उत्तराखंड ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहाँ के लोगों ने विभिन्न आंदोलनों, विद्रोहों और बलिदानों के माध्यम से ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाई और राष्ट्रीय स्वतंत्रता में अमूल्य योगदान दिया।
1. 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और प्रारंभिक विद्रोह (1857 Freedom Struggle and Early Revolts)
उत्तराखंड में स्वतंत्रता की चिंगारी 1857 के विद्रोह से पहले ही सुलगने लगी थी।
1.1. प्रारंभिक विद्रोह
- कुंजा तालुका का विद्रोह (1824 ई.): रूड़की के कुंजा तालुका से यह विद्रोह प्रारंभ हुआ, जिसका नेतृत्व लंढौर रियासत के विजय सिंह एवं कल्याण सिंह (जिन्हें स्थानीय रूप से कालू एवं बीजा स्वतंत्रता सेनानी के नाम से जाना जाता है) कर रहे थे।
- प्रथम स्वतंत्रता सेनानी: चंपावत के कालू सिंह महरा को उत्तराखंड का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी माना जाता है। उन्होंने 1857 ई. में कुमाऊँ में अंग्रेजों के विरोध में क्रान्तिवीर नामक गुप्त संगठन चलाया। उन्हें अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने प्रेरित किया था। उनके साथी क्रांतिकारी आनंद सिंह फर्त्याल एवं बिशना सिंह को फांसी की सजा दी गई थी।
1.2. 1857 की क्रांति का प्रभाव
- हल्द्वानी पर कब्जा: सितंबर 1857 ई. में बरेली के नवाब खान बहादुर खां की सेना ने हल्द्वानी पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया। 17 सितंबर 1857 ई. को राज्य के लगभग 1000 क्रांतिकारियों द्वारा हल्द्वानी पर अधिकार कर लिया गया था, लेकिन कुछ समय बाद उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
- फांसी गदेरा: नैनीताल के फांसी गदेरा में क्रांतिकारियों को फांसी दी गई थी।
- नाना साहेब: नाना साहेब (घोडू पंत) जोगी के भेष में उत्तरकाशी में रहे थे, जो 1857 की क्रांति में कानपुर से विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे।
- ब्रिटिश गढ़वाल का डिप्टी कमिश्नर: 1857 की क्रांति के समय गढ़वाल का डिप्टी कमिश्नर बेकेट था।
2. राजनीतिक चेतना का विकास (Development of Political Consciousness)
विभिन्न संगठनों और समाचार पत्रों ने उत्तराखंड में राजनीतिक जागरूकता फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- डिबेटिंग क्लब (1870 ई.): अल्मोड़ा में 1870 ई. में डिबेटिंग क्लब की स्थापना हुई, जिसके गठन की योजना बुद्धिबल्लभ पंत ने बनाई थी। इसने राजनीतिक चर्चाओं को बढ़ावा दिया।
- गढ़वाल हितकारिणी सभा (1901 ई.): अगस्त 1901 ई. में इसकी स्थापना हुई, जिसे गढ़वाल यूनियन भी कहते थे। इसके गठन का श्रेय प्रसिद्ध वकील तारादत गैरोला को जाता है।
- हैप्पी क्लब (1903 ई.): अल्मोड़ा में 1903 ई. को गोविंद बल्लभ पंत तथा हरगोविंद पंत के प्रयासों से इसकी स्थापना की गई, जिसका प्रमुख उद्देश्य नवयुवकों में राजनीतिक चेतना जागृत करना था।
- कांग्रेस की स्थापना (1912 ई.): ज्वालादत्त जोशी, सदानंद सनवाल आदि के प्रयासों से अल्मोड़ा में 1912 ई. में कांग्रेस की स्थापना की गई।
- कुमाऊँ परिषद (1916 ई.): 30 सितंबर 1916 ई. को हरगोविंद पंत, बद्रीदत्त पांडे, गोविंद बल्लभ पंत आदि के प्रयासों से इसकी स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य राजनैतिक, सामाजिक और शिक्षा का विकास करना था। 1926 ई. में कुमाऊँ परिषद का कांग्रेस में विलय हो गया।
- गढ़वाल कांग्रेस कमेटी (1918 ई.): 1918 ई. को बैरिस्टर मुकुन्दी लाल व अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा के प्रयासों से इसका गठन हुआ।
- होमरूल लीग: 1914 ई. में मोहन जोशी, चिरंजीलाल, बद्रीदत्त पांडे आदि नेताओं ने अल्मोड़ा में इसकी एक शाखा स्थापित की। 1918 ई. में स्वामी विचारानंद सरस्वती ने देहरादून में होमरूल लीग की एक शाखा स्थापित की।
- समाचार पत्रों का योगदान:
- अल्मोड़ा अखबार: 1871 ई. में प्रकाशित, इसने राजनीतिक चेतना फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- शक्ति साप्ताहिक: 1918 ई. में बद्रीदत्त पांडे द्वारा अल्मोड़ा अखबार के बंद होने के बाद शुरू किया गया।
- अभय नामक साप्ताहिक: 1922 ई. में स्वामी विचारानंद सरस्वती ने देहरादून से इसका प्रकाशन किया।
3. प्रमुख जन आंदोलन (Major People’s Movements)
उत्तराखंड ने विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाई।
3.1. कुली बेगार आंदोलन (1915-1921 ई.)
- उद्देश्य: ब्रिटिश अधिकारियों के लिए बिना मजदूरी के जबरन श्रम (कुली बेगार), सामान ढोने (कुली उतार) और मुफ्त राशन (कुली बर्दायश) जैसी शोषणकारी प्रथाओं का विरोध।
- समाप्ति: 13-14 जनवरी 1921 ई. को बागेश्वर के सरयू नदी के तट पर उत्तरायणी मेले के अवसर पर बद्रीदत्त पांडे, हरगोविंद पंत व चिरंजीलाल के नेतृत्व में 40 हजार स्वतंत्रता सेनानियों ने कुली बेगार न करने की शपथ ली और संबंधित रजिस्टर नदी में बहा दिए।
- गांधी जी का कथन: महात्मा गांधी ने इसे “रक्तहीन क्रांति” की संज्ञा दी।
3.2. वन आंदोलन (20वीं शताब्दी की शुरुआत)
- उद्देश्य: ब्रिटिश वन नीतियों का विरोध, जिन्होंने स्थानीय लोगों के पारंपरिक वन अधिकारों को छीन लिया था और वनों के व्यावसायिक दोहन को बढ़ावा दिया था।
- प्रमुख घटनाएँ: 13 अप्रैल 1921 ई. में फॉरेस्ट ग्रीवेन्स कमेटी का गठन। कमेटी की सिफारिश पर 1925 ई. में वन पंचायतों के गठन का निर्णय लिया गया। 1932 में चमोली जनपद में वन पंचायतों का गठन हुआ। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान सल्ट क्षेत्र वन आंदोलन का प्रमुख केंद्र था।
3.3. नमक सत्याग्रह (सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान, 1930 ई.)
- उद्देश्य: गांधी जी के नमक सत्याग्रह के समर्थन में ब्रिटिश नमक कानून का उल्लंघन।
- नेतृत्व: कुमाऊँ में गोविंद बल्लभ पंत और गढ़वाल में प्रताप सिंह नेगी।
- गांधी जी का आगमन: 14 जून 1929 ई. में गांधी जी ने पहली बार कुमाऊँ का दौरा किया। बागेश्वर के कौसानी में 12 दिन के प्रवास के दौरान उन्होंने अनासक्ति योग नाम से गीता की भूमिका लिखी। कौसानी को उन्होंने भारत का स्विटजरलैंड कहा।
- नमक बनाना: 23 मई 1930 को गोविंद बल्लभ पंत ने मल्लीताल में 25 मई को नमक बनाने की घोषणा की (गिरफ्तारी के बाद इंद्र सिंह नयाल ने नमक बेचा)। 27 मई 1930 ई. में नैनीताल में बद्रीदत्त पांडे ने नमक बेचा।
3.4. पेशावर कांड (23 अप्रैल 1930 ई.)
- घटना: 2/18 गढ़वाल राइफल के सैनिक पेशावर के किस्साखानी बाजार में तैनात थे। अंग्रेज कमांडर रिकेड के गोली चलाने के आदेश के बावजूद, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने निहत्थे अफगान सैनिकों पर गोली चलाने से मना कर दिया और कहा, “गढ़वाली सीज फायर।”
- परिणाम: मोतीलाल नेहरू ने 23 अप्रैल के दिन को “गढ़वाल दिवस” मनाने की घोषणा की। फौजी अदालत में गढ़वाली सैनिकों की तरफ से पैरवी मुकुन्दी लाल ने की।
3.5. भारत छोड़ो आंदोलन (1942 ई.)
- प्रभाव: उत्तराखंड में भी इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव देखा गया।
- सल्ट की घटना: 5 सितंबर 1942 को सल्ट (अल्मोड़ा) में अंग्रेजों द्वारा निहत्थी जनता पर गोलीबारी की गई, जिसमें गंगा राम, खीमा देव, चूड़ामणि और बहादुर सिंह शहीद हुए। महात्मा गांधी ने इसे “कुमाऊँ का बारदोली” कहा।
3.6. डोला-पालकी आंदोलन (1930 का दशक)
- उद्देश्य: दलित शिल्पकारों (जिन्हें ‘शिल्पकार’ कहा जाता था) को विवाह के अवसर पर डोला-पालकी में बैठने का अधिकार दिलाना, जो उन्हें पारंपरिक रूप से वंचित किया जाता था।
- नेतृत्व: इस आंदोलन का नेतृत्व जयानंद भारती ने किया।
- परिणाम: लंबे संघर्ष के बाद, शिल्पकारों को यह सामाजिक अधिकार प्राप्त हुआ।
4. टिहरी रियासत में जन आंदोलन (People’s Movement in Tehri Princely State)
टिहरी रियासत में राजशाही के विरुद्ध लोकतांत्रिक अधिकारों और उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए आंदोलन चले।
4.1. प्रजामंडल आंदोलन
- स्थापना: 23 जनवरी 1939 ई. को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजामंडल की स्थापना हुई। इसके संस्थापकों में श्रीदेव सुमन, दौलतराम, नागेंद्र सकलानी आदि प्रमुख थे।
- उद्देश्य: टिहरी रियासत में उत्तरदायी शासन की स्थापना और जनता के अधिकारों की बहाली।
4.2. श्रीदेव सुमन का बलिदान
- भूमिका: श्रीदेव सुमन टिहरी रियासत में जन आंदोलन के एक अग्रणी नेता थे।
- शहादत: राजशाही के विरुद्ध संघर्ष करते हुए, उन्होंने 84 दिन की भूख हड़ताल की, जिसके परिणामस्वरूप 25 जुलाई 1944 ई. को उनकी मृत्यु हो गई। उनका बलिदान आंदोलन के लिए एक प्रेरणा स्रोत बना।
4.3. प्रमुख घटनाएँ
- सकलाना विद्रोह: 1947 ई. में टिहरी में यह विद्रोह हुआ।
- कीर्तिनगर आंदोलन: 1948 ई. में हुए इस आंदोलन में भोलूराम व नागेंद्र सकलानी शहीद हुए।
- तिलाड़ी कांड (रवांई कांड): 30 मई 1930 ई. को टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के आदेश पर किसानों पर गोली चलाई गई, जो अपने वन अधिकारों के लिए तिलाड़ी नामक स्थान पर एकत्रित हुए थे। इसमें लगभग 200-300 लोग मारे गए। इस घटना को उत्तराखंड का जलियांवाला बाग कांड भी कहा जाता है।
5. प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और उनके योगदान (Prominent Freedom Fighters and their Contributions)
उत्राखंड ने कई ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई।
- कालू सिंह महरा: उत्तराखंड के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी। 1857 के विद्रोह में क्रांतिवीर संगठन बनाया।
- बद्रीदत्त पांडे: “कुमाऊँ केसरी” के नाम से प्रसिद्ध। कुली बेगार आंदोलन के प्रमुख नेता और सफल नेतृत्वकर्ता।
- गोविंद बल्लभ पंत: संयुक्त प्रांत के प्रथम मुख्यमंत्री। कुमाऊँ परिषद और हैप्पी क्लब की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका। नमक सत्याग्रह में नेतृत्व।
- अनुसुइया प्रसाद बहुगुणा: “गढ़ केसरी” के नाम से विख्यात। गढ़वाल कांग्रेस कमेटी के गठन में सक्रिय।
- मुकुन्दी लाल: बैरिस्टर और स्वतंत्रता सेनानी। पेशावर कांड के सैनिकों की पैरवी की। स्वराज दल के प्रमुख नेता।
- श्रीदेव सुमन: टिहरी रियासत में जन आंदोलन के प्रणेता। राजशाही के विरुद्ध 84 दिन की भूख हड़ताल के बाद शहीद हुए।
- वीर चंद्र सिंह गढ़वाली: पेशावर कांड के नायक, जिन्होंने निहत्थे सैनिकों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया।
- जयानंद भारती: डोला-पालकी आंदोलन के नेतृत्वकर्ता, जिन्होंने सामाजिक समानता के लिए संघर्ष किया।
6. निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान बहुआयामी और प्रेरणादायक रहा है। यहाँ के लोगों ने न केवल राष्ट्रीय स्तर के आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाई, बल्कि स्थानीय मुद्दों (जैसे कुली बेगार, वन अधिकार, सामाजिक भेदभाव) के खिलाफ भी सशक्त आंदोलन चलाए। इन संघर्षों ने उत्तराखंड की जनता में राजनीतिक चेतना, सामाजिक न्याय की भावना और पर्यावरण संरक्षण के प्रति गहरी प्रतिबद्धता को विकसित किया। इन बलिदानों और प्रयासों ने अंततः भारत की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण योगदान दिया और उत्तराखंड राज्य के गठन की नींव भी रखी।
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