उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त का इतिहास राज्य की प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक संरचना को समझने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। विभिन्न शासकों और प्रशासकों द्वारा समय-समय पर किए गए भूमि सर्वेक्षणों और बंदोबस्तों ने न केवल भू-राजस्व का निर्धारण किया, बल्कि भूमि पर काश्तकारों के अधिकारों को भी परिभाषित किया और भूमि अभिलेखों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया।
उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त: एक सिंहावलोकन
- भूमि बंदोबस्त का मुख्य उद्देश्य भूमि का सर्वेक्षण, वर्गीकरण, पैमाइश और भू-राजस्व का निर्धारण करना था।
- ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में कुल 11 प्रमुख भूमि बंदोबस्त हुए।
- विलियम ट्रेल को कुमाऊँ में व्यवस्थित भूमि बंदोबस्त का प्रणेता माना जाता है।
- बैटन और बेकेट के बंदोबस्त वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित माने जाते हैं।
- टिहरी रियासत में भी समय-समय पर भूमि बंदोबस्त किए गए।
- स्वतंत्रता के बाद, उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 के लागू होने से भूमि व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए।
1. ब्रिटिश काल में भूमि बंदोबस्त (Land Settlements during British Era)
ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद उत्तराखंड क्षेत्र में भू-राजस्व व्यवस्था को सुदृढ़ करने और भूमि अभिलेखों को व्यवस्थित करने के लिए कई महत्वपूर्ण भूमि बंदोबस्त किए गए।
क. कुमाऊँ में प्रमुख भूमि बंदोबस्त
- प्रथम बंदोबस्त (1815-16): ई. गार्डनर द्वारा। यह एक प्रारंभिक और संक्षिप्त व्यवस्था थी।
- दूसरा बंदोबस्त (1816-17): विलियम ट्रेल द्वारा।
- तीसरा बंदोबस्त (1817): विलियम ट्रेल द्वारा।
- चौथा बंदोबस्त (1818): विलियम ट्रेल द्वारा।
- पाँचवाँ बंदोबस्त (1820): विलियम ट्रेल द्वारा।
- छठा बंदोबस्त (1823) – ‘अस्सी साला बंदोबस्त’: विलियम ट्रेल द्वारा। यह संवत् 1880 (विक्रमी) में हुआ था, इसलिए इसे ‘अस्सी साला बंदोबस्त’ कहा जाता है। यह एक व्यवस्थित और विस्तृत बंदोबस्त था, जिसमें गाँवों की सीमाओं का निर्धारण किया गया।
- सातवाँ बंदोबस्त (1828): विलियम ट्रेल द्वारा।
- आठवाँ बंदोबस्त (1833): विलियम ट्रेल द्वारा।
- नौवाँ बंदोबस्त (1840-44) – ‘बीस साला बंदोबस्त’: जी.टी. बैटन द्वारा। यह 20 वर्षों के लिए किया गया था और इसमें भूमि की पैमाइश और वर्गीकरण पर ध्यान दिया गया।
- दसवाँ बंदोबस्त (1863-73) – ‘विकेट/बेकेट बंदोबस्त’: जी.ई. बेकेट द्वारा। यह पहला वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित बंदोबस्त माना जाता है। इसमें भूमि को पांच श्रेणियों (तलाऊँ, उपराऊँ अव्वल, उपराऊँ दोयम, इजरान, कंटिल) में वर्गीकृत किया गया।
- ग्यारहवाँ बंदोबस्त (1899-1903 या 1900-1909) – ‘पau बंदोबस्त’: ई.के.Pauw द्वारा। यह ब्रिटिश काल का अंतिम महत्वपूर्ण बंदोबस्त था।
ख. गढ़वाल में प्रमुख भूमि बंदोबस्त
ब्रिटिश गढ़वाल (पौड़ी गढ़वाल) में भी कुमाऊँ कमिश्नरी के अंतर्गत ही बंदोबस्त हुए।
- विलियम ट्रेल ने गढ़वाल में भी कई बंदोबस्त किए (लगभग 7)।
- 1840 में जी.टी. बैटन ने गढ़वाल का भी बंदोबस्त किया।
- 1863-73 का बेकेट बंदोबस्त गढ़वाल पर भी लागू हुआ।
- 1896 में ई.के.Pauw ने गढ़वाल का 11वाँ बंदोबस्त किया।
2. टिहरी रियासत में भूमि बंदोबस्त
टिहरी रियासत में ब्रिटिश उत्तराखंड से भिन्न प्रशासनिक व्यवस्था थी, और यहाँ के शासकों द्वारा अपने स्तर पर भूमि बंदोबस्त किए गए।
- प्रथम बंदोबस्त (1823): महाराजा सुदर्शन शाह द्वारा।
- दूसरा बंदोबस्त (1860): महाराजा भवानी शाह द्वारा।
- तीसरा बंदोबस्त (1873): महाराजा प्रताप शाह द्वारा (जुला पैमाइश के आधार पर)।
- चौथा बंदोबस्त (1903): महाराजा कीर्ति शाह द्वारा (डोरी पैमाइश)।
- पाँचवाँ बंदोबस्त (1924): महाराजा नरेन्द्र शाह द्वारा (भूमि को पांच प्रकारों – इजाजत, कमीणचारी, मुआफी, खास मुआफी, माफीदार में वर्गीकृत किया गया)। यह रियासत का अंतिम बंदोबस्त था।
3. भूमि बंदोबस्त की प्रमुख विशेषताएँ एवं प्रक्रिया
- भूमि की पैमाइश: भूमि को मापने के लिए विभिन्न इकाइयों (जैसे नाली, मुट्ठी, बीघा, एकड़) का प्रयोग किया जाता था। ट्रेल ने जरीब (लोहे की चेन) से भूमि मापन की शुरुआत की।
- भूमि का वर्गीकरण:
- सिंचाई सुविधा के आधार पर: तलाऊँ (सिंचित) और उपराऊँ (असिंचित)। उपराऊँ को पुनः अव्वल (उत्तम) और दोयम (मध्यम) में बाँटा गया।
- वन भूमि के पास की भूमि: इजरान।
- पथरीली और कम उपजाऊ भूमि: कंटील/कटील।
- घरों के पास की उपजाऊ भूमि: घरियां।
- गाँव के मध्य की भूमि: बिचौलिया।
- भू-राजस्व का निर्धारण: भूमि की उर्वरता, सिंचाई सुविधा और उपज के आधार पर भू-राजस्व (लगान) तय किया जाता था।
- भूमि अभिलेख तैयार करना: प्रत्येक गाँव के लिए खसरा, खतौनी और मानचित्र तैयार किए जाते थे, जिनमें भूमि के मालिक, क्षेत्रफल और लगान का विवरण होता था।
- अधिकारों का निर्धारण: काश्तकारों के विभिन्न प्रकार के अधिकारों (जैसे खायकर, सिरतान, पधान, थोकदार) को दर्ज किया जाता था।
4. स्वतंत्रता के पश्चात भूमि बंदोबस्त एवं सुधार
- स्वतंत्रता के बाद, उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 (जो 1 जुलाई 1952 से लागू हुआ) के तहत जमींदारी प्रथा समाप्त की गई और काश्तकारों को भूमिधर अधिकार दिए गए। (विस्तृत जानकारी के लिए “जमींदारी उन्मूलन” नोट्स देखें)।
- उत्तराखंड राज्य बनने के बाद, 12वाँ भूमि बंदोबस्त कराने की प्रक्रिया पर विचार किया गया, लेकिन यह अभी तक पूर्ण रूप से क्रियान्वित नहीं हो पाया है।
- डिजिटल इंडिया लैंड रिकॉर्ड्स मॉडर्नाइजेशन प्रोग्राम (DILRMP) के तहत भूमि अभिलेखों का कंप्यूटरीकरण और आधुनिकीकरण किया जा रहा है।
- समय-समय पर चकबंदी (Consolidation of Holdings) की भी मांग उठती रही है, विशेषकर मैदानी क्षेत्रों में, लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों की जटिलताओं के कारण यह चुनौतीपूर्ण है।
5. भूमि बंदोबस्त का महत्व एवं प्रभाव
- राजस्व व्यवस्था का आधार: भूमि बंदोबस्त राज्य के लिए भू-राजस्व का मुख्य स्रोत निर्धारित करते थे।
- भूमि अधिकारों की स्पष्टता: इससे भूमि पर विभिन्न वर्गों के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिली, हालांकि विवाद भी उत्पन्न हुए।
- कृषि विकास: व्यवस्थित भूमि अभिलेख और राजस्व निर्धारण ने कृषि में कुछ हद तक स्थिरता लाने का प्रयास किया।
- सामाजिक संरचना पर प्रभाव: भूमि स्वामित्व के पैटर्न ने ग्रामीण सामाजिक संरचना को प्रभावित किया।
- प्रशासनिक नियंत्रण: बंदोबस्त के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने क्षेत्र पर अपना प्रशासनिक नियंत्रण मजबूत किया।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड में भूमि बंदोबस्त का एक लंबा और महत्वपूर्ण इतिहास रहा है। चंद राजाओं से लेकर ब्रिटिश काल और स्वातंत्र्योत्तर भारत तक, इन बंदोबस्तों ने राज्य की भू-राजस्व प्रणाली, कृषि व्यवस्था और भूमि अधिकारों को आकार दिया है। वर्तमान में भी, भूमि अभिलेखों का आधुनिकीकरण और भूमि प्रबंधन की चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिनके समाधान के लिए निरंतर प्रयास आवश्यक हैं।