उत्तराखंड, अपनी पर्वतीय स्थलाकृति, प्रचुर नदी प्रणालियों और मानसूनी जलवायु के कारण, बाढ़ (Floods) की विभिन्न घटनाओं के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। ये बाढ़ें न केवल विनाशकारी होती हैं बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण और सामाजिक जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं।
उत्तराखंड में बाढ़: एक विस्तृत अध्ययन
- बाढ़ का अर्थ है नदी जल स्तर का अपने सामान्य किनारों से ऊपर उठकर आस-पास के क्षेत्रों में फैल जाना।
- उत्तराखंड में मुख्य रूप से नदीय बाढ़ (Riverine Floods) और आकस्मिक बाढ़ (Flash Floods) देखी जाती हैं।
- मानसून (जून से सितंबर) के दौरान बाढ़ की घटनाएँ सर्वाधिक होती हैं।
- अत्यधिक वर्षा, बादल फटना, और हिमनदीय झील का फटना (GLOF) बाढ़ के प्रमुख प्राकृतिक कारण हैं।
- वनों की कटाई, नदी तल में अतिक्रमण, और अवैज्ञानिक निर्माण मानवीय कारक हैं जो बाढ़ की गंभीरता को बढ़ाते हैं।
1. बाढ़: परिभाषा एवं प्रकार
- परिभाषा: बाढ़ एक ऐसी प्राकृतिक घटना है जिसमें जल अपने सामान्य प्रवाह मार्ग या तटबंधों को पार कर शुष्क भूमि को जलमग्न कर देता है। यह जल की अधिकता के कारण होती है जो नदी, झील या अन्य जल निकायों की वहन क्षमता से अधिक हो जाती है।
- उत्तराखंड में बाढ़ के प्रमुख प्रकार:
- नदीय बाढ़ (Riverine Floods): यह तब आती है जब लंबे समय तक भारी वर्षा या बर्फ पिघलने से नदियों में जल की मात्रा अत्यधिक बढ़ जाती है और पानी किनारों को तोड़कर मैदानी इलाकों में फैल जाता है। यह अपेक्षाकृत धीमी गति से विकसित होती है।
- आकस्मिक बाढ़ (Flash Floods): यह बहुत कम समय (कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों) में अत्यधिक तीव्र वर्षा (जैसे बादल फटने से) या किसी प्राकृतिक बांध (जैसे भूस्खलन से बनी झील) के अचानक टूटने से उत्पन्न होती है। यह अत्यंत तीव्र और विनाशकारी होती है, विशेषकर पर्वतीय क्षेत्रों में।
- हिमनदीय झील के फटने से बाढ़ (GLOF – Glacial Lake Outburst Flood): हिमनदों के पिघलने से बनी झीलों के अस्थिर प्राकृतिक बांधों के टूटने से भारी मात्रा में जल और मलबा तेजी से नीचे की ओर बहता है, जिससे विनाशकारी बाढ़ आती है।
- शहरी बाढ़ (Urban Floods): शहरों में अपर्याप्त जल निकासी प्रणालियों के कारण कम समय में हुई भारी वर्षा से जलभराव की स्थिति। उत्तराखंड के कुछ शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में यह समस्या देखी जा सकती है।
2. उत्तराखंड में बाढ़ के कारण
क. प्राकृतिक कारण
- अत्यधिक मानसूनी वर्षा: दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान राज्य के कई हिस्सों में भारी और निरंतर वर्षा होती है, जिससे नदियों का जलस्तर बढ़ जाता है।
- बादल फटना: पर्वतीय क्षेत्रों में स्थानीयकृत तीव्र वर्षा (100 मिमी/घंटा से अधिक) से अचानक बाढ़ और भूस्खलन होते हैं।
- हिमनदों का पिघलना एवं GLOF: तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण हिमनदों के तेजी से पिघलने से नदियों में जल प्रवाह बढ़ता है और GLOF का खतरा उत्पन्न होता है।
- भूस्खलन द्वारा नदी मार्ग में अवरोध: भूस्खलन से नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, जिससे अस्थायी झीलें बनती हैं, जिनके टूटने से अचानक बाढ़ आती है।
- विवर्तनिक गतिविधियाँ: भूकंपीय घटनाओं से नदी मार्गों में परिवर्तन या भूस्खलन हो सकता है जो बाढ़ का कारण बन सकता है।
ख. मानवजनित कारण
- वनों की कटाई: वनों के विनाश से मृदा अपरदन बढ़ता है, जल अवशोषण क्षमता कम होती है और सतही अपवाह (runoff) तेज होता है, जिससे बाढ़ की संभावना बढ़ती है।
- अवैज्ञानिक भूमि उपयोग: नदी तटों और बाढ़ संभावित क्षेत्रों में अतिक्रमण, निर्माण और कृषि गतिविधियाँ।
- अनियोजित शहरीकरण एवं निर्माण: सड़कों, बांधों और अन्य अवसंरचनाओं का अवैज्ञानिक निर्माण प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों को बाधित करता है।
- नदी तल में गाद का जमाव: मृदा अपरदन और अन्य कारणों से नदियों के तल में गाद जमा होने से उनकी जल वहन क्षमता कम हो जाती है।
- जलवायु परिवर्तन: वैश्विक तापन के कारण वर्षा के पैटर्न में बदलाव और चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में वृद्धि।
- बांधों से अचानक पानी छोड़ा जाना: कभी-कभी बांधों के जलाशयों से सुरक्षा कारणों से या कुप्रबंधन के कारण अचानक बड़ी मात्रा में पानी छोड़ने से निचले इलाकों में बाढ़ आ जाती है।
3. बाढ़ के दुष्प्रभाव (उत्तराखंड के संदर्भ में)
- जान-माल की हानि: बाढ़ से मानव जीवन और पशुधन की भारी क्षति होती है। आकस्मिक बाढ़ में यह खतरा अधिक होता है।
- आधारभूत संरचना को क्षति: सड़कें, पुल, संचार लाइनें, बिजली आपूर्ति, स्कूल, अस्पताल और घर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो जाते हैं।
- कृषि भूमि एवं फसलों का विनाश: उपजाऊ मिट्टी बह जाती है, खेत जलमग्न हो जाते हैं और खड़ी फसलें नष्ट हो जाती हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा और आजीविका प्रभावित होती है।
- पर्यावरणीय क्षति: मृदा अपरदन, जैव विविधता की हानि, वनस्पति का विनाश, और जल स्रोतों का दूषित होना।
- स्वास्थ्य समस्याएँ: बाढ़ के बाद जलजनित बीमारियाँ (जैसे हैजा, टाइफाइड, डायरिया) फैलने का खतरा बढ़ जाता है।
- आर्थिक नुकसान: व्यापार, उद्योग, पर्यटन और समग्र अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। पुनर्निर्माण और पुनर्वास पर भारी व्यय होता है।
- सामाजिक विस्थापन एवं मनोवैज्ञानिक प्रभाव: लोगों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ता है, जिससे मनोवैज्ञानिक तनाव और सामाजिक अस्थिरता उत्पन्न होती है।
4. उत्तराखंड में प्रमुख बाढ़ प्रवण क्षेत्र एवं घटनाएँ
- प्रमुख बाढ़ प्रवण नदियाँ एवं घाटियाँ: गंगा, यमुना, अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, पिंडर, काली (शारदा), सरयू, कोसी, गौला, धौलीगंगा, ऋषिगंगा और इनकी सहायक नदियों की घाटियाँ।
- संवेदनशील जिले: चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़, बागेश्वर, टिहरी गढ़वाल, पौड़ी गढ़वाल, हरिद्वार, उधम सिंह नगर, नैनीताल के कई क्षेत्र।
- प्रमुख ऐतिहासिक बाढ़ घटनाएँ:
- 1894 बिरही बाढ़ (गौना झील फटने से): अलकनंदा घाटी में विनाशकारी बाढ़।
- 1970 अलकनंदा बाढ़: भारी वर्षा और भूस्खलन के कारण।
- 1978 भागीरथी बाढ़: कनोडिया गाड़ में भूस्खलन से बनी झील के टूटने से।
- 2010 बागेश्वर और अल्मोड़ा: बादल फटने और भारी वर्षा से बाढ़।
- 2013 केदारनाथ आपदा: मंदाकिनी और अलकनंदा नदियों में चौराबाड़ी ताल फटने और बादल फटने से आई प्रलयंकारी बाढ़, जिसमें हजारों लोगों की मृत्यु हुई और व्यापक तबाही हुई। यह राज्य की सबसे भीषण आपदाओं में से एक है।
- 2021 चमोली (ऋषिगंगा/धौलीगंगा) आपदा: GLOF/हिमस्खलन/भूस्खलन के कारण आकस्मिक बाढ़, जिससे ऋषिगंगा और तपोवन-विष्णुगाड जलविद्युत परियोजनाओं को भारी क्षति हुई।
- इसके अतिरिक्त, प्रतिवर्ष मानसून के दौरान विभिन्न छोटी-बड़ी बाढ़ और आकस्मिक बाढ़ की घटनाएँ होती रहती हैं।
5. बाढ़ प्रबंधन, न्यूनीकरण एवं तैयारी के उपाय
क. संरचनात्मक उपाय
- बांधों एवं जलाशयों का निर्माण: बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने और संग्रहीत करने के लिए (हालांकि पर्वतीय क्षेत्रों में बड़े बांधों के अपने पर्यावरणीय मुद्दे हैं)।
- तटबंधों (Embankments) एवं बाढ़ दीवारों (Flood Walls) का निर्माण: नदियों के किनारों को मजबूत करना ताकि पानी आबादी वाले क्षेत्रों में न फैले।
- नदी चैनलों में सुधार एवं ड्रेजिंग: नदियों की जल वहन क्षमता बढ़ाने के लिए गाद हटाना और चैनलों को गहरा व चौड़ा करना।
- चेक डैम एवं जलसंभर प्रबंधन संरचनाएँ: ऊपरी जलग्रहण क्षेत्रों में पानी के बहाव को धीमा करने और मृदा अपरदन को रोकने के लिए।
- उचित जल निकासी प्रणालियों का विकास: विशेषकर शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में।
ख. गैर-संरचनात्मक उपाय
- बाढ़ मैदान क्षेत्रीकरण (Flood Plain Zoning): बाढ़ के जोखिम के आधार पर भूमि उपयोग का निर्धारण और संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण को प्रतिबंधित करना।
- प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (Early Warning System): वर्षा, नदी जल स्तर और मौसम की स्थिति की निगरानी के लिए आधुनिक तकनीक (डॉप्लर रडार, स्वचालित मौसम स्टेशन, जल स्तर सेंसर) का उपयोग और समय पर चेतावनी जारी करना।
- वनीकरण एवं वाटरशेड विकास कार्यक्रम: जलग्रहण क्षेत्रों में व्यापक वृक्षारोपण और मृदा संरक्षण उपाय।
- आपदा प्रबंधन योजनाएँ: राज्य, जिला और स्थानीय स्तर पर व्यापक बाढ़ प्रबंधन और आकस्मिक योजनाओं का निर्माण और नियमित अद्यतन।
- जन जागरूकता एवं सामुदायिक तैयारी: स्थानीय समुदायों को बाढ़ के खतरों, सुरक्षा उपायों और बचाव कार्यों के बारे में शिक्षित और प्रशिक्षित करना। मॉक ड्रिल का आयोजन।
- क्षमता निर्माण: SDRF, पुलिस, और अन्य संबंधित विभागों के कर्मियों का प्रशिक्षण।
- बाढ़ बीमा को प्रोत्साहन।
- अंतर-राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग (सीमा पार नदियों के मामले में)।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड में बाढ़ एक गंभीर और आवर्ती आपदा है जो राज्य के विकास और इसके निवासियों की सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करती है। जलवायु परिवर्तन और अवैज्ञानिक विकास गतिविधियों ने इस समस्या को और बढ़ाया है। बाढ़ के जोखिम को कम करने के लिए एक समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, जिसमें उन्नत प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ, प्रभावी संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक उपाय, कड़े भू-उपयोग नियम, और सामुदायिक भागीदारी शामिल हों। सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के सिद्धांतों को अपनाकर ही उत्तराखंड बाढ़ जैसी आपदाओं का बेहतर ढंग से सामना कर सकता है और अपने नागरिकों के लिए एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकता है।