उत्तराखंड, अपनी समृद्ध जैव विविधता और घने वनों के लिए प्रसिद्ध है, जो राज्य की पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था का आधार हैं। हालांकि, विभिन्न मानवीय और प्राकृतिक कारणों से निर्वनीकरण (Deforestation) एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती के रूप में उभरा है, जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
उत्तराखंड में निर्वनीकरण: एक विस्तृत विश्लेषण
- निर्वनीकरण का अर्थ है वनों का स्थायी विनाश या अन्य भूमि उपयोगों के लिए वन भूमि का रूपांतरण।
- उत्तराखंड का लगभग 71.05% भूभाग वनाच्छादित है (ISFR 2021 के अनुसार, जिसमें झाड़ियाँ भी शामिल हैं)। वास्तविक सघन वन क्षेत्र इससे कम हो सकता है।
- मुख्य चालकों में कृषि विस्तार, अनियोजित शहरीकरण, अवसंरचना परियोजनाएँ, और अवैध कटान शामिल हैं।
- इसके प्रमुख परिणामों में मृदा अपरदन, जैव विविधता की हानि, जल संकट, और जलवायु परिवर्तन के प्रति सुभेद्यता में वृद्धि शामिल हैं।
- उत्तराखंड चिपको आंदोलन जैसे ऐतिहासिक वन संरक्षण आंदोलनों की भूमि रही है।
1. निर्वनीकरण: परिभाषा एवं स्वरूप
- परिभाषा: निर्वनीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा वन क्षेत्रों को स्थायी रूप से हटा दिया जाता है ताकि उस भूमि का उपयोग अन्य उद्देश्यों जैसे कृषि, पशुचारण, शहरी विकास, या अवसंरचना परियोजनाओं के लिए किया जा सके।
- स्वरूप:
- योजनाबद्ध निर्वनीकरण: विकास परियोजनाओं (जैसे सड़क, बांध) के लिए सरकारी अनुमति से।
- अनैच्छिक या अवैध निर्वनीकरण: अतिक्रमण, अवैध कटान, और अनियंत्रित चराई के कारण।
- क्रमिक निर्वनीकरण: धीरे-धीरे वन क्षेत्र का क्षरण, जैसे ईंधन लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई।
- तीव्र निर्वनीकरण: बड़े पैमाने पर वनों की कटाई, अक्सर वाणिज्यिक लाभ या बड़ी परियोजनाओं के लिए।
2. उत्तराखंड में निर्वनीकरण के प्रमुख कारण
- कृषि भूमि का विस्तार: बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण वन भूमि को कृषि क्षेत्रों में परिवर्तित करना।
- शहरीकरण एवं अवसंरचना विकास: सड़कों, बांधों, नई बस्तियों, और अन्य ढांचागत परियोजनाओं के निर्माण के लिए वनों की कटाई। चारधाम परियोजना जैसी बड़ी सड़क परियोजनाओं का उदाहरण।
- अवैध कटान एवं लकड़ी की तस्करी: मूल्यवान लकड़ी के लिए पेड़ों की अवैध कटाई एक सतत समस्या है।
- अतिचारण: पशुओं द्वारा अनियंत्रित चराई से नए पौधों का विकास रुक जाता है और मृदा संघनन होता है।
- वनाग्नि: प्राकृतिक और मानवजनित कारणों से लगने वाली आग से बड़े पैमाने पर वन संपदा नष्ट होती है। प्रत्येक वर्ष ग्रीष्मकाल में यह एक बड़ी चुनौती होती है।
- खनन गतिविधियाँ: कुछ क्षेत्रों में खनिजों के लिए खनन से वनों का विनाश होता है।
- पर्यटन का अनियंत्रित विकास: पर्यटन स्थलों पर बढ़ते दबाव और अनियोजित निर्माण से भी वन क्षेत्रों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- प्राकृतिक आपदाएँ: भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाएँ भी वन आवरण को नुकसान पहुँचाती हैं, जो कभी-कभी पहले से कमजोर पारिस्थितिकी के कारण और बढ़ जाती हैं।
3. निर्वनीकरण के दुष्प्रभाव (उत्तराखंड के संदर्भ में)
क. पारिस्थितिक दुष्प्रभाव
- मृदा अपरदन एवं भूस्खलन में वृद्धि: पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बांधकर रखती हैं; उनके कटने से मिट्टी ढीली हो जाती है, जिससे अपरदन और भूस्खलन का खतरा बढ़ता है।
- जैव विविधता की हानि: वन विभिन्न प्रकार के पौधों और जानवरों के आवास होते हैं। निर्वनीकरण से उनके आवास नष्ट होते हैं, जिससे जैव विविधता घटती है। कई स्थानिक प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर पहुँच सकती हैं।
- जल चक्र में बाधा एवं जल संकट: वन वर्षा जल को सोखने और भूजल पुनर्भरण में मदद करते हैं। इनके अभाव में जल स्रोत सूख सकते हैं और जल संकट उत्पन्न हो सकता है।
- जलवायु परिवर्तन में योगदान: वन कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं। निर्वनीकरण से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ती है, जो वैश्विक तापन और जलवायु परिवर्तन का एक प्रमुख कारण है। स्थानीय मौसम पैटर्न भी प्रभावित हो सकते हैं।
- पारिस्थितिक संतुलन का बिगड़ना: खाद्य श्रृंखला और पारिस्थितिक तंत्र की अन्योन्याश्रित प्रक्रियाएँ बाधित होती हैं।
ख. आर्थिक दुष्प्रभाव
- वन आधारित उद्योगों पर प्रभाव: लकड़ी, जड़ी-बूटियों और अन्य वन उत्पादों पर निर्भर उद्योगों को नुकसान।
- कृषि उत्पादकता में कमी: मृदा अपरदन और जल संकट से कृषि उत्पादन प्रभावित होता है।
- आपदाओं से आर्थिक क्षति में वृद्धि: भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाओं की आवृत्ति बढ़ने से जान-माल और अवसंरचना की भारी क्षति।
- पर्यटन पर नकारात्मक प्रभाव: प्राकृतिक सौंदर्य में कमी आने से पर्यटन आकर्षण घट सकता है।
ग. सामाजिक दुष्प्रभाव
- स्थानीय समुदायों की आजीविका पर संकट: कई समुदाय ईंधन, चारा, और अन्य वनोपजों के लिए वनों पर निर्भर होते हैं।
- विस्थापन: बड़ी परियोजनाओं के कारण होने वाले निर्वनीकरण से लोगों को विस्थापित होना पड़ सकता है।
- मानव-वन्यजीव संघर्ष में वृद्धि: वन्यजीवों के प्राकृतिक आवास सिकुड़ने से वे भोजन और आश्रय की तलाश में मानव बस्तियों की ओर आते हैं, जिससे संघर्ष बढ़ता है।
4. उत्तराखंड में वन स्थिति एवं संरक्षण के प्रयास
- वन स्थिति रिपोर्ट (ISFR): भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) द्वारा जारी ISFR 2021 के अनुसार, उत्तराखंड का कुल वन और वृक्षावरण क्षेत्र 25,306 वर्ग किलोमीटर है, जो राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 47.32% है। इसमें से वास्तविक ‘वन आवरण’ (Forest Cover) 24,305.13 वर्ग किलोमीटर (45.44%) है।
- चिपको आंदोलन (1970 का दशक): चमोली जिले से शुरू हुआ यह विश्व प्रसिद्ध आंदोलन पेड़ों को बचाने के लिए महिलाओं द्वारा उनसे चिपक जाने की अनूठी मिसाल है। गौरा देवी, सुंदरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट इसके प्रमुख प्रणेता रहे।
- वन पंचायतें: उत्तराखंड में वन पंचायतें सामुदायिक वन प्रबंधन का एक पारंपरिक और प्रभावी मॉडल रही हैं, जिन्हें कानूनी मान्यता भी प्राप्त है।
- सरकारी प्रयास: राज्य सरकार और केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न योजनाओं जैसे राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम (NAP), कैम्पा (CAMPA – Compensatory Afforestation Fund Management and Planning Authority) के माध्यम से वनीकरण और वन संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं।
- चुनौतियाँ: विकास की आवश्यकता और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन साधना एक प्रमुख चुनौती है। वनाग्नि, अवैध कटान, और मानव-वन्यजीव संघर्ष अभी भी गंभीर मुद्दे हैं।
5. निर्वनीकरण की रोकथाम, वन संरक्षण एवं प्रबंधन के उपाय
- सतत वन प्रबंधन (Sustainable Forest Management): वनों का इस प्रकार उपयोग करना कि उनकी उत्पादकता और पारिस्थितिक संतुलन बना रहे।
- वनीकरण एवं पुनर्वनीकरण: बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रम, विशेषकर निम्नीकृत वन भूमि पर। स्थानीय प्रजातियों को प्राथमिकता देना।
- वन कानूनों का सख्ती से प्रवर्तन: अवैध कटान और अतिक्रमण को रोकने के लिए कड़े कदम उठाना।
- सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा: वन पंचायतों को और सशक्त बनाना तथा स्थानीय समुदायों को वन संरक्षण में सक्रिय भागीदार बनाना। संयुक्त वन प्रबंधन (JFM) को प्रभावी बनाना।
- वनाग्नि की रोकथाम एवं प्रबंधन: पूर्व चेतावनी प्रणाली, अग्निशमन दलों का गठन, और सामुदायिक जागरूकता।
- ईंधन और चारे के वैकल्पिक स्रोतों को बढ़ावा: LPG, बायोगैस, और उन्नत चारा किस्मों को प्रोत्साहित करना ताकि वनों पर दबाव कम हो।
- पर्यावरण-अनुकूल विकास मॉडल: विकास परियोजनाओं का कठोर पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) और न्यूनतम वन क्षति सुनिश्चित करना।
- कृषि-वानिकी (Agroforestry) और सामाजिक वानिकी (Social Forestry) को प्रोत्साहन।
- प्रौद्योगिकी का उपयोग: रिमोट सेंसिंग और GIS का उपयोग वन आवरण की निगरानी, अवैध कटान का पता लगाने और वनाग्नि प्रबंधन में करना।
- जन जागरूकता एवं शिक्षा: वनों के महत्व और संरक्षण की आवश्यकता के बारे में लोगों को शिक्षित करना।
- उत्तराखंड वन विभाग और अन्य संबंधित एजेंसियों की क्षमता निर्माण।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड की पारिस्थितिकीय स्थिरता, आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक पहचान के लिए वनों का संरक्षण अत्यंत महत्वपूर्ण है। निर्वनीकरण की चुनौती का सामना करने के लिए एक बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें कठोर नीतिगत निर्णय, प्रभावी कार्यान्वयन, तकनीकी नवाचार और सबसे महत्वपूर्ण, जन-भागीदारी शामिल हो। सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने और भावी पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ पर्यावरण सुनिश्चित करने हेतु वन संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी।