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व्यवसायिक कृषि एवं कृषि समस्याएं (Commercial Agriculture and Issues)

उत्तराखंड में व्यावसायिक कृषि एवं कृषि समस्याएँ (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

उत्तराखंड की कृषि परंपरागत रूप से जीवनयापन केंद्रित रही है, लेकिन राज्य की आर्थिक उन्नति और किसानों की आय में वृद्धि के लिए व्यावसायिक कृषि को बढ़ावा देना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गई है। हालांकि, राज्य की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियाँ और अन्य कारक कृषि क्षेत्र में कई चुनौतियों को भी जन्म देते हैं।

उत्तराखंड में व्यावसायिक कृषि एवं कृषि समस्याएँ

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • उत्तराखंड में व्यावसायिक कृषि का अर्थ है बाजार की मांग के अनुसार उच्च मूल्य वाली फसलों का उत्पादन करना ताकि किसानों को बेहतर आय प्राप्त हो सके।
  • राज्य में फल, सब्जियाँ (विशेषकर बेमौसमी), पुष्प, औषधीय एवं सगंध पौधे, चाय, बासमती चावल और जैविक उत्पाद व्यावसायिक कृषि के प्रमुख क्षेत्र हैं।
  • कृषि समस्याओं में छोटी और बिखरी हुई जोतें, सिंचाई की कमी, मानव-वन्यजीव संघर्ष, विपणन सुविधाओं का अभाव और पलायन प्रमुख हैं।
  • सरकार द्वारा कृषि विविधीकरण, जैविक खेती को प्रोत्साहन, क्लस्टर आधारित खेती और विपणन सुधार जैसी पहलें की जा रही हैं।

1. उत्तराखंड में व्यावसायिक कृषि (Commercial Agriculture)

व्यावसायिक कृषि का उद्देश्य परंपरागत जीवनयापन कृषि से हटकर बाजारोन्मुखी उत्पादन करना है, जिससे कृषि एक लाभकारी व्यवसाय बन सके।

क. प्रमुख व्यावसायिक फसलें एवं क्षेत्र

  • फल उत्पादन:
    • सेब, नाशपाती, आड़ू, खुबानी, पुलम, कीवी, स्ट्रॉबेरी जैसे समशीतोष्ण फल पर्वतीय क्षेत्रों (उत्तरकाशी, नैनीताल, अल्मोड़ा, चमोली) में व्यावसायिक रूप से उगाए जाते हैं।
    • आम और लीची मैदानी और घाटी क्षेत्रों (देहरादून, ऊधम सिंह नगर) की महत्वपूर्ण व्यावसायिक फसलें हैं।
  • सब्जी उत्पादन:
    • बेमौसमी सब्जियाँ (जैसे टमाटर, मटर, शिमला मिर्च, गोभी) पर्वतीय क्षेत्रों में किसानों की आय का अच्छा स्रोत हैं।
    • मैदानी क्षेत्रों में भी विभिन्न सब्जियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है।
  • पुष्प उत्पादन (Floriculture):
    • राज्य में कट फ्लावर (गुलाब, जरबेरा, कारनेशन, लिलियम) और सजावटी पौधों की खेती को व्यावसायिक रूप से बढ़ावा दिया जा रहा है।
    • देहरादून, नैनीताल, ऊधम सिंह नगर और अल्मोड़ा जिलों में पुष्प उत्पादन केंद्र विकसित किए गए हैं।
  • औषधीय एवं सगंध पौधे (MAPs):
    • उत्तराखंड की जलवायु विभिन्न औषधीय (जैसे कुटकी, अतीस) और सगंध पौधों (जैसे लैवेंडर, जेरेनियम, डेमस्क गुलाब) की खेती के लिए उपयुक्त है।
    • इनकी खेती को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और सरकारी योजनाओं के माध्यम से प्रोत्साहित किया जा रहा है।
  • चाय (Tea):
    • कौसानी, चौकोड़ी, ग्वालदम जैसे क्षेत्रों में चाय बागान व्यावसायिक महत्व रखते हैं। उत्तराखंड टी डेवलपमेंट बोर्ड चाय उत्पादन को बढ़ावा दे रहा है।
  • बासमती चावल: देहरादून और ऊधम सिंह नगर में उच्च गुणवत्ता वाले बासमती चावल का उत्पादन निर्यात की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
  • मशरूम उत्पादन: कम जगह और कम लागत में अधिक आय देने वाली फसल के रूप में लोकप्रिय हो रहा है।
  • जैविक उत्पाद (Organic Products): उत्तराखंड को “जैविक प्रदेश” बनाने के लक्ष्य के साथ जैविक अनाज, दालें, फल और सब्जियों की मांग बढ़ रही है, जो किसानों को बेहतर मूल्य दिलाते हैं।

ख. व्यावसायिक कृषि को बढ़ावा देने हेतु सरकारी पहल

  • कृषि विविधीकरण योजनाएँ: परंपरागत फसलों के स्थान पर उच्च मूल्य वाली फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन।
  • जैविक कृषि अधिनियम, 2019 और जैविक प्रमाणीकरण को बढ़ावा।
  • एकीकृत बागवानी विकास मिशन (MIDH) और अन्य बागवानी योजनाएँ।
  • शीत गृह (Cold Storage) और प्रसंस्करण इकाइयों (Processing Units) की स्थापना के लिए सब्सिडी।
  • ई-नाम (e-NAM) जैसे ऑनलाइन विपणन प्लेटफॉर्म से जोड़ना।
  • किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) का गठन और सुदृढ़ीकरण।

2. उत्तराखंड में कृषि की प्रमुख समस्याएँ (Major Agricultural Issues)

  • भौगोलिक बाधाएँ:
    • छोटी और बिखरी हुई जोतें (Land Fragmentation): अधिकांश किसानों के पास छोटी और अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई कृषि भूमि है, जिससे आधुनिक तकनीकों का उपयोग और आर्थिक लाभप्रदता कम हो जाती है।
    • दुर्गम पर्वतीय भूभाग: खेती योग्य समतल भूमि का अभाव, खड़ी ढलानों पर खेती की कठिनाई।
    • मृदा अपरदन (Soil Erosion): तीव्र ढलानों और वनों की कटाई के कारण मिट्टी का कटाव एक गंभीर समस्या है, जिससे भूमि की उर्वरता कम होती है।
  • सिंचाई सुविधाओं का अभाव:
    • पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि मुख्यतः वर्षा पर निर्भर है। अनियमित और अपर्याप्त वर्षा से फसल उत्पादन प्रभावित होता है।
    • सिंचाई के परंपरागत स्रोत (गूल, धारे) सूख रहे हैं या उनकी क्षमता कम हो गई है। आधुनिक सिंचाई प्रणालियों का विस्तार सीमित है।
  • मानव-वन्यजीव संघर्ष (Human-Wildlife Conflict):
    • जंगली जानवरों (जैसे बंदर, सुअर, लंगूर, हाथी, नीलगाय) द्वारा फसलों को भारी नुकसान पहुँचाया जाता है, जिससे किसानों की आजीविका प्रभावित होती है।
  • पलायन (Migration):
    • रोजगार और बेहतर सुविधाओं की तलाश में युवाओं का ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों की ओर पलायन एक गंभीर समस्या है।
    • इससे कृषि कार्यों के लिए मानव शक्ति की कमी हो जाती है और कई खेत बंजर (घोस्ट विलेज की अवधारणा) हो जाते हैं।
  • विपणन एवं भंडारण सुविधाओं की कमी:
    • पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों और परिवहन सुविधाओं का अभाव।
    • उत्पादों के लिए संगठित मंडियों, शीत गृहों और प्रसंस्करण इकाइयों की कमी, जिससे किसानों को उचित मूल्य नहीं मिल पाता और फसल खराब होने का डर रहता है।
    • बिचौलियों की भूमिका से किसानों को नुकसान।
  • कृषि आदानों की अनुपलब्धता एवं महँगाई:
    • अच्छी गुणवत्ता वाले बीज, उर्वरक, कीटनाशक और आधुनिक कृषि यंत्रों की समय पर और उचित मूल्य पर उपलब्धता एक चुनौती है।
    • पर्वतीय क्षेत्रों में इन आदानों की परिवहन लागत भी अधिक होती है।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
    • वर्षा के पैटर्न में बदलाव, तापमान में वृद्धि, बेमौसम वर्षा, ओलावृष्टि और सूखे जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में वृद्धि से फसलें प्रभावित हो रही हैं।
    • ग्लेशियरों के पिघलने से दीर्घकाल में जल उपलब्धता पर संकट।
  • ऋणग्रस्तता: छोटे और सीमांत किसान अक्सर अनौपचारिक स्रोतों से महंगे ब्याज पर ऋण लेने को मजबूर होते हैं, जिससे वे ऋण के जाल में फँस जाते हैं।
  • अनुसंधान एवं प्रसार सेवाओं की कमी: पर्वतीय कृषि की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप अनुसंधान और आधुनिक तकनीकों का किसानों तक प्रभावी ढंग से न पहुँच पाना।
  • भूमि सुधारों का धीमा कार्यान्वयन: चकबंदी जैसे भूमि सुधार कार्यक्रम पर्वतीय क्षेत्रों की जटिलताओं के कारण प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाए हैं।

3. समस्याओं के समाधान हेतु प्रयास एवं सुझाव

  • सिंचाई सुविधाओं का विस्तार: लघु सिंचाई योजनाओं, वर्षा जल संग्रहण (चाल-खाल, पोखर), ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई को बढ़ावा।
  • समेकित कृषि प्रणाली (Integrated Farmin
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