उत्तराखंड के इतिहास में चिपको आंदोलन एक विश्व प्रसिद्ध पर्यावरण संरक्षण आंदोलन है, जिसने न केवल भारत में बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पर्यावरण चेतना को जागृत किया। यह आंदोलन वनों के अव्यावहारिक कटान के विरुद्ध स्थानीय लोगों, विशेषकर महिलाओं के स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध का प्रतीक बन गया।
उत्तराखंड में चिपको आंदोलन
- प्रारंभ: 1973-74 (मुख्य घटना 26 मार्च 1974)।
- स्थान: रैणी गाँव, चमोली जिला (तत्कालीन उत्तर प्रदेश)।
- मुख्य उद्देश्य: पेड़ों की अवैध और अव्यावहारिक कटाई को रोकना, वनों पर स्थानीय समुदायों के पारंपरिक अधिकारों की रक्षा करना।
- प्रेरणा स्रोत: गांधीवादी विचारधारा, अहिंसक प्रतिरोध।
- प्रमुख नारे: “क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार। मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।”
आंदोलन की पृष्ठभूमि
- 1960 और 1970 के दशक में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हो रही थी, जिसका ठेका बाहरी कंपनियों को दिया जाता था।
- इससे स्थानीय पर्यावरण पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ रहे थे, जैसे भूस्खलन, बाढ़, मिट्टी का कटाव और जल स्रोतों का सूखना।
- स्थानीय लोगों को उनके पारंपरिक वन अधिकारों (जैसे चारा, लकड़ी, जड़ी-बूटी संग्रहण) से वंचित किया जा रहा था, जिससे उनकी आजीविका प्रभावित हो रही थी।
- दशौली ग्राम स्वराज्य संघ (DGSS), जिसकी स्थापना 1964 में चंडी प्रसाद भट्ट ने की थी, इस क्षेत्र में ग्रामीणों को संगठित करने और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।
- 1970 की अलकनंदा बाढ़ ने वनों के महत्व को और अधिक उजागर किया था।
आंदोलन का प्रारंभ और प्रमुख घटनाएँ
प्रारंभिक विरोध प्रदर्शन
- चिपको आंदोलन की वास्तविक शुरुआत 1973 में मंडल घाटी (चमोली) में हुई, जब दशौली ग्राम स्वराज्य संघ ने पेड़ों की कटाई का विरोध किया।
- सरकार ने खेल का सामान बनाने वाली एक कंपनी “साइमन कंपनी” को अंगू के पेड़ काटने का ठेका दिया था, जबकि स्थानीय ग्रामीणों को उनके पारंपरिक उपयोग के लिए पेड़ नहीं दिए जा रहे थे।
रैणी गाँव की ऐतिहासिक घटना (26 मार्च 1974)
- चिपको आंदोलन की सबसे प्रसिद्ध और निर्णायक घटना रैणी गाँव में हुई।
- सरकार ने रैणी गाँव के पास के जंगल को काटने का ठेका दे दिया था। जब ठेकेदार के मजदूर पेड़ काटने पहुँचे, तो गाँव के पुरुष किसी सरकारी कार्य से बाहर गए हुए थे।
- इस स्थिति में, गौरा देवी (रैणी गाँव की महिला मंगल दल की अध्यक्षा) के नेतृत्व में गाँव की 27 महिलाओं ने पेड़ों से चिपककर (आलिंगन कर) उन्हें कटने से बचाया।
- महिलाओं ने कहा, “पहले हमें काटो, फिर पेड़ को।” उनके इस अहिंसक प्रतिरोध के सामने ठेकेदारों और मजदूरों को पीछे हटना पड़ा।
- इस घटना ने चिपको आंदोलन को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि दिलाई।
आंदोलन का विस्तार और नेतृत्व
- रैणी गाँव की सफलता के बाद चिपको आंदोलन उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों में भी फैल गया।
- चंडी प्रसाद भट्ट ने अपनी संस्था दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के माध्यम से आंदोलन को संगठित और वैचारिक आधार प्रदान किया। उन्होंने “पारिस्थितिकी स्थायी अर्थव्यवस्था है” का नारा दिया।
- सुंदरलाल बहुगुणा ने इस आंदोलन को व्यापक प्रचार-प्रसार दिया और इसे हिमालयी पर्यावरण के संरक्षण के एक बड़े अभियान से जोड़ा। उन्होंने टिहरी बाँध विरोधी आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका प्रसिद्ध नारा था “हिमालय बचाओ, देश बचाओ”।
- अन्य प्रमुख कार्यकर्ताओं में गोविंद सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, शमशेर सिंह बिष्ट, घनश्याम रतूड़ी ‘शैलानी’ आदि शामिल थे।
आंदोलन के मुख्य उद्देश्य और माँगें
- पेड़ों की अव्यावहारिक और व्यावसायिक कटाई पर तत्काल रोक।
- वनों पर स्थानीय समुदायों के पारंपरिक अधिकारों की बहाली।
- वन प्रबंधन में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
- पर्यावरण संरक्षण और पारिस्थितिक संतुलन को प्राथमिकता देना।
- स्थानीय संसाधनों पर आधारित लघु उद्योगों को बढ़ावा देना।
आंदोलन का प्रभाव और महत्व
- तत्काल प्रभाव: सरकार को रैणी और अन्य क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगानी पड़ी। 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालयी क्षेत्रों में 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर हरे पेड़ों की कटाई पर 15 वर्षों के लिए रोक लगा दी।
- पर्यावरण चेतना: चिपको आंदोलन ने भारत और विश्व में पर्यावरण संरक्षण के प्रति एक नई चेतना जागृत की। यह अहिंसक जन प्रतिरोध का एक सफल उदाहरण बना।
- महिला सशक्तिकरण: इस आंदोलन में महिलाओं की सक्रिय और निर्णायक भूमिका ने महिला सशक्तिकरण का एक नया अध्याय लिखा।
- वन नीति में परिवर्तन: आंदोलन के दबाव में सरकार को अपनी वन नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ा और उनमें स्थानीय समुदायों के हितों को शामिल करने की दिशा में कदम उठाने पड़े।
- अंतर्राष्ट्रीय मान्यता: चंडी प्रसाद भट्ट को 1982 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और सुंदरलाल बहुगुणा को 1987 में राइट लाइवलीहुड अवार्ड (Right Livelihood Award) से सम्मानित किया गया।
निष्कर्ष (Conclusion)
चिपको आंदोलन केवल पेड़ों को बचाने का आंदोलन नहीं था, बल्कि यह जल, जंगल और जमीन पर स्थानीय समुदायों के अधिकारों, पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास की अवधारणा से जुड़ा एक व्यापक जन आंदोलन था। गौरा देवी जैसी साधारण महिलाओं के असाधारण साहस और चंडी प्रसाद भट्ट व सुंदरलाल बहुगुणा जैसे नेताओं के दूरदर्शी नेतृत्व ने इस आंदोलन को विश्वव्यापी पहचान दिलाई। चिपको आंदोलन आज भी पर्यावरण संरक्षण के संघर्षों के लिए एक प्रेरणा स्रोत है।