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उत्तराखंड में पलायन (Migration in Uttarakhand)

उत्तराखंड में पलायन (विस्तृत UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

उत्तराखंड में पलायन एक गंभीर सामाजिक-आर्थिक समस्या है, विशेषकर राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में। बेहतर रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की तलाश में लोगों का ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों और राज्य से बाहर अन्य महानगरों की ओर प्रवास निरंतर जारी है। यह प्रवृत्ति राज्य के संतुलित विकास और जनसांख्यिकीय संरचना के लिए एक बड़ी चुनौती प्रस्तुत करती है।

उत्तराखंड में पलायन: एक सिंहावलोकन

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • उत्तराखंड में पलायन मुख्यतः पर्वतीय क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों की ओर तथा राज्य से बाहर अन्य विकसित शहरों की ओर होता है।
  • “घोस्ट विलेज” (जनविहीन या भुतहा गाँव) की अवधारणा पलायन की गंभीरता को दर्शाती है। ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग की 2018-2022 की रिपोर्ट (मार्च 2023 में जारी) के अनुसार, राज्य में ऐसे गांवों की संख्या बढ़कर 1,792 हो गई है। 2011 की जनगणना में 1048 गाँव शून्य आबादी वाले थे।
  • पौड़ी गढ़वाल और अल्मोड़ा जिले पलायन से सर्वाधिक प्रभावित जिलों में से हैं। पलायन आयोग की एक अंतरिम रिपोर्ट के अनुसार, पौड़ी गढ़वाल के 112 और अल्मोड़ा के 80 गांवों में पिछले 10 वर्षों में 50% से अधिक जनसंख्या में गिरावट देखी गई।
  • पलायन के प्रमुख कारणों में रोजगार के अवसरों की कमी (लगभग 50%), शिक्षा सुविधाओं का अभाव (लगभग 15.2%), स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और कृषि का अलाभकारी होना शामिल हैं (स्रोत: पलायन निवारण आयोग रिपोर्ट)।
  • राज्य सरकार द्वारा पलायन को रोकने और रिवर्स माइग्रेशन (विपरीत पलायन) को प्रोत्साहित करने के लिए ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग (पूर्व में पलायन आयोग) का गठन सितंबर 2017 में किया गया।
  • पलायन आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 2018 से 2022 के बीच 3.3 लाख से अधिक लोगों ने राज्य के विभिन्न हिस्सों से पलायन किया, जिसमें लगभग 3 लाख अस्थायी और 28,631 स्थायी पलायन था। यह 2008-2018 के दशक (औसत 50,272 प्रति वर्ष) की तुलना में वार्षिक पलायन दर में वृद्धि (औसत 83,960 प्रति वर्ष) दर्शाता है।
  • नवीनतम पीएलएफएस (PLFS) 2023-24 के अनुसार, उत्तराखंड में 15-29 आयु वर्ग में बेरोजगारी दर घटकर 9.8% हो गई है (पहले 14.2%) और समग्र बेरोजगारी दर 4.3% है (पहले 4.5%)। हालांकि, ये आंकड़े राष्ट्रीय औसत से थोड़े अधिक हो सकते हैं।

1. पलायन के प्रकार एवं पैटर्न (Types and Patterns of Migration)

  • स्थायी पलायन (Permanent Migration): जब व्यक्ति या परिवार अपने मूल निवास स्थान को छोड़कर स्थायी रूप से किसी अन्य स्थान पर बस जाते हैं।
  • अस्थायी/मौसमी पलायन (Temporary/Seasonal Migration): जब लोग कुछ समय के लिए रोजगार या अन्य कारणों से प्रवास करते हैं और फिर वापस लौट आते हैं (जैसे पर्यटन या निर्माण क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक)।
  • ग्रामीण से शहरी पलायन (Rural to Urban Migration): यह उत्तराखंड में सबसे आम पैटर्न है, जहाँ लोग ग्रामीण क्षेत्रों से देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी जैसे शहरी केंद्रों की ओर जाते हैं।
  • अंतर-जिला पलायन (Intra-district Migration): एक ही जिले के भीतर ग्रामीण से छोटे कस्बों या जिला मुख्यालय की ओर। 2018-2022 के बीच लगभग 76.9% पलायन राज्य के भीतर हुआ।
  • अंतर-राज्यीय पलायन (Inter-state Migration): राज्य से बाहर दिल्ली, मुंबई, चंडीगढ़ जैसे महानगरों की ओर।
  • अंतर्राष्ट्रीय पलायन (International Migration): शिक्षा या रोजगार के लिए विदेश जाने वाले युवाओं की संख्या भी बढ़ रही है, हालांकि यह सीमित है।

2. पलायन के प्रमुख कारण (Major Causes of Migration)

क. अपकर्ष कारक (Push Factors) – जो लोगों को मूल स्थान छोड़ने पर विवश करते हैं

  • रोजगार के अवसरों की कमी: पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि के अतिरिक्त रोजगार के सीमित अवसर। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, कृषि क्षेत्र राज्य के GSDP में केवल 10.6% का योगदान देता है, जबकि लगभग 47.4% कार्यबल इसी पर निर्भर है (PLFS 2022-23), जो निम्न उत्पादकता और प्रच्छन्न बेरोजगारी को दर्शाता है।
  • कृषि का अलाभकारी होना: छोटी और बिखरी जोतें, सिंचाई की कमी, जंगली जानवरों द्वारा फसल को नुकसान, विपणन सुविधाओं का अभाव।
  • शिक्षा सुविधाओं का अभाव: गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों की कमी। पलायन निवारण आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षा पलायन का दूसरा सबसे बड़ा कारण (15.2%) है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि राज्य के 12,065 प्राथमिक विद्यालयों में से 1,149 में शिक्षक नहीं हैं और लगभग आधे में प्रधानाचार्य नहीं हैं। 3,504 स्कूलों में सभी कक्षाओं के लिए केवल एक शिक्षक है।
  • स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी: विशेषीकृत चिकित्सा सुविधाओं और डॉक्टरों की अनुपलब्धता, विशेषकर दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्रों में।
  • आधारभूत संरचना की कमी: सड़क, बिजली, पानी, संचार जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव या निम्न गुणवत्ता।
  • प्राकृतिक आपदाओं का भय: भूस्खलन, बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं से जीवन और संपत्ति का खतरा।
  • सामाजिक पिछड़ापन और सीमित सामाजिक गतिशीलता।

ख. अभिकर्ष कारक (Pull Factors) – जो लोगों को गंतव्य स्थान की ओर आकर्षित करते हैं

  • बेहतर रोजगार के अवसर: शहरी क्षेत्रों और अन्य राज्यों में विविध और अधिक आय वाले रोजगार की उपलब्धता।
  • उच्च शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण की बेहतर सुविधाएँ।
  • बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ और चिकित्सा सुविधाएँ।
  • बेहतर जीवन स्तर और आधुनिक सुविधाएँ: मनोरंजन, परिवहन, संचार आदि।
  • सामाजिक गतिशीलता और व्यक्तिगत विकास के अधिक अवसर।

3. पलायन के परिणाम (Consequences of Migration)

क. सकारात्मक परिणाम (Positive Consequences)

  • प्रेषित धन (Remittances): प्रवासियों द्वारा अपने परिवारों को भेजा गया धन ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
  • कौशल और ज्ञान का प्रवाह: बाहर से लौटे कुछ प्रवासी अपने साथ नया कौशल और अनुभव लाते हैं (विशेषकर कोविड-19 के दौरान रिवर्स माइग्रेशन में देखा गया)।
  • जनसंख्या दबाव में कमी: कुछ क्षेत्रों में संसाधनों पर जनसंख्या का दबाव कम होता है।
  • सामाजिक परिवर्तन: नए विचारों और आधुनिक दृष्टिकोण का प्रसार।

ख. नकारात्मक परिणाम (Negative Consequences)

  • जनसांख्यिकीय असंतुलन: पर्वतीय क्षेत्रों में युवा और कार्यशील जनसंख्या की कमी, जिससे केवल वृद्ध और महिलाएँ ही गाँवों में रह जाती हैं।
  • “घोस्ट विलेज” (Ghost Villages): कई गाँवों का जनविहीन या लगभग खाली हो जाना। पलायन आयोग के अनुसार, 2018-2022 के बीच 24 और गाँव खाली हो गए, जिससे कुल संख्या 1,792 तक पहुँच गई। पौड़ी और अल्मोड़ा जिलों में यह समस्या विशेष रूप से गंभीर है।
  • कृषि भूमि का बंजर होना: श्रम शक्ति की कमी और कृषि के अलाभकारी होने के कारण उपजाऊ भूमि बंजर हो रही है।
  • पारंपरिक ज्ञान और संस्कृति का ह्रास: युवा पीढ़ी के पलायन से स्थानीय लोक कला, परंपराएँ और पारंपरिक ज्ञान लुप्त हो रहे हैं।
  • शहरी क्षेत्रों पर दबाव: पलायन से शहरी क्षेत्रों में आवास, पानी, स्वच्छता और परिवहन जैसी सुविधाओं पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। नीति आयोग ने भी शहरी क्षेत्रों में तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण जल निकासी जैसी समस्याओं को उजागर किया है।
  • सामाजिक विघटन: परिवारों का टूटना और वृद्धों की देखभाल की समस्या।
  • क्षेत्रीय असंतुलन में वृद्धि: मैदानी क्षेत्र और अधिक विकसित हो रहे हैं जबकि पर्वतीय क्षेत्र पिछड़ रहे हैं। सीमावर्ती गांवों से पलायन राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चिंता का विषय है।
  • शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव: पलायन निवारण आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, कई स्कूलों में छात्रों की संख्या नगण्य है (8,324 कक्षाओं में केवल एक छात्र, 19,643 कक्षाओं में शून्य नामांकन), जिससे शिक्षा की गुणवत्ता और संसाधनों का उचित उपयोग प्रभावित होता है।

4. पलायन रोकने और रिवर्स माइग्रेशन हेतु सरकारी पहल एवं नीतियाँ

  • ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग (पूर्व में पलायन आयोग):
    • गठन: सितंबर 2017 में पलायन आयोग के रूप में, 2020 में नाम परिवर्तित।
    • मुख्यालय: पौड़ी।
    • उद्देश्य: पलायन के कारणों का अध्ययन करना, रोकने के उपाय सुझाना और रिवर्स माइग्रेशन को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियाँ बनाना। आयोग ने शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका पर कई रिपोर्ट और सिफारिशें प्रस्तुत की हैं।
  • मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना (MMSY) एवं नैनो उद्यम योजना: ग्रामीण और पर्वतीय क्षेत्रों में युवाओं को स्थानीय स्तर पर रोजगार और स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना।
  • होमस्टे योजना: पर्यटन के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के अवसर सृजित करना।
  • कृषि एवं बागवानी विकास योजनाएँ: कृषि विविधीकरण, जैविक खेती, उच्च मूल्य वाली फसलों को बढ़ावा देकर कृषि को लाभकारी बनाना।
  • कौशल विकास कार्यक्रम: स्थानीय युवाओं को बाजार की मांग के अनुरूप कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना।
  • पर्वतीय क्षेत्रों में आधारभूत संरचना का विकास: सड़क, बिजली, पानी, संचार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार।
  • “मेरा गाँव, मेरा धन” जैसी स्थानीय पहलों को प्रोत्साहन।
  • 13 जिले 13 नए पर्यटन गंतव्य योजना: स्थानीय पर्यटन को बढ़ावा देकर रोजगार सृजन।
  • कोविड-19 के दौरान लौटे प्रवासियों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और पुनर्वास योजनाएँ।
  • नीति आयोग की बैठकों में उत्तराखंड सरकार द्वारा लिफ्ट सिंचाई योजनाओं को PM कृषि सिंचाई योजना में शामिल करने और शहरी जल निकासी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर योजना बनाने का अनुरोध किया गया है।

5. पलायन को रोकने हेतु सुझाव

  • पर्वतीय क्षेत्रों के लिए विशेष आर्थिक पैकेज और विकास योजनाओं का प्रभावी एवं समयबद्ध क्रियान्वयन।
  • स्थानीय संसाधनों पर आधारित उद्योगों (जैसे वनोपज, हर्बल, हस्तशिल्प, पर्यटन, कृषि-प्रसंस्करण) को क्लस्टर आधारित दृष्टिकोण से बढ़ावा देना।
  • शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता में व्यापक सुधार और उनकी पहुँच दूरस्थ क्षेत्रों तक सुनिश्चित करना; शिक्षकों और डॉक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
  • कृषि को लाभकारी बनाने के लिए विपणन, प्रसंस्करण, भंडारण और सिंचाई सुविधाओं का व्यापक विकास।
  • सामुदायिक भागीदारी और स्थानीय स्वशासन संस्थाओं (पंचायतों) को विकास प्रक्रिया में और अधिक सशक्त बनाना।
  • रिवर्स माइग्रेशन करने वाले युवाओं को उद्यम स्थापित करने के लिए विशेष प्रोत्साहन, तकनीकी सहायता और बाजार संपर्क प्रदान करना।
  • पर्वतीय क्षेत्रों में कनेक्टिविटी (डिजिटल और भौतिक) में सुधार।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन और आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर विशेष ध्यान।
  • पलायन निवारण आयोग की सिफारिशों (जैसे शिक्षकों के लिए अलग स्थानांतरण नीति, ग्रामीण शिक्षकों को अतिरिक्त वेतन) पर गंभीरता से विचार करना।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड में पलायन एक बहुआयामी समस्या है जिसके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। इस समस्या का समाधान केवल सरकारी प्रयासों से संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए एक समग्र दृष्टिकोण, सामुदायिक भागीदारी और स्थानीय स्तर पर सतत विकास के मॉडल को अपनाने की आवश्यकता है। यदि पर्वतीय क्षेत्रों में आजीविका के स्थायी अवसर सृजित किए जाएँ और जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाया जाए, तो पलायन की प्रवृत्ति को नियंत्रित किया जा सकता है और राज्य के संतुलित विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार बेरोजगारी दर में कुछ कमी और श्रम बल भागीदारी में वृद्धि सकारात्मक संकेत हैं, लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन अभी भी एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है, जिसके लिए निरंतर और केंद्रित प्रयासों की आवश्यकता है।

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