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भाषा-बोली (Language and Dialects)

उत्तराखंड की भाषा-बोली (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

उत्तराखंड, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक और नृजातीय विविधता के कारण, एक बहुरंगी भाषाई परिदृश्य प्रस्तुत करता है। यहाँ की भाषाएँ और बोलियाँ न केवल संचार का माध्यम हैं, बल्कि इस क्षेत्र की पहचान, इतिहास, परंपराओं और लोक-संस्कृति की जीवंत वाहक भी हैं।

उत्तराखंड की भाषा-बोली: एक सिंहावलोकन

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • उत्तराखंड की प्रथम राजभाषा हिन्दी है तथा द्वितीय राजभाषा संस्कृत (जनवरी 2010 से) है।
  • राज्य में मुख्य रूप से तीन भाषाई परिवारों की भाषाएँ/बोलियाँ मिलती हैं:
    • भारोपीय (आर्य) भाषा परिवार: हिन्दी, कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी आदि।
    • चीनी-तिब्बती (तिब्बती-बर्मी) भाषा परिवार: भोटिया बोलियाँ (जैसे रं, शौका, दारमिया, ब्यांसी, जाड़, मारछा, तोलछा)।
    • ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार: राजी जनजाति की ‘मुंडा’ बोली।
  • कुमाऊँनी और गढ़वाली मध्य पहाड़ी भाषाओं के अंतर्गत आती हैं। डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन ने इन्हें ‘पहाड़ी हिन्दी’ के रूप में वर्गीकृत किया था।
  • इन क्षेत्रीय भाषाओं की अपनी समृद्ध लोक साहित्य परंपरा है।
  • अधिकांश क्षेत्रीय बोलियाँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं।

1. राजभाषाएँ (Official Languages)

  • हिन्दी:
    • उत्तराखंड की प्रथम राजभाषा और संपर्क भाषा। शिक्षा, प्रशासन, मीडिया और दैनिक जीवन में व्यापक रूप से प्रयुक्त।
    • यहाँ बोली जाने वाली हिन्दी में स्थानीय बोलियों (कुमाऊँनी, गढ़वाली) का प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
  • संस्कृत:
    • जनवरी 2010 में संस्कृत को उत्तराखंड की द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया गया। ऐसा करने वाला यह भारत का पहला राज्य बना।
    • उत्तराखंड प्राचीन काल से संस्कृत विद्या का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। हरिद्वार, ऋषिकेश और अन्य स्थानों पर अनेक गुरुकुल और संस्कृत संस्थान हैं।
    • उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार संस्कृत के अध्ययन और शोध को बढ़ावा दे रहा है।

2. प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएँ/बोलियाँ (Major Regional Languages/Dialects)

उत्तराखंड की प्रमुख क्षेत्रीय भाषाएँ कुमाऊँनी और गढ़वाली हैं, जिनकी अनेक उपबोलियाँ विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित हैं।

क. कुमाऊँनी (Kumaoni)

  • यह कुमाऊँ मंडल में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है।
  • डॉ. ग्रियर्सन ने कुमाऊँनी को पूर्वी पहाड़ी के अंतर्गत वर्गीकृत किया था।
  • कुमाऊँनी भाषा में लगभग 10 स्वर और 31 व्यंजन माने जाते हैं।
  • प्रमुख उपबोलियाँ (विभिन्न वर्गीकरणों के अनुसार):
    • पूर्वी कुमाऊँनी वर्ग:
    • कुमैयाँ (काली कुमाऊँ, चम्पावत)
    • सोरियाली (सोर घाटी, पिथौरागढ़)
    • सिराली (सिरा क्षेत्र, डीडीहाट)
    • अस्कोटी (अस्कोट क्षेत्र)
    • पश्चिमी कुमाऊँनी वर्ग:
    • खसपर्जिया (अल्मोड़ा शहर और आसपास, बारह मंडल परगना) – इसे कुमाऊँनी की प्रतिनिधि बोली भी माना जाता है।
    • पछाईं (अल्मोड़ा का पश्चिमी भाग, पाली पछाऊँ)
    • गंगोला/गंगोई (गंगोलीहाट एवं दानपुर का कुछ भाग)
    • दानपुरिया (दानपुर क्षेत्र, बागेश्वर)
    • फल्दाकोटी (फल्दाकोट क्षेत्र, नैनीताल)
    • चौगर्खिया (चौगर्खा परगना, अल्मोड़ा-नैनीताल सीमा)
    • उत्तरी कुमाऊँनी वर्ग:
    • जोहारी (जोहार घाटी, मुनस्यारी) – इसमें तिब्बती प्रभाव भी है।
    • दक्षिणी कुमाऊँनी वर्ग:
    • रौ-चौभैंसी (नैनीताल का दक्षिण-पश्चिमी भाग, भाबर क्षेत्र) – इसमें मैदानी भाषाओं का प्रभाव अधिक है।

ख. गढ़वाली (Garhwali)

  • यह गढ़वाल मंडल में बोली जाने वाली प्रमुख भाषा है। इसका विकास भी शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है।
  • डॉ. ग्रियर्सन ने इसे मध्य पहाड़ी के अंतर्गत वर्गीकृत किया था।
  • गढ़वाली में ‘ळ’ (ल ध्वनि के विशिष्ट रूप) का विशेष प्रयोग होता है।
  • प्रमुख उपबोलियाँ (विभिन्न वर्गीकरणों के अनुसार):
    • श्रीनगरिया (श्रीनगर और आसपास का क्षेत्र) – इसे गढ़वाली की प्रतिनिधि बोली भी माना जाता है।
    • बधाणी (पिंडर नदी के ऊपरी क्षेत्र, बधाण परगना)
    • दसौलिया (दशोली परगना, चमोली)
    • मांझ-कुमैया (गढ़वाल और कुमाऊँ के सीमावर्ती क्षेत्र, अल्मोड़ा से लगा पौड़ी का भाग) – इसमें कुमाऊँनी का प्रभाव है।
    • नागपुरिया (नागपुर पट्टी, चमोली-रुद्रप्रयाग)
    • राठी (राठ क्षेत्र, पौड़ी)
    • सलाणी (सलाण क्षेत्र, पौड़ी)
    • टिहरियाली/गंगपरिया (टिहरी जिला, गंगा के आसपास का क्षेत्र)
    • माछला (उत्तरकाशी के कुछ भाग)
    • जौनपुरी (जौनपुर क्षेत्र, टिहरी) – यह जौनसारी से भिन्न है।

ग. जौनसारी (Jaunsari)

  • यह जौनसार-बावर (देहरादून) क्षेत्र में बोली जाती है।
  • यह पश्चिमी पहाड़ी भाषाओं के समूह से संबंधित है और इसमें संस्कृत तथा प्राकृत के कई शब्द मिलते हैं।
  • इसकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान है।

3. जनजातीय भाषाएँ/बोलियाँ (Tribal Languages/Dialects)

उत्तराखंड की जनजातियाँ अपनी विशिष्ट भाषाएँ और बोलियाँ बोलती हैं, जो चीनी-तिब्बती और ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवारों से संबंधित हैं।

  • भोटिया बोलियाँ (Bhotia Dialects):
    • ये चीनी-तिब्बती (तिब्बती-बर्मी) भाषा परिवार से संबंधित हैं।
    • प्रमुख बोलियाँ:
    • रं या शौका (रङ्काश): दारमा, व्यास, चौंदास घाटी (पिथौरागढ़)।
    • दारमिया: दारमा घाटी (पिथौरागढ़)।
    • ब्यांसी: ब्यास घाटी (पिथौरागढ़)।
    • जाड़ (रोम्बा): उत्तरकाशी (जाड़ गंगा घाटी)।
    • मारछा: माणा घाटी (चमोली)।
    • तोलछा: नीती घाटी (चमोली)।
    • इन बोलियों में तिब्बती भाषा का गहरा प्रभाव है।
  • राजी (बनरावतों की बोली) / मुंडा:
    • यह राजी जनजाति द्वारा बोली जाती है, जो मुख्यतः पिथौरागढ़ (धारचूला, कनालीछीना), चम्पावत जिलों में निवास करते हैं।
    • यह ऑस्ट्रो-एशियाटिक (मुंडा) भाषा परिवार से संबंधित मानी जाती है, हालांकि इसमें भी तिब्बती-बर्मी प्रभाव है।
    • यह अत्यंत संकटग्रस्त भाषा है और विलुप्ति के कगार पर है।
  • बुक्साड़ी (Buksari): बुक्सा जनजाति द्वारा बोली जाती है, जो मुख्यतः ऊधम सिंह नगर, नैनीताल और देहरादून जिलों में निवास करते हैं। इस पर भारोपीय भाषाओं का प्रभाव है।
  • थारू बोली (Tharu Dialect): थारू जनजाति द्वारा बोली जाती है, जो मुख्यतः ऊधम सिंह नगर जिले में निवास करते हैं। इस पर हिन्दी और स्थानीय बोलियों का मिश्रण होता है।

4. भाषाओं और बोलियों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु प्रयास

  • उत्तराखंड भाषा संस्थान:
    • स्थापना: 24 फरवरी 2009 (अनौपचारिक रूप से 2005)।
    • मुख्यालय: देहरादून।
    • उद्देश्य: राज्य की सभी भाषाओं और बोलियों (हिन्दी, संस्कृत, कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी, जनजातीय बोलियाँ आदि) के विकास, संरक्षण और प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करना।
  • कुमाऊँनी एवं गढ़वाली अकादमी: इन क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए।
  • उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार: संस्कृत भाषा के अध्ययन, शोध और प्रचार के लिए।
  • विश्वविद्यालयों में कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषा के विभाग स्थापित किए गए हैं, जहाँ इन भाषाओं में शिक्षण और शोध कार्य हो रहा है।
  • विभिन्न साहित्यिक संस्थाएँ, पत्रिकाएँ और प्रकाशक स्थानीय भाषाओं में लेखन को प्रोत्साहित कर रहे हैं।
  • लोक कलाकारों और साहित्यकारों को राज्य स्तरीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है।
  • आकाशवाणी और दूरदर्शन के क्षेत्रीय केंद्रों द्वारा भी स्थानीय बोलियों में कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है।
  • डिजिटल प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया भी इन भाषाओं के प्रचार-प्रसार में भूमिका निभा रहे हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड का भाषाई परिदृश्य इसकी सांस्कृतिक समृद्धि का परिचायक है। हिन्दी और संस्कृत के साथ-साथ कुमाऊँनी, गढ़वाली और अन्य क्षेत्रीय एवं जनजातीय बोलियों का संरक्षण और संवर्धन अत्यंत महत्वपूर्ण है। ये भाषाएँ न केवल संवाद का माध्यम हैं, बल्कि ये उत्तराखंड की पहचान, इतिहास और लोक-संस्कृति की अमूल्य धरोहर भी हैं। इनके संरक्षण और विकास के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है ताकि ये जीवंत बनी रहें और भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँच सकें।

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