार) से हिमालय तक का विस्तृत क्षेत्र (गढ़वाल क्षेत्र)।
- मानसखंड: नंदादेवी पर्वत से कालगिरी तक का क्षेत्र (कुमाऊँ क्षेत्र)।
- केदारखंड व मानसखंड की सीमाओं का विभाजन बधाण क्षेत्र या नंदादेवी पर्वत करता है।
- पुराणों में केदारखंड व मानसखंड के संयुक्त क्षेत्र को ब्रह्मपुर, खसदेश, इलावर्त व उत्तर-खंड कहा गया।
- ब्रह्म व वायुपुराण: कुमाऊँ क्षेत्र में किरात, गंधर्व, किन्नर, यक्ष, नाग एवं विद्याधर जातियाँ निवास करती थी।
2.3. महाकाव्य
- महाभारत:
- वन पर्व: गढ़वाल क्षेत्र में पुलिंद (कुणिंद) व किरात जातियों का आधिपत्य था। केदारनाथ को भृंगतुंग कहा गया।
- सभापर्व: खस लोग महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे।
- राजा सुबाहु: पुलिंद राजा सुबाहु की राजधानी श्रीनगर थी, जो महाभारत के युद्ध में पांडवों की तरफ से लड़ा था।
- देवप्रयाग: महाभारत में इसे समस्त तीर्थों का शिरोमणि व समग्र पापों का विनाशक कहा गया है।
- रामायण:
- रामायण कालीन लक्ष्मण के पुत्र अंगद एवं चंद्रकेतु का राज्य हिमालय क्षेत्र में स्थित था।
- रामायण काल में कुमाऊँ क्षेत्र को उत्तर कौशल भी कहा जाता था।
- रामायणकालीन बाणासुर का राज्य गढ़वाल क्षेत्र में था, इसकी राजधानी ज्योतिषपुर या जोशीमठ थी।
2.4. बौद्ध साहित्य
- पाली भाषा में उत्तराखंड के लिए हिमवंत शब्द का प्रयोग किया गया।
- महात्मा बुद्ध का उश्रिध्वज जाने का उल्लेख मिलता है जिसकी पहचान कनखल (हरिद्वार) से की जाती है।
2.5. अन्य साहित्यिक रचनाएँ
- बाणभट्ट की कादम्बरी: हिमालय क्षेत्र में किरातों के निवास की पुष्टि करती है।
- कालिदास के रघुवंश महाकाव्य: किरातों का वर्णन मिलता है, गढ़वाल हिमालय के लिए गौरी-गुरु शब्द का प्रयोग हुआ है।
- राजशेखर की काव्य मीमांसा: उस समय मध्य हिमालय के कार्तिकेयपुर नगर में खसाधिपति का राज्य था।
3. उत्तराखंड की पुरा प्रजातियाँ (Ancient Tribes of Uttarakhand)
उत्तराखंड में विभिन्न प्राचीन जनजातियों का निवास रहा है, जिनके प्रमाण साहित्यिक और पुरातात्विक स्रोतों से मिलते हैं।
3.1. कोल प्रजाति (Kol Tribe)
- उत्तराखंड में आने वाली प्रथम प्रजाति कोल को माना जाता है।
- पुरा साहित्यिक ग्रंथों में कोल प्रजाति का वर्णन मुंड या शबर नाम से मिलता है।
- शिवप्रसाद डबराल कोल या मुंड जाति को भारत या हिमालय क्षेत्र की प्राचीनतम जाति मानते हैं।
- विशेषताएँ: नाग पूजा के साथ-साथ लिंग पूजा भी करती थी। कुमार-कुमारी प्रथा कोल प्रजाति में मिलती है।
3.2. किरात प्रजाति (Kirat Tribe)
- कोल के बाद उत्तराखंड में किरातों के आधिपत्य की जानकारी मिलती है। इन्हें किन्नर या कीर भी कहा जाता है।
- स्कंदपुराण में किरातों को भिल्ल कहा गया।
- मुख्य खाद्य: सत्तू।
- जार्ज ग्रियर्सन किरातों को हिमालय क्षेत्र की प्राचीनतम जाति मानते हैं।
- विशेषताएँ: भ्रमणकारी पशुपालक व आखेटक जाति थी।
- महाभारत के वन पर्व के अनुसार किरातों ने अपने नेता शिव के झंडे के नीचे अर्जुन से युद्ध किया (विल्लव केदार नामक स्थान पर, जिसे शिवप्रयाग भी कहा जाता था)।
3.3. खस प्रजाति (Khas Tribe)
- किरातों के बाद उत्तराखंड में खस प्रजाति का उल्लेख मिलता है।
- 1885 ई. में इन्हें शूद्र वर्ग में सम्मिलित किया गया।
- महाभारत के सभा पर्व के अनुसार खस लोग महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे।
- विशेषताएँ: घर जंवाई प्रथा एवं पशुबलि प्रथा प्रचलित थी। विधवा स्त्री द्वारा किसी पुरुष को घर में रखने की प्रथा को टिकुआ प्रथा कहा जाता था। यदि कोई स्त्री किसी दूसरे व्यक्ति से शादी करती है तो उसके पहले पति से उत्पन्न पुत्र को झटेला कहा जाता था। ज्येष्ठ पुत्री को मंदिरों में दान करने की देवदासी प्रथा थी।
- गढ़वाल व कुमाऊँ में बौद्ध धर्म का सर्वाधिक प्रचार प्रसार खसों के समय हुआ।
3.4. भोटांतिक या शौका प्रजाति (Bhotantik or Shauka Tribe)
- काली नदी घाटियों में रहने वाली भोटिया प्रजाति को शौका कहते हैं, जो एक व्यापारिक प्रजाति थी।
- 1962 ई. तक भोटिया लोग तिब्बत से व्यापार करते थे।
- प्रमुख उपजातियाँ: गर्व्याल, गुंजयाल, मर्तोलिया, टोलिया, पांगती, कुटियाल, दताल आदि।
- देवता: घूरमा देवता (वर्षा देवता), घबला देवता (संपत्ति/व्यापार देवता)।
- समूह को स्थानीय भाषा में कुंच कहा जाता है।
4. प्राचीन राजवंश और गणराज्य (Ancient Dynasties and Republics)
उत्तराखंड में विभिन्न प्राचीन राजवंशों और गणराज्यों का शासन रहा है।
4.1. कुणिंद वंश (Kuninda Dynasty)
- उत्तराखंड में शासन करने वाली प्रथम राजनीतिक शक्ति कुणिंद थे।
- शासन की जानकारी का स्रोत: कुणिंद मुद्राएं।
- कालसी लेख के अनुसार प्रारंभ में कुणिंद लोग मौर्यों के अधीन थे।
- यशवंत कठौच के अनुसार कुणिंदों ने उत्तराखंड में लगभग 200 ई.पू. से 300 ई. तक शासन किया।
- सबसे शक्तिशाली शासक: अमोघभूति। इसकी रजत व ताम्र मुद्राएं पश्चिम में व्यास से लेकर अलकनंदा तक तथा दक्षिण में सुनेत से बेहत तक प्राप्त हुईं। मुद्राओं में प्राकृत भाषा में “राज्ञः कुणिन्दस अमोघभूतिस महरजस” अंकित था।
- महाभारत में कुणिंदों को द्विज कहा गया है।
- राजधानियाँ: पहली राजधानी कलकूट, दूसरी राजधानी शत्रुघ्न।
- धर्म: शैवधर्मावलम्बी थे।
- मुद्राएं: अमोघभूति प्रकार की, अल्मोड़ा प्रकार की व छत्रेश्वर प्रकार की।
- एम.पी. जोशी ने “मोरफोलॉजी ऑफ कुणिन्दा कोइन्स” नामक पुस्तक की रचना की है।
4.2. कुषाण शासन (Kushan Rule)
- कुषाणकालीन मुद्राएं वीरभद्र (ऋषिकेश), मोरध्वज (कोटद्वार), गोविषाण (काशीपुर) से प्राप्त हुईं।
- 1960 ई. में के.पी. नौटियाल ने गोविषाण सिक्कों की खोज की।
- शक्तिशाली शासक: कनिष्क, जिसने तराई क्षेत्रों पर अधिकार किया।
- 78 ई. में कनिष्क ने शक् संवत् चलाया।
- 1972 ई. में मुनि की रेती से हुविष्क की 44 स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुईं।
- गोविषाण टीले से वासुदेव द्वितीय की 3 स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुईं, जिनमें शिव व नंदी का चित्र बना था।
4.3. यौधेय वंश (Yaudheya Dynasty)
- कुषाणों को कुचलने में मुख्य भूमिका यौधेय शासकों की रही।
- इनकी मुद्राएं जौनसार-भावर (देहरादून) तथा कालो डांडा (लैंसडाउन) से प्राप्त हुईं।
- इनकी मुद्राओं में उनके अधिष्ठाता देव शूलधारी कार्तिकेय का चित्र मिलता है।
- समुद्रगुप्त के प्रयाग प्रशस्ति लेख से पता चलता है कि गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने यौधेय गण-राज्य को विजित कर अपने अधिकार में ले लिया था।
4.4. गोत्रीय वंश (Gotriya Dynasty)
- कालसी प्रदेश के आस-पास राज्य था।
- प्रतापी शासक: शीलवर्मन।
- शीलवर्मन ने देहरादून के जगतग्राम में बाड़वाला यज्ञवेदिका का निर्माण कराया था और यमुना तट पर चार अश्वमेध यज्ञ किए।
4.5. सिंहपुर का यदु वंश (Yadu Dynasty of Singhpur)
- शासन काल: 6वीं-7वीं शती के आसपास।
- जानकारी: लाखामंडल से प्राप्त राजकुमारी ईश्वरा के लेख से।
- संस्थापक: श्री सेनवर्मन। राजधानी: यमुना प्रदेश सिंहपुर।
4.6. नाग वंश (Naga Dynasty)
- शासन काल: 6वीं-7वीं शती में अस्तित्व का पता चलता है।
- जानकारी: गोपेश्वर के त्रिशूल लेख से।
- त्रिशूल लेख में 4 नाग राजाओं के नाम मिलते हैं: स्कंदनाग, गणपति नाग, विभुनाग व अंशुनाग।
- गणपति नाग उत्तरी नागवंश का शक्तिशाली शासक था।
4.7. मौखरी वंश (Maukari Dynasty)
- उत्तराखंड में नाग शासकों को कन्नौज के मौखरी वंश ने परास्त किया।
- अंतिम शासक: गृहवर्मा। संस्थापक: हरि वर्मा।
- गृहवर्मा की हत्या के बाद मौखरी राज्य उसके बहनोई हर्षवर्द्धन के अधीन हो गया।
4.8. ब्रह्मपुर राज्य का पौरव वंश (Paurava Dynasty of Brahmapur Kingdom)
- हिमालय क्षेत्र के तीन राज्यों में से ब्रह्मपुर सर्वाधिक विस्तृत राज्य था जिस पर पौरव वंश का शासन था।
- विस्तार: गंगा नदी से लेकर पूर्व में करनाली नदी तक।
- शासन काल: 6वीं सदी से 8वीं सदी तक।
- जानकारी: अल्मोड़ा के तालेश्वर ताम्रपत्र से।
- संस्थापक: राजा विष्णुवर्मन प्रथम।
- कुल देवता: वीरणेश्वर स्वामी।
- उपाधि: महाराजाधिराज परम भट्टारक।
5. प्रमुख अभिलेख (Major Inscriptions)
उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों से प्राप्त अभिलेख प्राचीन काल की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
5.1. कालसी शिलालेख (Kalsi Inscription)
- खोज: मि. फॉरेट ने 1860 ई. में की।
- निर्माण: मौर्य शासक अशोक ने 257 ई.पू. में किया।
- स्थान: देहरादून जिले में यमुना एवं टोंस नदी के संगम पर स्थित।
- स्थानीय भाषा में: चित्रशिला। इसमें हाथी का चित्र मिलता है।
- भाषा और लिपि: प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी लिपि में रचित।
- जानकारी: अशोक ने घोषणा की है कि उसने राज्य के हर स्थान पर मनुष्यों एवं पशुओं की चिकित्सा व्यवस्था की है और लोगों से हिंसा त्यागने और अहिंसा अपनाने की बात कही है।
- निवासियों के लिए: पुलिंद। इस क्षेत्र के लिए: अपरांत शब्द का प्रयोग हुआ है।
- प्राचीन नाम: सुधनगर व कलकूट (कुणिंदों की राजधानी भी रही)।
- यह अभिलेख दर्शाता है कि उत्तराखंड का क्षेत्र उस समय मौर्यों के अधीन रहा होगा।
5.2. लाखामंडल शिलालेख (Lakhamandal Inscription)
- स्थान: जौनसार-भाबर स्थित।
- खोज: राजकुमारी ईश्वरा का लेख मिला।
- जानकारी: यमुना उपत्यका में यदुवों का शासन था। यह छागलेश वंश से संबंधित था।
5.3. गोपेश्वर त्रिशूल लेख (Gopeshwar Trishul Inscription)
- स्थान: गोपेश्वर के रुद्रशिव मंदिर में।
- जानकारी: 6वीं सदी के गणपतिनाग व 12वीं सदी के अशोक चल्ल के त्रिशूल लेख मिले।
- लिपि: 6वीं-7वीं शती ईसवी की दक्षिणी ब्राह्मी लिपि।
5.4. बाड़ाहाट त्रिशूल लेख (Barahat Trishul Inscription)
- स्थान: उत्तरकाशी।
- लिपि: शंख लिपि का प्रयोग हुआ है।
5.5. तालेश्वर ताम्रपत्र (Taleshwar Copper Plate)
- स्थान: अल्मोड़ा।
- खोज: 1915 ई. में हुई।
- संबंध: पौरव एवं ब्रह्मपुर राज्य से था।
- जानकारी: धुतिवर्मन व विष्णुवर्मन द्वितीय शासक का उल्लेख मिलता है।
- भाषा और लिपि: संस्कृत भाषा एवं गुप्त ब्राह्मी लिपि में अंकित।
5.6. अन्य लेख
- देवप्रयाग व कल्पनाथ: गुफाओं के अंदर दीवारों पर लेख मिले।
- नैनीताल व बड़ावाला: ईंट पर उत्कीर्ण लेख मिले।
- देवलगढ़ तथा कोलसारी: मूर्तिपीठिका लेख मिले।
- पांडुकेश्वर, कंडारा, बैजनाथ, बालेश्वर मंदिर (चंपावत): कार्तिकेयपुर राजाओं के ताम्रपत्र एवं शिलालेख प्राप्त हुए।
6. प्राचीन विद्यापीठ (Ancient Educational Centers)
प्राचीन काल में उत्तराखंड में दो प्रमुख विद्यापीठ थे।
- बद्रीकाश्रम (Badrinath Ashram):
- गढ़वाल क्षेत्र के बद्रीनाथ के पास गणेश, नारद, मुचकंद, व्यास व स्कंद गुफा में वैदिक ग्रंथों की रचना हुई थी।
- कण्वाश्रम (Kanvashram):
- स्थान: पौड़ी जनपद (कोटद्वार) में मालिनी नदी के तट पर स्थित।
- प्रसिद्धि: दुष्यंत व शकुंतला के प्रेम प्रसंग के कारण प्रसिद्ध।
- जन्म स्थान: चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत का जन्म यहीं हुआ था।
- साहित्यिक संबंध: महाकवि कालिदास ने यहीं अभिज्ञानशाकुंतलम् ग्रंथ की रचना की।
- वर्तमान नाम: चौकीघाटा।
7. निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड का प्राचीन काल पुरातात्विक खोजों, पौराणिक ग्रंथों और विभिन्न अभिलेखों के माध्यम से एक समृद्ध इतिहास को उजागर करता है। कोल, किरात, खस जैसी प्राचीन जनजातियों के निवास से लेकर कुणिंद, कुषाण और पौरव जैसे शक्तिशाली राजवंशों के शासन तक, यह क्षेत्र भारतीय सभ्यता के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। कालसी शिलालेख जैसे ऐतिहासिक प्रमाण, बद्रीकाश्रम और कण्वाश्रम जैसे विद्यापीठ, और विभिन्न ताम्र उपकरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि उत्तराखंड न केवल आध्यात्मिक महत्व का केंद्र रहा है, बल्कि एक गतिशील सांस्कृतिक और राजनीतिक इकाई भी रहा है।
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