उत्तराखंड का मध्यकालीन इतिहास लगभग 7वीं-8वीं शताब्दी ईस्वी से लेकर 19वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ तक फैला हुआ है। इस काल में कई महत्वपूर्ण राजवंशों ने शासन किया, जिन्होंने राज्य की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचना को आकार दिया।
1. कार्तिकेयपुर राजवंश (Kartikeyapur Dynasty)
यह मध्य हिमालय का प्रथम ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है।
1.1. स्थापना और विस्तार
- काल: लगभग 700 ई. से 1050 ई. तक।
- संस्थापक: इस वंश के प्रथम परिवार का संस्थापक बसन्तदेव था।
- राजधानी: प्रारंभिक राजधानी जोशीमठ के दक्षिण में कार्तिकेयपुर नामक स्थान पर थी। दूसरी राजधानी अल्मोड़ा के कत्यूर घाटी में बैजनाथ के पास बैद्यनाथ-कार्तिकेयपुर में थी।
- शासक: इस वंश के प्रथम तीन परिवार के 14 नरेशों ने प्रायः 300 वर्ष तक शासन किया।
- अभिलेख: इस वंश के अभी तक 9 अभिलेख प्राप्त हुए, जिसमें कुटिला लिपि का प्रयोग हुआ है।
- राजभाषा: संस्कृत, लोकभाषा पाली।
1.2. प्रमुख शासक और घटनाएँ
- बसन्तदेव:
- परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की।
- जोशीमठ में नृसिंह मंदिर का निर्माण करवाया।
- खर्परदेव: कन्नौज के राजा यशोवर्मन के समकालीन था।
- त्रिभुवन राज: खर्परदेव वंश का अंतिम शासक। व्याघेश्वर मंदिर के लिए भूमि दान की।
- निम्बर: द्वितीय परिवार का संस्थापक। शैव धर्म मानने वाला।
- इष्टगण देव: कार्तिकेयपुर राजवंश का प्रथम शासक जिसने समस्त उत्तराखंड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। जागेश्वर में नवदुर्गामहिषामर्दिनी, लकुलीश तथा नटराज के मंदिर बनवाये।
- ललितसूर देव: कत्यूरी वंश का सबसे प्रतापी एवं शौर्यवान शासक। पांडुकेश्वर ताम्रपत्र में कलिकलंकपंक में मग्न धरती उद्धार के लिए बराहवतार के समान बताया गया। सर्वाधिक ताम्रपात्र इन्हीं के प्राप्त हुए।
- भूदेव: ललितसूर देव का पुत्र। बौद्ध धर्म का विरोधी था। बैजनाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
- इच्छरदेव: सलोड़ादित्य वंश का संस्थापक।
- सुभिक्षराजदेव: सलोड़ादित्य वंश का अंतिम शासक और कार्तिकेयपुर का अंतिम कत्यूरी शासक (14वां शासक)।
- आदिगुरू शंकराचार्य का आगमन: कार्तिकेयपुर राजवंश के शासन काल में आदिगुरू शंकराचार्य का आगमन राज्य में हुआ। उन्होंने 820 ई. में केदारनाथ में देह त्यागा।
1.3. प्रशासन
- भूमि मापन अधिकारी: प्रमवातार।
- चिट्ठी ले जाने वाला कर्मचारी: गमागमि (डाकिया)।
- अपराधियों को पकड़ने वाला सर्वोच्च अधिकारी: दोषापराधिक।
- गुप्तचर विभाग का सर्वोच्चाधिकारी: दुःसाध्यसाधनिक।
- तहसील स्तर की प्रशासनिक इकाई: कर्मान्त।
- राजमिस्त्री: कारिका।
- पुलिस विभाग के बड़े अधिकारी: दण्डपाशिक, दण्डनायक व महादण्डनायक।
- आय के प्रमुख साधन: कृषि, वन एवं खनिज सम्पदा।
1.4. कार्तिकेयपुर राजवंश का पतन
- इस वंश के पतन का मुख्य कारण आंतरिक कलह और बाह्य आक्रमण थे।
- नेपाल के राजा अशोकचल्ल ने 1191 ई. में कत्यूरी राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया था।
- दुलू या नेपाल शासक क्राच्लदेव ने 1223 ई. में कत्यूरी राज्य को अपने अधिकार में ले लिया।
- पतन के बाद कत्यूरी साम्राज्य कई छोटी-छोटी शाखाओं में विभाजित हो गया, जैसे बैजनाथ-कत्यूर, पाली पछाऊँ, अस्कोट, सीरा, डोटी आदि।
2. कुमाऊँ का चंद राजवंश (Chand Dynasty of Kumaon)
कत्यूरी शासन के अवसान पर कुमाऊँ में चंद वंश का उदय हुआ।
2.1. स्थापना और प्रारंभिक शासक
- संस्थापक: सोमचंद। अनुमानतः 1020 से 1025 ई. के बीच।
- मूल निवास: प्रयाग में गंगापार झूसी।
- राजधानी: प्रारंभिक राजधानी चंपावत में चंपावती नदी के तट पर स्थित राजबुंगा किले में। बाद में अल्मोड़ा राजधानी बनायी गयी।
- किलेदार: सोमचंद ने चार किलेदार नियुक्त किए – कार्की, बोरा, तड़ागी एवं चौधरी (जिन्हें चाराल या चारआल कहते थे)।
- प्रथम स्वतंत्र शासक: थोहरचंद (कुछ इतिहासकारों के अनुसार)।
2.2. प्रमुख शासक और घटनाएँ
- इंद्रचंद: नेपाल मार्ग से चीन के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किए। रेशम उत्पादन व रेशमी वस्त्र बनाने का कार्य प्रारंभ किया।
- गरूड़ ज्ञानचंद: 1365 ई. से 1420 ई. तक शासन किया। दिल्ली दरबार जाने वाला पहला चंद शासक। दिल्ली का सुल्तान फिरोजशाह तुगलक था, जिसने ज्ञानचंद को गरुड़ की उपाधि दी और तराई का क्षेत्र सौंपा।
- उद्यानचंद: चंपावत में बालेश्वर का मंदिर बनवाया।
- भारतीचंद: 1437 ई. से 1477 ई. तक शासन किया। चंद वंश का सबसे पराक्रमी व साहसी राजा। डोटी की दासता से छुटकारा पाने के लिए डोटी राज्य पर आक्रमण किया और 1451-52 ई. में विजय प्राप्त की। डोटी अभियान के तहत नायक जाति की उत्पत्ति हुई।
- रत्नचंद: पहला चंद शासक जिसने भूमि बंदोबस्त का कार्य किया एवं जिंदा केतल नामक भूमिबंदोबस्त अधिकारी की नियुक्ति की।
- कीर्तिचंद: गढ़वाल शासक अजयपाल को पराजित किया।
- भीष्मचंद: खगमरा किले का निर्माण कराया एवं आलमनगर की नींव डाली।
- बालो कल्याण चंद: अल्मोड़ा में लालमंडी किले का निर्माण करवाया।
- रूद्रचंद: 1565 ई. से 1597 ई. तक शासन किया। अकबर का समकालीन। 1587 ई. में अकबर की अधीनता स्वीकार की। तराई में रूद्रपुर नगर की एवं अल्मोड़ा में मल्ला महल की स्थापना की। सामाजिक व्यवस्था सुधार के लिए त्रैवर्णिक धर्म-निर्णय नामक पुस्तक लिखवाई। विश्व इतिहास का प्रथम शासक जिसने स्वयं मल्ल युद्ध में उतरकर राज्य का प्रसार किया था।
- लक्ष्मीचंद: 1597 ई. में गद्दी पर बैठा। जहांगीरनामा में इसे सबसे धनी शासक कहा गया है। गढ़वाल पर 7 बार असफल आक्रमण किया। न्योवाली व विष्टावली नामक कचहरियां बनायीं। बागेश्वर के बागनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार 1602 में किया।
- बाजबहादुर चंद: 1638 ई. से 1677 ई. तक शासन किया। चरवाहे से राजा बनने वाला एकमात्र चंद शासक। मुगल बादशाह शाहजहाँ ने इसे बहादुर व जमींदार की उपाधि दी। तराई क्षेत्र में बाजपुर नगर की स्थापना की। गढ़वाल से नंदादेवी की मूर्ति लाकर अल्मोड़ा किले में स्थापित की। तिब्बत पर अभियान करके हुणियों का दमन किया। 1673 में कैलास मानसरोवर के तीर्थ यात्रियों के लिए गूंठ भूमि दान की। कुमाऊँ में जजिया कर लगाने वाला एकमात्र चंद राजा था। पिथौरागढ़ के थल में एक हथिया देवाल बनवाया।
- उद्योत चंद: 1678 ई. से 1698 ई. तक शासन किया। बधाण गढ़ का किला जीता। त्रिपुरा सुंदरी मंदिर एवं पार्वतीश्वर मंदिर अल्मोड़ा में बनवाया। डोटी पर आक्रमण किया और 1683 ई. में नेपाल की ग्रीष्मकालीन राजधानी अजमेरगढ़ पर अधिकार किया।
- ज्ञानचंद द्वितीय: बधाण गढ़ से नंदादेवी की स्वर्ण प्रतिमा अल्मोड़ा के नंदादेवी मंदिर में स्थापित की।
- जगतचंद: इनके समय को कुमाऊँ का स्वर्ण काल माना जाता है (1708 ई. से 1720 ई. तक)। 1000 गाय दान की थी जिस कारण इसे गोसहस्त्रदान कहते थे।
- देवीचंद: 1720 ई. से 1726 ई. तक शासन किया। विक्रमादित्य बनने के चक्कर में काफी धन बर्बाद किया जिस कारण उसे कुमाऊँ का विक्रमादित्य और कुमाऊँ का मुहम्मद तुगलक भी कहा जाता है।
- कल्याण चंद चतुर्थ: इनके समय 1743-1745 ई. को कुमाऊँ पर रूहेलों का आक्रमण हुआ।
- दीपचंद: 1748 ई. में शासक बना। इनके समय पानीपत का तीसरा युद्ध (1761 ई.) हुआ, जिसमें मुगल बादशाह के कहने पर मराठों के विरुद्ध सैन्य टुकड़ी भेजी।
- प्रद्युम्न शाह: 1779 ई. से 1786 ई. तक कुमाऊँ की गद्दी पर बैठा।
- महेन्द्रचंद: अंतिम चंद शासक। 1790 ई. में हवालबाग के युद्ध में गोरखों से पराजित होकर मारा गया।
2.3. प्रशासन और अर्थव्यवस्था
- राजा: सर्वोच्च शासक एवं प्रधान न्यायाधीश।
- भू-राजस्व: राज्य की समस्त भूमि राजा के अधीन होती थी। गल्ला छहाड़ा (उपज का 6वां भाग) वसूल किया जाता था।
- कर: 36 प्रकार के राजकर थे, जिन्हें छतीसी कहते थे। प्रमुख कर: सिरती (नकद), ज्यूलिया (नदी पुलों पर), राखिया (रक्षाबंधन), मांगा (युद्ध), टांड (बुनकरों से), मिझारी (कामगारों से), कनक कर (शौका व्यापारियों से स्वर्ण धूल के रूप में)।
- भूमि माप: नाली, ज्यूला, अधाली व मसा।
- न्याय: न्योवाली व विष्टावली नामक कचहरियां।
- प्रशासनिक इकाइयाँ: राज्य-मंडल-देश-परगने-गखें-गाँव।
2.4. चंद काल के प्रमुख किले
- लालमंडी किला: अल्मोड़ा में 1563 ई. में कल्याण चंद द्वारा निर्मित। इसे फोर्ट मोयरा भी कहते हैं।
- खगमरा किला: अल्मोड़ा में भीष्मचंद ने बनाया था।
- मल्ला महल किला: अल्मोड़ा में रूद्रचंद द्वारा निर्मित।
- राजबुंगा किला: चंपावत में सोमचंद ने बनवाया।
- नैथड़ा किला: अल्मोड़ा में गोरखाकालीन।
- सिरमोही किला: लोहाघाट, चंपावत।
- बाणासुर किला: चंपावत, स्थानीय नाम मारकोट।
- गोल्ला चौड़: चंपावत में राजा गोरिल ने बनवाया।
2.5. चंद वंश का पतन
- चंद वंश का पतन आंतरिक कलह, अयोग्य शासकों, और बाहरी आक्रमणों (विशेषकर गोरखाओं) के कारण हुआ।
- 1790 ई. में गोरखाओं ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर अंतिम चंद शासक महेन्द्रचंद को पराजित किया और कुमाऊँ पर अधिकार कर लिया।
3. गढ़वाल का परमार/पंवार वंश (Parmar/Panwar Dynasty of Garhwal)
प्राचीन काल में गढ़वाल क्षेत्र छोटे-छोटे 52 गढ़ों में विभक्त था।
3.1. स्थापना और प्रारंभिक शासक
- संस्थापक: कनकपाल। चांदपुर गढ़ में परमार वंश की नींव पड़ी।
- प्रथम अभिलेख: 1455 ई. का राजा जगतपाल का अभिलेख, देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर से प्राप्त।
- कुल शासक: पंवार वंश में कुल 60 शासक हुए।
3.2. प्रमुख शासक और घटनाएँ
- अजयपाल: गढ़वाल के परमार वंश का 37वां राजा। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें पंवार वंश का संस्थापक माना। 52 गढ़ों को जीता। राजधानी चांदपुर गढ़ से देवलगढ़ (1512 ई.) और फिर श्रीनगर (1517 ई.) स्थानांतरित की। धुली पाथा मापतौल का प्रचलन किया। इन्हें गढ़वाल का अशोक, गढ़वाल का बिस्मार्क एवं गढ़वाल का नेपोलियन भी कहा जाता है। गोरखनाथ पंथ का अनुयायी था।
- सहजपाल: मुगल शासक अकबर के समकालीन।
- बलभद्र शाह: पहले राजा जिन्होंने अपने नाम के आगे शाह की उपाधि धारण की। 1581 ई. में ग्वालदम का युद्ध बलभद्र शाह व रूद्रचंद के बीच हुआ, जिसमें रूद्रचंद की पराजय हुई।
- मानशाह: 1591 ई. से 1611 ई. तक शासन किया। पश्चिम तिब्बत का दापा प्रांत जीता। दरबार में कवि भरत रहता था जिसने मानोदय काव्य की रचना की।
- श्यामशाह: 1611 ई. से 1630 ई. तक शासन किया। जहाँगीरनामा में उल्लेख मिलता है। पहला परमार शासक जिसका चित्र मिलता है। इनकी मृत्यु के पश्चात 60 रानियां सती हुई थीं।
- महिपति शाह: श्यामशाह की कोई संतान न होने के कारण शासक बना। इन्हें गढ़वाल में गर्वभंजन कहा गया। मुगल लेखों में इसे अक्खड राजा कहा गया। रोटी सूची प्रथा का प्रारंभ किया। सेनापति: माधो सिंह भंडारी, रिखोला लोदी और बनवारी दास।
- रानी कर्णावती: महिपति शाह की पत्नी। 1635 ई. में शाहजहाँ के सेनापति नवाजत खां ने दून घाटी पर आक्रमण किया, तब रानी कर्णावती ने मुगल सैनिकों को पकड़कर उनके नाक कटवा दिए थे, तब से उन्हें नाक कटनी रानी कहते हैं। देहरादून में करनपुर नगर बसाया।
- पृथ्वीपति शाह: 1640 ई. में राज्यभिषेक हुआ। देहरादून में पृथ्वीपुर नामक शहर बसाया। मुगल शहजादा सुलेमान शिकोह को शरण दी।
- फतेह शाह: 1665 ई. से 1716 ई. तक शासन किया। इन्हें गढ़वाल का शिवाजी और गढ़वाल का अकबर भी कहा जाता है। दरबार में नवरत्न रहते थे। गुरु गोविंद सिंह के साथ भैंगणी का युद्ध (1689 ई.) हुआ। गुरु रामराय को अपने दरबार में बुलाया और देहरादून में गुरुद्वारा बनाने में मदद की।
- प्रदीप शाह: 1717 ई. से 1772 ई. तक शासन किया। इनके समय 1743 ई. में कुमाऊँ पर रूहेला आक्रमण अली मोहम्मद के नेतृत्व में हुआ। मौलाराम तोमर को संरक्षण प्रदान किया।
- ललितशाह: 1772 ई. में गद्दी पर बैठा। 1779 ई. में बग्वाली पोखर का युद्ध ललितशाह व मोहनसिंह के बीच हुआ।
- जयकृत शाह: 1780 ई. से 1785 ई. तक शासन किया। सिक्ख आक्रमणों से बचने के लिए राखी नामक कर देता था। 1786 ई. में श्री रघुनाथ मंदिर में अपने जीवन का अंत कर दिया।
- प्रद्युम्न शाह: 1786 ई. से 1804 ई. तक शासन किया। गढ़वाल व कुमाऊँ का संयुक्त शासक। 1803 ई. में गढ़वाल में भयंकर भूकंप आया और उस समय गोरखों ने अमर सिंह थापा व हस्तीदल चौतरिया के नेतृत्व में आपदा ग्रस्त गढ़वाल पर आक्रमण किया। 14 मई 1804 ई. को खुड़बुडा के मैदान में वीरगति को प्राप्त हो गए। इन्हें गढ़वाल का हुमायूँ कहा जाता है।
3.3. प्रशासन और भू-व्यवस्था
- सर्वोच्च अधिकारी: गढ़ नरेश।
- दीवान/वजीर: राज्य की आंतरिक व्यवस्था एवं नीतियों का निर्धारण।
- प्रशासनिक इकाइयाँ: ठाणा-परगना-पट्टियां-ग्राम।
- भू-स्वामित्व: राजा में निहित।
- भू-स्वामित्व हस्तांतरण: संकल्प (विद्वान ब्राह्मणों को), रौत (वीरता प्राप्त सैनिकों को), जागीर (राज्य अधिकारियों को)।
- किसान: आसामी (खायकर, सिरतान, मौरूसीदार)।
- कर: कृषि उपज का एक तिहाई (तिहाड़), अधिक उर्वरता वाली भूमि पर आधा भाग (अधेल)।
- मापतौल: धुली पाथा (अजयपाल द्वारा प्रचलित)।
3.4. गढ़वाल के 52 गढ़ (52 Garhs of Garhwal)
- अजयपाल से पहले गढ़वाल का क्षेत्र छोटे-छोटे 52 गढ़ों में विभक्त था, जिनका शासक भड़ या गढ़पति हुआ करते थे।
- प्रमुख गढ़:
- चांदपुर गढ़: पंवार राजाओं की प्रथम राजधानी। चमोली के आदि बद्री के आसपास। अंतिम गढ़पति भानुप्रताप या सोनपाल।
- लोहाब गढ़: नेगी जाति से संबंधित।
- नागपुर गढ़: चमोली जिले में नागनाथ पोखरी के मंदाकिनी नदी क्षेत्र में। अंतिम गढ़पति भजन सिंह।
- कंडारा गढ़: मंदाकिनी उपत्यका में। अंतिम गढ़पति मंगल सेन।
- बधाण गढ़: पिंडर नदी क्षेत्र पर स्थित। चंद एवं पंवार वंश की विभाजक सीमा पर।
- मनीला गढ़: दूधातौली पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित। कत्यूरियों से संबंधित।
- देवलगढ़: पौड़ी गढ़वाल में श्रीनगर के पास। अजयपाल ने राजधानी बनाई।
- उप्पू गढ़: टिहरी-उत्तरकाशी मार्ग पर। गढ़पति कफ्फू चौहान (इन्होंने अजयपाल के सामने सिर कटा दिया लेकिन झुकाया नहीं था)।
- मौलिया या रमोली गढ़: टिहरी के सेम-मुखेम क्षेत्र में। गढ़पति गंगू रमोला।
- कफ्फू चौहान: उप्पू गढ़ के सरदार। अजयपाल का अंतिम युद्ध उप्पू गढ़ पर ही था। अजयपाल ने स्वयं कफ्फू चौहान को मुखाग्नि दी थी।
जीतू बगड़वाल: बगुड़ी गाँव टिहरी का निवासी। लोकगाथाओं में उसकी खुद की तांबे की खान होने का वर्णन मिलता है।
4. उत्तराखंड में गोरखा शासन (Gorkha Rule in Uttarakhand)
गोरखाओं ने उत्तराखंड पर लगभग 18वीं शताब्दी के अंत से 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक शासन किया।
4.1. कुमाऊँ में गोरखा शासन
- आक्रमण: जनवरी 1790 में अमर सिंह थापा, हस्तीदल चौतरिया व शूरवीर थापा के नेतृत्व में।
- युद्ध: 1790 ई. को हवालाबाग में महेन्द्र चंद व गोरखों के बीच हुए साधारण युद्ध में महेन्द्रचंद पराजित हुआ।
- शासनकाल: 1790 ई. से 1815 ई. तक (25 वर्ष)।
- निमंत्रण: कुमाऊँ पर आक्रमण का न्यौता हर्षदेव जोशी ने दिया।
- प्रथम सूबेदार/सुब्बा: जोगा मल्ल शाह (1791-92 ई.)।
- भूमि बंदोबस्त: जोगा मल्ल शाह ने कुमाऊँ में पहला भूमि बंदोबस्त कराया और प्रत्येक बालिग व्यक्ति से 1 रुपया मांगा राजकर (Poll Tax) लिया।
4.2. गढ़वाल में गोरखा शासन
- आक्रमण: 1803 ई. में अमर सिंह थापा व हस्तिदल चौतरिया के नेतृत्व में आपदा ग्रस्त गढ़वाल पर आक्रमण किया।
- खुड़बुडा युद्ध: 14 मई 1804 ई. को खुड़बुडा के मैदान में प्रद्युम्न शाह वीरगति को प्राप्त हो गए।
- शासनकाल: 1804 ई. से 1815 ई. तक (10.5 वर्ष)।
- प्रशासक: हस्तिदल शाह ने गढ़वाल में गोरखा प्रशासक के रूप में कार्य किया।
- गोरख्याली: उत्तराखंड में गोरखा शासन को गोरख्याली कहा जाता है।
4.3. गोरखा शासन की प्रशासनिक व्यवस्था
- प्रशासन: फौजी शासन जो सूबेदार के अधीन होता था।
- मुख्य हथियार: खुकरी।
- न्याय: न्याय एवं मुकदमों का कार्य देखने वाला अधिकारी विचारी होता था। सच व झूठ का पता करने के लिए दिव्य नामक अग्नि परीक्षा करायी जाती थी (गोला दीप, कढ़ाई दीप, तराजू दीप)।
- कर:
- कुसही: ब्राह्मणों पर लगाया जाने वाला कर।
- पुंगाड़ी: भूमि कर।
- टींका भेंट: शादी व विवाह के समय लिया जाने वाला कर।
- मांगा: प्रत्येक नौजवान से 1 रुपया लिया जाता था (युद्ध के समय भी)।
- टांड (तान): हिंदू व भोटिया बुनकरों से।
- मिझारी: शिल्पकर्मियों व जागरिया ब्राह्मणों से।
- मौंकर: प्रतिपरिवार पर लगने वाला 2 रुपया कर (घरही पिछही)।
- घीकर: दुधारू पशुओं पर।
- पगड़ी/पगरी: जमीन या जायदाद हस्तांतरण के लिए।
4.4. आंग्ल-नेपाल युद्ध (Anglo-Nepalese War)
- कारण: गोरखपुर के बुटवल प्रांत में ईस्ट इंडिया कंपनी से गोरखों द्वारा 200 ग्राम छीनना।
- युद्ध की घोषणा: लॉर्ड हेस्टिंग्स (लॉर्ड मौयरा) ने 1 नवंबर 1814 को गोरखों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की।
- प्रमुख घटनाएँ:
- देहरादून के कलंगा किले/नालापानी किले पर हमला हुआ, जहाँ गोरखा सैनिकों का नेतृत्व बलभद्र सिंह थापा कर रहा था।
- 31 अक्टूबर 1814 ई. को ब्रिटिश सेनापति जिलेस्पी नालापानी दुर्ग में मारा गया।
- 23 अप्रैल 1815 को गणनाथ-डांडा के युद्ध में गोरखा सेनापति हस्तीदल चौतरिया मारा गया।
- 27 अप्रैल 1815 में ब्रिटिश सेनापति गार्डनर व गोरखा सूबेदार बमशाह के बीच संधि हुई, जिसके तहत गोरखों को कुमाऊँ छोड़ने का प्रस्ताव था।
- 15 मई 1815 ई. को मलॉवगढ़ की संधि अमर सिंह थापा व ऑक्टरलोनी के बीच हुई।
- संगोली की संधि: 2 दिसंबर 1815 ई. को गजराज मिश्र के साथ कर्नल ब्रेदशॉ ने संधि की। 4 मार्च 1816 ई. को नेपाल सरकार ने इसे स्वीकार किया।
- परिणाम: टिहरी रियासत सुदर्शन शाह को प्रदान की गई और शेष क्षेत्र को नॉन-रेगुलेशन प्रांत बनाया गया।
5. निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड का मध्यकालीन इतिहास विभिन्न शक्तिशाली राजवंशों और उनकी शासन प्रणालियों का एक जटिल ताना-बाना प्रस्तुत करता है। कार्तिकेयपुर राजवंश ने एक सुदृढ़ प्रशासनिक और सांस्कृतिक नींव रखी, जिसके बाद चंद और परमार/पंवार राजवंशों ने अपने-अपने क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान दिया। गोरखा शासन, हालांकि अल्पकालिक और कठोर था, ने भी राज्य की सामाजिक और राजनीतिक संरचना पर गहरा प्रभाव डाला। इस काल के दौरान निर्मित मंदिर, किले और प्रशासनिक सुधार उत्तराखंड की समृद्ध विरासत का प्रमाण हैं, जो आधुनिक राज्य के विकास की आधारशिला बने। आंग्ल-नेपाल युद्ध और संगोली की संधि ने इस मध्यकालीन युग का अंत किया और ब्रिटिश शासन की नींव रखी।
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