चिपको आंदोलन भारत में एक प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलन था जिसका उद्देश्य वनों की अंधाधुंध कटाई को रोकना और स्थानीय समुदायों के पारंपरिक वन अधिकारों की रक्षा करना था। यह आंदोलन अहिंसक प्रतिरोध और वृक्षों को गले लगाने की अनूठी रणनीति के लिए जाना जाता है।
1. पृष्ठभूमि और उद्देश्य (Background and Objectives)
चिपको आंदोलन की जड़ें हिमालयी क्षेत्रों में वनों के व्यावसायिक दोहन और उसके पर्यावरणीय एवं सामाजिक प्रभावों में निहित थीं।
1.1. आंदोलन का काल और स्थान
- काल: 1970 के दशक की शुरुआत में।
- स्थान: उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के चमोली जिले में।
1.2. आंदोलन के कारण
- व्यावसायिक कटाई: वन विभाग और ठेकेदारों द्वारा व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी और आजीविका को खतरा था।
- वन अधिकारों का हनन: स्थानीय समुदायों के पारंपरिक वन अधिकारों को सीमित करना, जिससे उन्हें ईंधन, चारा और अन्य वन उत्पादों के लिए संघर्ष करना पड़ा।
- पर्यावरणीय असंतुलन: वनों की कटाई से भूस्खलन, बाढ़ और जल स्रोतों के सूखने जैसी पर्यावरणीय समस्याएँ बढ़ रही थीं।
- स्थानीय बनाम बाहरी: स्थानीय लोगों का मानना था कि वन उनके जीवन का आधार हैं, जबकि ठेकेदार केवल व्यावसायिक लाभ देख रहे थे।
1.3. उद्देश्य
- पेड़ों की व्यावसायिक कटाई को रोकना।
- स्थानीय समुदायों के वन अधिकारों की बहाली।
- पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखना और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना।
- वन आधारित उद्योगों में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
2. प्रमुख घटनाएँ और नेता (Key Events and Leaders)
चिपको आंदोलन को कई महत्वपूर्ण घटनाओं और समर्पित नेताओं ने आकार दिया।
2.1. आंदोलन की रणनीति
- मुख्य रणनीति: आंदोलन की शुरुआत तब हुई जब स्थानीय ग्रामीण, खासकर महिलाएँ, पेड़ों को काटने से बचाने के लिए उनसे चिपक गईं (चिपको)। यह अहिंसक प्रतिरोध का एक अनूठा तरीका था।
2.2. प्रमुख घटनाएँ
- रेणी गाँव की घटना: 1974 ई. में चमोली के रेणी गाँव में, जब ठेकेदार पेड़ों को काटने आए, तो गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं के एक समूह ने पेड़ों को गले लगाकर उन्हें काटने से रोका। यह घटना चिपको आंदोलन का एक महत्वपूर्ण मोड़ बनी।
- अन्य क्षेत्रों में विस्तार: यह आंदोलन जल्द ही उत्तराखंड के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों जैसे अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, गढ़वाल आदि में फैल गया।
2.3. प्रमुख नेता
- सुंदरलाल बहुगुणा: चिपको आंदोलन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने “हिमालय बचाओ, देश बचाओ” का नारा दिया और वनों के संरक्षण के लिए लंबी पदयात्राएँ कीं।
- गौरा देवी: रेणी गाँव की घटना में महिलाओं के समूह का नेतृत्व किया। उन्हें “चिपको वूमन” के नाम से भी जाना जाता है।
- चंडी प्रसाद भट्ट: चिपको आंदोलन के जनक माने जाते हैं। उन्होंने दशावली ग्राम स्वराज्य मंडल (DGSM) की स्थापना की, जिसने स्थानीय लोगों को वन संरक्षण के लिए संगठित किया। उन्हें 1982 ई. में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- गोविंद सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, बचनी देवी, इंद्रमणि बडोनी आदि अन्य प्रमुख कार्यकर्ता थे जिन्होंने आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2.4. प्रसिद्ध नारा
- आंदोलन का मुख्य नारा:
“क्या हैं जंगल के उपकार?
मिट्टी, पानी और बयार।
मिट्टी, पानी और बयार,
जिन्दा रहने के आधार।”
3. प्रभाव और परिणाम (Impact and Outcomes)
चिपको आंदोलन के दूरगामी परिणाम हुए, जिन्होंने पर्यावरण नीतियों और जनभागीदारी को प्रभावित किया।
- वृक्ष कटाई पर प्रतिबंध: इस आंदोलन के परिणामस्वरूप, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1980 ई. में हिमालयी क्षेत्रों में 15 वर्षों के लिए पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया।
- वन संरक्षण नीतियों में बदलाव: सरकार को अपनी वन नीतियों की समीक्षा करने और उन्हें अधिक समुदाय-केंद्रित बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा।
- अंतर्राष्ट्रीय पहचान: चिपको आंदोलन ने विश्व भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए एक प्रेरणा स्रोत के रूप में पहचान बनाई और इसे पर्यावरण के लिए अहिंसक प्रतिरोध का एक सफल मॉडल माना गया।
- जनभागीदारी को बढ़ावा: इसने स्थानीय समुदायों, विशेषकर महिलाओं को, अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए सशक्त किया।
4. निष्कर्ष (Conclusion)
चिपको आंदोलन उत्तराखंड के इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो पर्यावरण संरक्षण के प्रति स्थानीय लोगों की गहरी प्रतिबद्धता और अहिंसक प्रतिरोध की शक्ति को दर्शाता है। इस आंदोलन ने न केवल हिमालयी वनों को बचाया, बल्कि इसने भारत और विश्व भर में पर्यावरण जागरूकता और जनभागीदारी को बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चिपको आज भी पर्यावरण आंदोलनों के लिए एक प्रेरणा स्रोत बना हुआ है।