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वनाग्नि (Forest Fires)

उत्तराखंड में वनाग्नि (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

उत्तराखंड, अपनी विशाल वन संपदा और संवेदनशील पर्वतीय पारिस्थितिकी के कारण, वनाग्नि (Forest Fires) की घटनाओं के प्रति अत्यधिक प्रवण है। प्रतिवर्ष, विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में, वनाग्नि से न केवल बहुमूल्य वन संपदा और जैव विविधता को भारी क्षति पहुँचती है, बल्कि यह स्थानीय समुदायों की आजीविका और पर्यावरण संतुलन के लिए भी एक गंभीर खतरा उत्पन्न करती है।

उत्तराखंड में वनाग्नि: एक व्यापक परिप्रेक्ष्य

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • वनाग्नि का अर्थ है अनियंत्रित रूप से वनों में आग का फैलना।
  • उत्तराखंड में वनाग्नि की घटनाएँ मुख्यतः फरवरी से जून माह के बीच अधिक होती हैं, जब तापमान अधिक और आर्द्रता कम होती है।
  • चीड़ (पाइन) के वन वनाग्नि के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं क्योंकि इनकी पत्तियों (पिरूल) में रेजिन की मात्रा अधिक होती है और ये ज्वलनशील होती हैं।
  • लगभग 90% वनाग्नि की घटनाएँ मानवजनित होती हैं, चाहे जानबूझकर या लापरवाही से।
  • वनाग्नि से मृदा की उर्वरता में कमी, जल स्रोतों का सूखना, वायु प्रदूषण और वन्यजीवों के आवास का विनाश होता है।

1. वनाग्नि: परिभाषा एवं प्रकार

  • परिभाषा: वनाग्नि किसी भी वन या जंगली क्षेत्र में लगने वाली अनियंत्रित आग है जो प्राकृतिक या मानवजनित कारणों से उत्पन्न हो सकती है और तेजी से फैलकर वनस्पति, वन्यजीवों और पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाती है।
  • प्रकार:
    • सतही आग (Surface Fire): यह वन भूमि की सतह पर पड़े सूखे पत्तों, घास, झाड़ियों और गिरे हुए लकड़ी के टुकड़ों में लगती है। यह सबसे आम प्रकार है।
    • भूमिगत आग (Ground Fire): यह आग भूमि की सतह के नीचे जैविक पदार्थों (जैसे पीट या ह्यूमस) में सुलगती है। इसका पता लगाना और बुझाना कठिन होता है।
    • शिखराग्नि/मुकुट आग (Crown Fire): यह पेड़ों के ऊपरी हिस्सों (मुकुट या कैनोपी) में फैलती है और सबसे तीव्र तथा विनाशकारी होती है। यह अक्सर सतही आग के साथ मिलकर फैलती है।

2. उत्तराखंड में वनाग्नि के प्रमुख कारण

क. मानवजनित कारण (Anthropogenic Causes)

  • लापरवाही: जलती हुई बीड़ी, सिगरेट या माचिस की तीली फेंकना, कैंपफायर को ठीक से न बुझाना।
  • जानबूझकर आग लगाना:
    • नई घास के लिए: कुछ स्थानीय लोग मानते हैं कि आग लगाने से अगली बरसात में अच्छी और नई घास उगती है जो पशुओं के चारे के काम आती है।
    • अवैध कटान और शिकार को छिपाने के लिए।
    • भूमि पर अतिक्रमण करने के उद्देश्य से।
    • पिरूल (चीड़ की पत्तियाँ) को हटाने के लिए, क्योंकि यह अत्यधिक ज्वलनशील होती है।
  • कृषि गतिविधियाँ: खेतों में फसल अवशेषों को जलाना, जिसकी आग फैलकर पास के वनों तक पहुँच सकती है।
  • बिजली लाइनों से चिंगारी: उच्च तनाव वाली बिजली लाइनों के टकराने या शॉर्ट सर्किट से निकली चिंगारी।

ख. प्राकृतिक कारण (Natural Causes)

  • आकाशीय बिजली (Lightning): शुष्क मौसम में बिजली गिरने से आग लग सकती है, हालांकि यह मानवजनित कारणों की तुलना में कम आम है।
  • चट्टानों का घर्षण: पहाड़ी ढलानों पर चट्टानों के गिरने या आपस में टकराने से उत्पन्न चिंगारी (अत्यंत दुर्लभ)।
  • ज्वालामुखी गतिविधियाँ: उत्तराखंड में यह कारण लागू नहीं होता।

ग. सहायक कारक (Contributing Factors)

  • पिरूल का जमाव: चीड़ के वनों में सूखी पत्तियों (पिरूल) का अत्यधिक जमाव आग को तेजी से फैलाने में मदद करता है।
  • शुष्क मौसम और उच्च तापमान: ग्रीष्मकाल में लंबे समय तक सूखे की स्थिति और उच्च तापमान वनों को आग के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं।
  • कम आर्द्रता और तेज हवाएँ: ये कारक आग को तेजी से फैलने में मदद करते हैं।
  • जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा पैटर्न से वनाग्नि की घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि की आशंका।

3. वनाग्नि के दुष्प्रभाव (उत्तराखंड के संदर्भ में)

क. पारिस्थितिक दुष्प्रभाव

  • वन संपदा का विनाश: मूल्यवान वृक्ष, पौधे और जड़ी-बूटियाँ नष्ट हो जाती हैं।
  • जैव विविधता की हानि: वन्यजीवों की मृत्यु, उनके आवासों का विनाश, और सूक्ष्मजीवों की हानि।
  • मृदा अपरदन एवं पोषक तत्वों की कमी: आग से मिट्टी की ऊपरी परत जल जाती है, जिससे उसकी उर्वरता कम होती है और वर्षा के साथ मिट्टी का कटाव बढ़ जाता है।
  • जल स्रोतों पर प्रभाव: जलधाराओं और झरनों का सूखना, जल की गुणवत्ता में गिरावट।
  • वायु प्रदूषण: धुएं और हानिकारक गैसों (कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड) से वायु गुणवत्ता खराब होती है, जिससे श्वसन संबंधी समस्याएँ होती हैं।
  • कार्बन सिंक का नुकसान: वन कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं; उनके जलने से यह क्षमता कम होती है और संग्रहीत कार्बन वायुमंडल में मुक्त होता है।

ख. आर्थिक दुष्प्रभाव

  • वन आधारित आजीविका का नुकसान: लकड़ी, ईंधन, चारा, और गैर-काष्ठ वनोपजों पर निर्भर स्थानीय समुदायों की आय प्रभावित होती है।
  • पर्यटन पर प्रभाव: प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट होने से पर्यटन गतिविधियाँ प्रभावित हो सकती हैं।
  • सरकारी राजस्व की हानि: वन उत्पादों से मिलने वाले राजस्व में कमी।
  • अग्निशमन और पुनर्वास पर भारी व्यय।

ग. सामाजिक दुष्प्रभाव

  • स्वास्थ्य समस्याएँ: धुएं से आँखों में जलन, श्वसन संबंधी रोग।
  • मानव बस्तियों और संपत्ति को खतरा।
  • विस्थापन का खतरा (दुर्लभ मामलों में)।

4. उत्तराखंड में वनाग्नि प्रवण क्षेत्र

  • चीड़ (Pinus roxburghii) बहुल वन क्षेत्र: ये सर्वाधिक संवेदनशील हैं। मध्य हिमालय और शिवालिक क्षेत्र में विस्तृत।
  • गढ़वाल मंडल: पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी, चमोली जिले।
  • कुमाऊँ मंडल: नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत जिले।
  • विशेष रूप से कम ऊंचाई वाले और मध्यम ऊंचाई वाले वन (500 मीटर से 2000 मीटर) अधिक प्रभावित होते हैं।
  • सड़क किनारे के वन क्षेत्र भी मानवीय गतिविधियों के कारण अधिक संवेदनशील होते हैं।

5. वनाग्नि की रोकथाम, न्यूनीकरण एवं प्रबंधन के उपाय

क. पूर्व तैयारी एवं रोकथाम (Pre-Fire Season Preparedness and Prevention)

  • फायर लाइन (अग्नि रेखा) का निर्माण एवं रखरखाव: वनों में निश्चित चौड़ाई की पट्टियों से ज्वलनशील पदार्थों को हटाना ताकि आग एक हिस्से से दूसरे हिस्से में न फैले।
  • नियंत्रित दाह (Controlled Burning): अग्नि काल से पहले, विशेषज्ञों की देखरेख में संवेदनशील क्षेत्रों में ज्वलनशील पदार्थों (विशेषकर पिरूल) को नियंत्रित तरीके से जलाना।
  • पिरूल का एकत्रीकरण एवं उपयोग: पिरूल को एकत्रित कर उसका विभिन्न आर्थिक गतिविधियों (जैसे बायो-ब्रिकेट, बिजली उत्पादन, पैकिंग सामग्री) में उपयोग को बढ़ावा देना। पिरूल नीति का प्रभावी कार्यान्वयन।
  • जन जागरूकता अभियान: स्थानीय समुदायों, स्कूली बच्चों और पर्यटकों को वनाग्नि के कारणों, दुष्प्रभावों और रोकथाम के उपायों के बारे में शिक्षित करना।
  • प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण: वन विभाग के कर्मचारियों और स्थानीय स्वयंसेवकों को अग्निशमन तकनीकों का प्रशिक्षण देना।
  • मौसम पूर्वानुमान एवं चेतावनी प्रणाली: आग के मौसम के दौरान मौसम की स्थिति (तापमान, आर्द्रता, हवा की गति) की निरंतर निगरानी और चेतावनी जारी करना।

ख. आग लगने के दौरान प्रतिक्रिया (During Fire Incident)

  • त्वरित सूचना प्रणाली: आग लगने की सूचना तुरंत संबंधित अधिकारियों तक पहुँचाने के लिए प्रभावी संचार नेटवर्क (टोल-फ्री नंबर, मोबाइल ऐप)।
  • शीघ्र प्रतिक्रिया एवं अग्निशमन: प्रशिक्षित अग्निशमन दलों (फायर क्रू स्टेशन, मास्टर कंट्रोल रूम) द्वारा पारंपरिक और आधुनिक उपकरणों (फायर बीटर, ब्लोअर, पानी के टैंकर, हेलीकॉप्टर) का उपयोग कर आग बुझाना।
  • सामुदायिक भागीदारी: स्थानीय लोगों और वन पंचायतों का सहयोग लेना।
  • SDRF, NDRF, पुलिस और अन्य एजेंसियों के साथ समन्वय।

ग. आग लगने के बाद के उपाय (Post-Fire Measures)

  • नुकसान का आकलन: प्रभावित क्षेत्र, वनस्पति और वन्यजीवों को हुए नुकसान का वैज्ञानिक मूल्यांकन।
  • पुनर्वास एवं पुनरुद्धार: प्रभावित क्षेत्रों में वृक्षारोपण और पारिस्थितिक बहाली के कार्य।
  • घटना की जाँच: आग के कारणों का पता लगाना और भविष्य के लिए सबक सीखना।

घ. दीर्घकालिक रणनीतियाँ

  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: रिमोट सेंसिंग, GIS, और ड्रोन का उपयोग वनाग्नि की निगरानी, प्रारंभिक पहचान और प्रबंधन में। FSI द्वारा विकसित फायर अलर्ट सिस्टम।
  • शोध एवं विकास: वनाग्नि के विभिन्न पहलुओं पर अनुसंधान को बढ़ावा देना।
  • मिश्रित वनीकरण: चीड़ के स्थान पर चौड़ी पत्ती वाले स्थानीय प्रजातियों के रोपण को बढ़ावा देना।
  • वन प्रबंधन योजनाओं में वनाग्नि प्रबंधन को एकीकृत करना।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड में वनाग्नि एक आवर्ती और गंभीर पर्यावरणीय समस्या है, जिसके दूरगामी पारिस्थितिक, आर्थिक और सामाजिक परिणाम होते हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए एक समन्वित, बहु-आयामी और सतत दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सरकारी प्रयासों के साथ-साथ स्थानीय समुदायों की सक्रिय भागीदारी और आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रभावी उपयोग शामिल हो। वनों को ‘अग्नि-प्रूफ’ बनाना तो संभव नहीं, परन्तु ‘अग्नि-सुरक्षित’ बनाने की दिशा में निरंतर प्रयास आवश्यक हैं ताकि इस अमूल्य प्राकृतिक धरोहर को भविष्य के लिए संरक्षित किया जा सके।

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