उत्तराखंड का रहन-सहन यहाँ की भौगोलिक विविधता, सांस्कृतिक विरासत और सामाजिक संरचना का प्रतिबिंब है। पर्वतीय क्षेत्रों का कठिन जीवन और मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षाकृत सुगमता, दोनों ही यहाँ के निवासियों की जीवनशैली, आदतों और परंपराओं को प्रभावित करते हैं। आधुनिकता के प्रभाव के बावजूद, उत्तराखंड के लोग अपनी पारंपरिक जड़ों से जुड़े हुए हैं।
उत्तराखंड में रहन-सहन: एक सिंहावलोकन
- उत्तराखंड का रहन-सहन प्रकृति के साथ सामंजस्य पर आधारित रहा है।
- पारंपरिक आवास (जैसे पत्थर व लकड़ी के घर), वेशभूषा (जैसे पिछौड़ा, ऊनी वस्त्र), खान-पान (जैसे मंडुआ, झंगोरा, गहत) और सामाजिक रीति-रिवाज (जैसे हिलांश, पड़ाल) आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में जीवंत हैं।
- कृषि और पशुपालन पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका के मुख्य आधार रहे हैं, जबकि मैदानी क्षेत्रों में उद्योग और सेवा क्षेत्र का महत्व बढ़ा है।
- सामुदायिक भावना और आपसी सहयोग उत्तराखंडी समाज की विशेषता है। बैठकी होली और खड़ी होली जैसी परंपराएँ सामाजिक जुड़ाव को दर्शाती हैं।
- आधुनिक शिक्षा, संचार और परिवहन के साधनों ने जीवनशैली में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाए हैं।
1. आवास (Housing/Dwellings)
- पारंपरिक पर्वतीय घर:
- आमतौर पर पत्थर और लकड़ी (जैसे देवदार, तुन) से निर्मित होते थे, जो स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री है। दीवारों को मिट्टी और गोबर से लीपा जाता था।
- छतें ढलवा (स्लेट या पत्थर की पटालों – ‘पताल’ से) होती थीं ताकि बर्फ और बारिश का पानी आसानी से निकल सके।
- घर प्रायः दो या तीन मंजिला होते थे। निचली मंजिल (गोठ/छानी/खत्ता) पशुओं के लिए और ऊपरी मंजिलें (पांड़/भंडार और तिबारी/चौक) परिवार के रहने और अनाज भंडारण के लिए होती थीं।
- दीवारों पर ऐपण या अन्य लोक कलाओं (जैसे लिखाई) से अलंकरण किया जाता था। दरवाजों पर भी नक्काशी होती थी।
- आंगन (खोली/चौक/मुसो) सामाजिक गतिविधियों का केंद्र होता था।
- भूकंपरोधी तकनीक का भी पारंपरिक निर्माण में ध्यान रखा जाता था।
- मैदानी क्षेत्रों के घर:
- यहाँ पारंपरिक रूप से मिट्टी, ईंट और छप्पर का प्रयोग होता था, लेकिन अब पक्के मकान आम हैं।
- आधुनिक परिवर्तन:
- अब सीमेंट, कंक्रीट और लोहे का प्रयोग बढ़ा है।
- आधुनिक डिजाइन और सुविधाओं वाले मकान बन रहे हैं, लेकिन इससे पारंपरिक वास्तुशिल्प प्रभावित हुआ है।
2. वेशभूषा एवं आभूषण (Attire and Ornaments)
उत्तराखंड की पारंपरिक वेशभूषा और आभूषण यहाँ की सांस्कृतिक पहचान के महत्वपूर्ण अंग हैं।
- महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा:
- कुमाऊँ: घाघरा (लहंगा), आंगड़ी (चोली), पिछौड़ा (विशेष अवसरों पर), रंग्वाली पिछौड़ा (शुभ अवसरों पर)।
- गढ़वाल: आंगड़ी, गाती (साड़ी की तरह लपेटा जाने वाला वस्त्र), धोती (साड़ी)।
- सामान्य: ऊनी वस्त्र जैसे पंखी (सफेद ऊनी चादर), शॉल, लावा (मोटा ऊनी वस्त्र)।
- जनजातीय वेशभूषा: भोटिया महिलाएं च्यू, बाला, च्यूमाला, ज्युकु (कोट) पहनती हैं।
- पुरुषों की पारंपरिक वेशभूषा: धोती, कुर्ता, पाजामा, मिरजई (जैकेट), सदरी, ऊनी कोट, जवाहर कोट, टोपी (गढ़वाली या कुमाऊँनी)। भोटिया पुरुष रंगा (ऊनी चोगा) पहनते हैं।
- प्रमुख पारंपरिक आभूषण:
- गले में: हंसुली (चांदी का मोटा हार), गुलबंद (सोने या चांदी की पट्टियों पर मखमल चढ़ा), तिलहरी (तीन लड़ियों वाला हार), चर्यो (माला), कंठीमाला, लॉकेट, चंद्रहार।
- नाक में: नथ (बड़ी नथुली – सुहाग का प्रतीक), बुलाक (नाक के बीच में), फूली (लौंग)।
- कान में: मुर्खली/बाली (कुंडल), तुग्यल (टॉप्स), झुमके, कर्णफूल, गोरख (पुरुषों के)।
- हाथ में: पौंजी (कलाई का आभूषण), धागुले (कंगन), गुंठे, अंगूठी, चूड़ी।
- पैर में: पायल, बिछुए (पैरों की उंगलियों में), इमरती तार/झाँवर, पोंटा।
- माथे पर: मांगटीका, بندی, शीशफूल।
- कमर में: कमरबंद/तगड़ी।
- आधुनिक प्रभाव: शहरी क्षेत्रों और युवा पीढ़ी में आधुनिक पश्चिमी परिधानों का चलन बढ़ा है, लेकिन विशेष अवसरों और त्योहारों पर पारंपरिक वेशभूषा आज भी पहनी जाती है।
3. खान-पान (Food Habits)
उत्तराखंड का खान-पान यहाँ की भौगोलिक परिस्थितियों और उपलब्ध स्थानीय उत्पादों पर आधारित है। यह सादा, पौष्टिक और मौसमी होता है।
- प्रमुख अनाज: मंडुआ (रागी – रोटी, बाड़ी, दलिया), झंगोरा (साँवा – खीर, भात), गेहूँ (रोटी, पूरी), चावल (भात, जाथुक/जाथुकिया)।
- दालें: गहत (कुलथ – फाणू, डुबके, रसभात), भट्ट (काला सोयाबीन – डुबके, चुड़कानी), उड़द (चैंसू), मसूर, राजमा (विशेषकर मुनस्यारी का)।
- सब्जियाँ एवं साग: स्थानीय मौसमी सब्जियाँ, कंदमूल (जैसे गडेरी, तिमुल), सिसूण/बिच्छू घास का साग, लिंगुड़ा (फर्न), कंडाली का साग।
- विशेष व्यंजन:
- कुमाऊँ: अरसा (मीठा पकवान), रोट (मीठी रोटी), সিঙ্গोड़ी (पत्ते में लिपटी मिठाई), बाल मिठाई (अल्मोड़ा की प्रसिद्ध), रस भात, आलू के गुटके, भट की चुरकाणी, कफली (पालक और लाई का साग), झोई/झोली (कढ़ी जैसा)।
- गढ़वाल: चैंसू (भट्ट की दाल), फाणू (गहत की दाल), कोदा/मंडुआ की बाड़ी, झंगोरे की खीर, तिल की चटनी, काफली, पल्यो (छाछ की कढ़ी)।
- घी, दूध, दही, छाछ का भोजन में महत्वपूर्ण स्थान।
- आधुनिक खान-पान का प्रभाव शहरों में अधिक है, लेकिन पारंपरिक व्यंजन आज भी विशेष अवसरों और घरों में शौक से बनाए और खाए जाते हैं।
4. सामाजिक जीवन एवं सामुदायिक भावना
- संयुक्त परिवार प्रणाली: परंपरागत रूप से संयुक्त परिवार का महत्व रहा है, जो अब एकल परिवारों में बदल रहा है। परिवार में वरिष्ठ सदस्यों का सम्मान किया जाता है।
- सामुदायिक सहयोग (हिलांश/पड़ाल/सरवाड़): कृषि कार्यों, घर निर्माण, विवाह और अन्य सामाजिक अवसरों पर आपसी सहयोग और श्रमदान की भावना प्रबल रही है।
- ग्राम पंचायतें एवं थोकदारी/पधान व्यवस्था: पारंपरिक रूप से गाँवों में स्थानीय स्वशासन और न्याय व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं।
- धार्मिक सहिष्णुता: विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के लोग शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहते हैं।
- त्योहार और मेले: ये सामाजिक मेलजोल, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और मनोरंजन के प्रमुख अवसर होते हैं। (जैसे हरेला, फूलदेई, उत्तरायणी मेला, नंदा देवी राजजात)।
- आतिथ्य: मेहमानों का आदर-सत्कार (“अतिथि देवो भवः”) उत्तराखंडी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
- भिटौली: चैत्र मास में विवाहिता कन्याओं को उनके मायके वालों द्वारा भेंट (उपहार) देने की परंपरा।
5. आर्थिक गतिविधियाँ एवं आजीविका
- पर्वतीय क्षेत्र:
- मुख्यतः कृषि (सीढ़ीदार खेती), पशुपालन (दूध, ऊन, मांस), बागवानी (फल, सब्जियाँ) पर निर्भर।
- वनोपज संग्रहण (जड़ी-बूटी, शहद, लकड़ी) भी आजीविका का एक साधन रहा है।
- पर्यटन (धार्मिक, साहसिक, इको-टूरिज्म) और हस्तशिल्प (ऊनी वस्त्र, काष्ठ शिल्प, रिंगाल उत्पाद) आय के महत्वपूर्ण स्रोत बन रहे हैं।
- मैदानी क्षेत्र:
- सघन कृषि (गन्ना, गेहूँ, चावल), उद्योग (विनिर्माण, फार्मास्यूटिकल्स) और सेवा क्षेत्र (व्यापार, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य) प्रमुख हैं।
- सेना में सेवा: उत्तराखंड के युवाओं का भारतीय सेना और अर्धसैनिक बलों में शामिल होना एक प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण आजीविका का विकल्प रहा है।
- आधुनिक व्यवसायों और स्वरोजगार की ओर भी रुझान बढ़ रहा है, विशेषकर पर्यटन और आईटी क्षेत्र में।
6. मनोरंजन एवं उत्सव
- लोक संगीत और नृत्य: ये मनोरंजन के साथ-साथ सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के भी माध्यम हैं। (जैसे झुमैलो, बाजूबंद, झोड़ा, चांचरी, छोलिया, हारुल, पांडव नृत्य, मंडाण)।
- लोकगाथाएँ और कथाएँ: जागर, पँवाड़े और अन्य लोक कथाएँ मनोरंजन के साथ-साथ नैतिक शिक्षा भी देती हैं। आंणे-पखाणे (पहेलियाँ) भी मनोरंजन का साधन हैं।
- मेले और त्योहार: ये धार्मिक और सामाजिक आयोजनों के साथ मनोरंजन और व्यापार के भी केंद्र होते हैं।
- पारंपरिक खेल: कुछ स्थानीय खेल जैसे गुल्ली-डंडा, बाघ-बकरी, कंचे आदि प्रचलित रहे हैं, हालांकि आधुनिक खेलों का प्रभाव बढ़ा है।
- आधुनिक मनोरंजन के साधन: टेलीविजन, सिनेमा, इंटरनेट और मोबाइल फोन ने मनोरंजन के तरीकों में बदलाव लाया है।
7. आधुनिकता का प्रभाव एवं चुनौतियाँ
- सकारात्मक प्रभाव:
- शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार।
- संचार और परिवहन के बेहतर साधन।
- रोजगार के नए अवसर और जीवन स्तर में सुधार।
- सूचना प्रौद्योगिकी तक पहुँच और बाहरी दुनिया से जुड़ाव।
- नकारात्मक प्रभाव एवं चुनौतियाँ:
- पलायन: बेहतर अवसरों की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से युवाओं का पलायन, जिससे गाँव खाली हो रहे हैं (घोस्ट विलेज)।
- पारंपरिक ज्ञान और संस्कृति का ह्रास: आधुनिक जीवनशैली के प्रभाव से पारंपरिक मूल्यों, भाषा-बोली और प्रथाओं में कमी।
- पर्यावरणीय चुनौतियाँ: अनियोजित शहरीकरण और विकास से पर्यावरण पर दबाव।
- सामाजिक बदलाव: संयुक्त परिवारों का टूटना और एकल परिवारों की वृद्धि, व्यक्तिवाद का बढ़ना।
- बाजार अर्थव्यवस्था का बढ़ता प्रभाव और उपभोक्तावाद।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड का रहन-सहन परंपरा और आधुनिकता का एक अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करता है। यहाँ के लोग अपनी सांस्कृतिक जड़ों से गहराई से जुड़े हुए हैं, साथ ही वे विकास और प्रगति की ओर भी अग्रसर हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की विशिष्ट जीवनशैली और मैदानी क्षेत्रों की गतिशीलता, दोनों मिलकर राज्य के सामाजिक ताने-बाने को समृद्ध बनाते हैं। भविष्य में पारंपरिक मूल्यों को सहेजते हुए सतत विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना उत्तराखंड के लिए महत्वपूर्ण होगा, ताकि यहाँ की अद्वितीय पहचान बनी रहे और लोग समृद्ध जीवन जी सकें।