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बादल फटना (Cloud Bursts)

उत्तराखंड में बादल फटना (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

उत्तराखंड, अपनी विशिष्ट पर्वतीय स्थलाकृति और मानसूनी जलवायु के कारण, विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के प्रति संवेदनशील है। इनमें से बादल फटना (Cloud Burst) एक ऐसी विनाशकारी मौसमी घटना है जो कम समय में अत्यधिक वर्षा के कारण अचानक बाढ़ और भूस्खलन लाती है, जिससे भारी जान-माल की हानि होती है।

उत्तराखंड में बादल फटना: एक सिंहावलोकन

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • बादल फटना एक स्थानीयकृत, तीव्र वर्षा की घटना है।
  • भारतीय मौसम विभाग (IMD) के अनुसार, यदि किसी स्थान पर एक घंटे में 100 मिलीमीटर (या 10 सेंटीमीटर) या उससे अधिक वर्षा होती है, तो उसे बादल फटना माना जाता है।
  • यह घटना मुख्यतः पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक होती है, जहाँ भौगोलिक परिस्थितियाँ इसके निर्माण में सहायक होती हैं।
  • उत्तराखंड में मानसून के दौरान (जून से सितंबर) बादल फटने की घटनाएँ अधिक होती हैं।
  • इसके परिणामस्वरूप आकस्मिक बाढ़ (Flash Floods), भूस्खलन, और मलबा प्रवाह (Debris Flow) जैसी आपदाएँ आती हैं।

1. बादल फटने की परिभाषा एवं विशेषताएँ

  • परिभाषा: बादल फटना एक छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में (लगभग 20-30 वर्ग किलोमीटर) बहुत कम समय (कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों तक) में होने वाली अत्यधिक तीव्र वर्षा है।
  • विशेषताएँ:
    • अचानक और तीव्र वर्षा: वर्षा की दर बहुत अधिक होती है।
    • स्थानीयकृत घटना: यह एक सीमित क्षेत्र को प्रभावित करती है।
    • पर्वतीय क्षेत्रों में अधिक: पहाड़ों से टकराकर नमी युक्त हवाओं के ऊपर उठने से इसके बनने की संभावना बढ़ती है।
    • कम अवधि: यह घटना सामान्यतः कम समय के लिए होती है, लेकिन इसका प्रभाव विनाशकारी होता है।
    • इसके साथ अक्सर गरज, चमक और ओलावृष्टि भी हो सकती है।

2. उत्तराखंड में बादल फटने के कारण/अनुकूल परिस्थितियाँ

  • पर्वतीय स्थलाकृति (Orographic Lifting): जब नमी युक्त मानसूनी हवाएँ हिमालय के पहाड़ों से टकराती हैं, तो वे तेजी से ऊपर उठती हैं, ठंडी होती हैं और संघनित होकर कपासी-वर्षी (Cumulonimbus) बादल बनाती हैं, जिनसे तीव्र वर्षा होती है।
  • मानसून का प्रभाव: उत्तराखंड में अधिकांश बादल फटने की घटनाएँ दक्षिण-पश्चिम मानसून के सक्रिय होने के दौरान होती हैं, जब वायुमंडल में नमी की मात्रा अधिक होती है।
  • निम्न दाब क्षेत्र और वायुमंडलीय अस्थिरता: विशिष्ट मौसम प्रणालियाँ और वायुमंडलीय अस्थिरता भी इसके निर्माण में सहायक होती हैं।
  • स्थानीय तापन (Localized Heating): कभी-कभी स्थानीय सतह के अत्यधिक गर्म होने से संवहनीय धाराएँ (Convectional Currents) उत्पन्न होती हैं, जो बादलों को तेजी से ऊपर उठाकर तीव्र वर्षा करा सकती हैं।
  • जलवायु परिवर्तन का संभावित प्रभाव: कुछ अध्ययनों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हो सकती है, जिसमें बादल फटना भी शामिल है।

3. बादल फटने के प्रभाव एवं परिणाम

  • आकस्मिक बाढ़ (Flash Floods): कम समय में अत्यधिक वर्षा से नदियों और नालों में जल स्तर अचानक बढ़ जाता है, जिससे विनाशकारी बाढ़ आती है।
  • भूस्खलन (Landslides): तीव्र वर्षा से पहाड़ी ढलानों की मिट्टी और चट्टानें अस्थिर हो जाती हैं, जिससे बड़े पैमाने पर भूस्खलन होते हैं।
  • मलबा प्रवाह (Debris Flow): बाढ़ और भूस्खलन के साथ भारी मात्रा में मलबा (मिट्टी, पत्थर, पेड़) बहकर आता है, जो रास्ते में आने वाली हर चीज़ को नष्ट कर देता है।
  • जान-माल की हानि: आकस्मिक बाढ़, भूस्खलन और मलबा प्रवाह से मानव जीवन और पशुधन की भारी हानि होती है।
  • आधारभूत संरचना को क्षति: सड़कें, पुल, भवन, संचार लाइनें और जलविद्युत परियोजनाएँ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाती हैं।
  • कृषि भूमि का विनाश: उपजाऊ मिट्टी बह जाती है और खेत मलबे से ढक जाते हैं।
  • पेयजल स्रोतों का दूषित होना।
  • पारिस्थितिक क्षति: वनस्पति और वन्यजीवों पर नकारात्मक प्रभाव।

4. उत्तराखंड में बादल फटने की प्रमुख घटनाएँ (उदाहरण)

उत्तराखंड में बादल फटने की अनेक विनाशकारी घटनाएँ हुई हैं। कुछ प्रमुख उदाहरण:

  • 1998 मालपा (पिथौरागढ़): मालपा में बादल फटने और भूस्खलन से भारी तबाही, जिसमें प्रसिद्ध नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी सहित कई कैलाश मानसरोवर यात्री मारे गए।
  • 2002 बूढ़ाकेदार (टिहरी): बादल फटने से भीषण बाढ़ और भूस्खलन।
  • 2010 बागेश्वर और अल्मोड़ा: विभिन्न स्थानों पर बादल फटने से व्यापक क्षति।
  • 2012 उत्तरकाशी (असीगंगा घाटी): बादल फटने से असीगंगा नदी में भीषण बाढ़, कई गाँव प्रभावित।
  • जून 2013 केदारनाथ आपदा: यह एक बहु-आयामी आपदा थी जिसमें भारी वर्षा, चौराबाड़ी ताल का फटना (GLOF) और मंदाकिनी नदी में आकस्मिक बाढ़ शामिल थी। इसे व्यापक रूप से बादल फटने की घटनाओं से भी जोड़ा जाता है, जिसने तबाही को और बढ़ाया।
  • 2021 चमोली (तपोवन-रैणी क्षेत्र): ऋषिगंगा घाटी में ग्लेशियर टूटने/भूस्खलन/संभावित बादल फटने से आई आपदा।
  • इसके अतिरिक्त भी राज्य के विभिन्न हिस्सों में प्रतिवर्ष मानसून के दौरान बादल फटने की छोटी-बड़ी घटनाएँ होती रहती हैं।

5. न्यूनीकरण, तैयारी एवं प्रबंधन के उपाय

  • प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (Early Warning System):
    • मौसम पूर्वानुमान और डॉप्लर रडार नेटवर्क (जैसे मुक्तेश्वर, सुरकंडा में स्थापित) को मजबूत करना।
    • स्थानीय स्तर पर वर्षा और जल स्तर की निगरानी।
  • जोखिम मूल्यांकन एवं क्षेत्रीकरण (Risk Assessment and Zonation): बादल फटने और भूस्खलन के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करना और उनके अनुसार विकास योजनाओं का निर्माण।
  • भू-उपयोग नियोजन (Land Use Planning): संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण गतिविधियों को नियंत्रित करना और सुरक्षित स्थानों पर बसावट को प्रोत्साहित करना।
  • जल निकासी प्रणालियों में सुधार: शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में उचित जल निकासी की व्यवस्था।
  • वनीकरण एवं वाटरशेड प्रबंधन: ढलानों पर वृक्षारोपण और चेक डैम निर्माण से मृदा अपरदन और जल प्रवाह को नियंत्रित करना।
  • सामुदायिक जागरूकता एवं तैयारी: स्थानीय समुदायों को बादल फटने के खतरों और बचाव के उपायों के बारे में प्रशिक्षित करना।
  • राज्य आपदा प्रतिवादन बल (SDRF) और राष्ट्रीय आपदा प्रतिवादन बल (NDRF) को सुदृढ़ करना।
  • त्वरित बचाव एवं राहत कार्य: आपदा की स्थिति में शीघ्रता से बचाव और राहत सामग्री पहुँचाना।
  • जलवायु परिवर्तन अनुकूलन रणनीतियाँ अपनाना।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड में बादल फटना एक गंभीर प्राकृतिक आपदा है, जिसके विनाशकारी परिणाम होते हैं। हालांकि इस घटना को पूरी तरह से रोकना संभव नहीं है, लेकिन बेहतर मौसम पूर्वानुमान, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, उचित भू-उपयोग नियोजन, सामुदायिक तैयारी और प्रभावी आपदा प्रबंधन रणनीतियों के माध्यम से इसके प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धांतों को अपनाकर ही उत्तराखंड इस प्रकार की आपदाओं का बेहतर ढंग से सामना कर सकता है।

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