उत्तराखंड, जिसे “देवभूमि” के साथ-साथ “वीरभूमि” भी कहा जाता है, की एक गौरवशाली सैन्य परम्परा रही है। यहाँ के निवासियों ने आदिकाल से ही अपनी मातृभूमि की रक्षा और राष्ट्र सेवा में अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया है। भारतीय सेना में उत्तराखंड के सैनिकों का योगदान अद्वितीय रहा है, और उन्हें उनकी वीरता के लिए अनेक राष्ट्रीय सम्मानों से विभूषित किया गया है।
उत्तराखंड की शौर्य परम्परा एवं पुरस्कार: एक सिंहावलोकन
- उत्तराखंड से भारतीय सेना में सैनिकों और अधिकारियों की संख्या देश में सर्वाधिक जनसंख्या अनुपात में से एक है।
- गढ़वाल राइफल्स और कुमाऊँ रेजिमेंट भारतीय सेना की दो सबसे प्रतिष्ठित और सम्मानित पैदल सेना रेजिमेंट हैं, जिनका उद्गम इसी क्षेत्र से हुआ है।
- उत्तराखंड के वीरों ने देश के लगभग सभी प्रमुख युद्धों और सैन्य अभियानों में भाग लिया है और अपनी वीरता का लोहा मनवाया है।
- राज्य के सैनिकों को परमवीर चक्र, महावीर चक्र, वीर चक्र, अशोक चक्र, कीर्ति चक्र और शौर्य चक्र जैसे सर्वोच्च वीरता पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
- मेजर सोमनाथ शर्मा, भारत के प्रथम परमवीर चक्र विजेता, कुमाऊँ रेजिमेंट से थे।
- उत्तराखंड के प्रथम थलसेना अध्यक्ष जनरल बिपिन चंद्र जोशी थे।
- उत्तराखंड के प्रथम नौसेना अध्यक्ष एडमिरल देवेंद्र जोशी थे।
1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
क. प्राचीन एवं मध्यकाल
प्राचीन काल से ही उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के निवासी अपनी स्वतंत्रता और सीमाओं की रक्षा के लिए संघर्षरत रहे। कत्यूरी और पंवार राजवंशों के समय भी स्थानीय योद्धाओं की वीरता की गाथाएँ प्रचलित हैं। तीलू रौतेली जैसी वीरांगनाओं ने भी शौर्य की अद्भुत मिसालें पेश कीं, जिन्हें ‘गढ़वाल की झाँसी की रानी’ भी कहा जाता है।
ख. ब्रिटिश काल और सैन्य रेजिमेंटों का गठन
- अंग्रेजों ने इस क्षेत्र के निवासियों की युद्ध कौशल और निष्ठा को पहचाना और उन्हें अपनी सेना में भर्ती करना प्रारंभ किया।
- कुमाऊँ रेजिमेंट (Kumaon Regiment):
- स्थापना: 1788 में हैदराबाद में निज़ाम की सेना के रूप में (रसेल ब्रिगेड), बाद में ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल। 27 अक्टूबर 1945 को इसका नाम कुमाऊँ रेजिमेंट किया गया।
- रेजिमेंटल सेंटर: रानीखेत, अल्मोड़ा (पहले आगरा में था)।
- युद्ध घोष: “कालिका माता की जय”, “बजरंग बली की जय”, “दादा किशन की जय”।
- विशेषता: यह भारतीय सेना की सबसे सुसज्जित रेजिमेंटों में से एक है। इसने दो परमवीर चक्र (मेजर सोमनाथ शर्मा, मेजर शैतान सिंह) और कई अन्य वीरता पुरस्कार जीते हैं।
- गढ़वाल राइफल्स (Garhwal Rifles):
- स्थापना: 5 मई 1887 को अल्मोड़ा में प्रथम बटालियन का गठन (कर्नल ई.पी. मेनवारिंग के नेतृत्व में), नवंबर 1887 में कालौं का डांडा (लैंसडाउन) में स्थानांतरित।
- रेजिमेंटल सेंटर: लैंसडाउन, पौड़ी गढ़वाल।
- युद्ध घोष: “बद्री विशाल लाल की जय”।
- विशेषता: प्रथम विश्व युद्ध में न्यू चैपल और द्वितीय विश्व युद्ध में कोहिमा जैसे युद्धों में असाधारण वीरता का प्रदर्शन। दरबान सिंह नेगी और गबर सिंह नेगी (विक्टोरिया क्रॉस विजेता) इसी रेजिमेंट से थे। 1921 में इसे ‘रॉयल’ की उपाधि मिली।
- अन्य सैन्य इकाइयाँ: गोरखा रेजिमेंट में भी उत्तराखंड के सैनिकों की महत्वपूर्ण उपस्थिति रही है।
ग. स्वातंत्र्योत्तर भारत में योगदान
स्वतंत्रता के बाद भी उत्तराखंड के सैनिकों ने 1947-48, 1962, 1965, 1971 के युद्धों और कारगिल संघर्ष (1999) के साथ-साथ विभिन्न आंतरिक सुरक्षा अभियानों और संयुक्त राष्ट्र शांति सेना मिशनों में अद्वितीय शौर्य और बलिदान का परिचय दिया है।
2. प्रमुख वीरता पुरस्कार एवं उत्तराखंड के प्राप्तकर्ता
भारतीय सशस्त्र सेनाओं में वीरता के लिए दो प्रकार के पुरस्कार दिए जाते हैं: युद्धकालीन वीरता पुरस्कार और शांतिकालीन वीरता पुरस्कार।
क. युद्धकालीन सर्वोच्च वीरता पुरस्कार
- परमवीर चक्र (Param Vir Chakra – PVC): भारत का सर्वोच्च सैन्य अलंकरण।
- मेजर सोमनाथ शर्मा (मरणोपरांत): 4थी बटालियन, कुमाऊँ रेजिमेंट। 3 नवंबर 1947 को भारत-पाक युद्ध (बड़गाम, कश्मीर) में असाधारण वीरता के लिए। भारत के प्रथम परमवीर चक्र विजेता।
- मेजर शैतान सिंह भाटी (मरणोपरांत): 13वीं बटालियन, कुमाऊँ रेजिमेंट। 18 नवंबर 1962 को भारत-चीन युद्ध (रेजांग ला, लद्दाख) में।
- महावीर चक्र (Maha Vir Chakra – MVC): दूसरा सर्वोच्च सैन्य अलंकरण।
- उत्तराखंड के अनेक सैनिकों को यह सम्मान प्राप्त हुआ है, जैसे लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान सिंह दानू (1948), लेफ्टिनेंट कर्नल बी.सी. जोशी (1971), ब्रिगेडियर के.एस. चंदपुरी (1971, लोंगेवाला युद्ध के नायक), सिपाही जसवंत सिंह रावत (मरणोपरांत, 1962, नूरानांग का युद्ध)।
- वीर चक्र (Vir Chakra – VrC): तीसरा सर्वोच्च सैन्य अलंकरण।
- उत्तराखंड के सैकड़ों सैनिकों को यह पुरस्कार मिला है, जो उनकी वीरता और समर्पण का प्रतीक है।
ख. शांतिकालीन सर्वोच्च वीरता पुरस्कार
- अशोक चक्र (Ashoka Chakra – AC): शांतिकाल में दिया जाने वाला सर्वोच्च वीरता पदक (परमवीर चक्र के समतुल्य)।
- हवलदार भवानी दत्त जोशी (मरणोपरांत): गढ़वाल राइफल्स, 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान वीरता के लिए।
- लेफ्टिनेंट नवदीप सिंह (मरणोपरांत): 2012 में जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद विरोधी अभियान में।
- मेजर सुधीर कुमार वालिया (मरणोपरांत): 9 पैरा (SF), 1999 में कुपवाड़ा में।
- कीर्ति चक्र (Kirti Chakra – KC): दूसरा सर्वोच्च शांतिकालीन वीरता पदक।
- उत्तराखंड के कई बहादुरों को यह सम्मान मिला है, जैसे मेजर अजय कोठियाल।
- शौर्य चक्र (Shaurya Chakra – SC): तीसरा सर्वोच्च शांतिकालीन वीरता पदक।
- अनेकों उत्तराखंडी सैनिकों को यह पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
ग. ब्रिटिश काल के प्रमुख वीरता पुरस्कार
- विक्टोरिया क्रॉस (Victoria Cross – VC): ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वोच्च वीरता पदक।
- नायक दरबान सिंह नेगी: 1/39वीं गढ़वाल राइफल्स, प्रथम विश्व युद्ध (23-24 नवंबर 1914, फेस्टुबर्ट, फ्रांस) में। यह सम्मान पाने वाले प्रथम भारतीय जीवित सैनिक।
- राइफलमैन गबर सिंह नेगी (मरणोपरांत): 2/39वीं गढ़वाल राइफल्स, प्रथम विश्व युद्ध (10 मार्च 1915, न्यू चैपल, फ्रांस) में।
3. शौर्य परम्परा का वर्तमान स्वरूप एवं सम्मान
- आज भी उत्तराखंड के युवा बड़ी संख्या में भारतीय सशस्त्र सेनाओं (थल सेना, नौसेना, वायु सेना) और अर्धसैनिक बलों में शामिल होकर देश सेवा कर रहे हैं।
- “हर घर फौजी” की कहावत कई गांवों में चरितार्थ होती है, जो यहाँ की सैन्य संस्कृति को दर्शाता है।
- राज्य सरकार द्वारा भी सैनिकों और भूतपूर्व सैनिकों के कल्याण के लिए विभिन्न योजनाएँ (जैसे सैनिक कल्याण बोर्ड का गठन, आरक्षण, वित्तीय सहायता) चलाई जाती हैं।
- देहरादून में स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) (1932 में स्थापित) विश्व के प्रतिष्ठित सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों में से एक है, जो भारतीय थल सेना को योग्य अधिकारी प्रदान करती है।
- रानीखेत में राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कॉलेज (RIMC) की एक शाखा (पूर्व में किंग जॉर्ज रॉयल इंडियन मिलिट्री स्कूल) भी सैन्य शिक्षा का महत्वपूर्ण केंद्र है।
- राज्य में विभिन्न स्थानों पर युद्ध स्मारक (War Memorials) और सैन्य संग्रहालय स्थापित किए गए हैं जो शहीदों की स्मृति और सैन्य इतिहास को सजीव रखते हैं, जैसे चीड़ बाग (देहरादून) स्थित युद्ध स्मारक, लैंसडाउन और रानीखेत में रेजिमेंटल संग्रहालय।
- शौर्य और बलिदान की यह परम्परा नई पीढ़ी को भी राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करती है। “उत्तराखंड शौर्य स्थल” (देहरादून) राज्य के सैन्य योगदान को समर्पित एक महत्वपूर्ण स्मारक है।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड की शौर्य परम्परा केवल इतिहास का विषय नहीं, बल्कि यह यहाँ के जनजीवन का एक अभिन्न अंग है। यहाँ के वीरों ने अपने रक्त और बलिदान से राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित रखा है और देश का गौरव बढ़ाया है। यह अटूट परम्परा, जिसमें साहस, समर्पण और राष्ट्रभक्ति कूट-कूट कर भरी है, भविष्य में भी उत्तराखंड और भारत को गौरवान्वित करती रहेगी।