उत्तराखंड की नंदा देवी राजजात यात्रा विश्व की सबसे लंबी और अनोखी धार्मिक पदयात्राओं में से एक है। यह यात्रा न केवल गहरी आस्था का प्रतीक है, बल्कि उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, लोक परंपराओं और हिमालयी पारिस्थितिकी की अद्भुत झलक भी प्रस्तुत करती है। यह यात्रा देवी नंदा (पार्वती) को उनके मायके (पर्वतीय क्षेत्र) से ससुराल (कैलाश पर्वत) भेजने की एक पारंपरिक विदाई के रूप में आयोजित की जाती है।
उत्तराखंड की नंदा राजजात यात्रा: एक सिंहावलोकन
- नंदा राजजात यात्रा प्रत्येक 12 वर्षों में एक बार आयोजित होती है। (कभी-कभी विशेष परिस्थितियों में अंतराल भिन्न हो सकता है)।
- यह यात्रा चमोली जिले के कांसुवा गाँव के पास नौटी नामक स्थान से प्रारंभ होती है और होमकुण्ड तक जाती है।
- यात्रा की कुल दूरी लगभग 280 किलोमीटर होती है और इसे पूरा करने में 19 से 20 दिन लगते हैं।
- यात्रा का मुख्य आकर्षण चौसिंग्या खाडू (चार सींगों वाला मेढ़ा) होता है, जो देवी नंदा के साथ उनके ससुराल कैलाश तक जाता है।
- यह यात्रा गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है।
- पिछली राजजात यात्रा 2014 में आयोजित हुई थी। अगली यात्रा 2026 में प्रस्तावित है।
1. ऐतिहासिक एवं पौराणिक महत्व
- पौराणिक संदर्भ:
- माना जाता है कि देवी नंदा (पार्वती) गढ़वाल के राजाओं की कुलदेवी और कत्यूरी राजवंश की ईष्ट देवी हैं।
- यह यात्रा देवी नंदा के अपने मायके से ससुराल (कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास) जाने का प्रतीकात्मक अनुष्ठान है।
- एक अन्य मान्यता के अनुसार, यह यात्रा राजा शालिपाल द्वारा प्रारंभ की गई थी।
- ऐतिहासिक प्रारंभ:
- इस यात्रा का प्रारंभ 7वीं-8वीं शताब्दी में कत्यूरी शासकों द्वारा या 16वीं शताब्दी में गढ़वाल के पंवार शासक अजयपाल या शालिपाल द्वारा माना जाता है। (विभिन्न मत प्रचलित हैं)।
- चाँदपुर गढ़ी के पंवार शासक इसे अपनी कुलदेवी मानते थे और नौटी के कांसुवा गाँव के कुँवर यात्रा का नेतृत्व करते हैं।
2. यात्रा का मार्ग एवं प्रमुख पड़ाव
नंदा राजजात यात्रा एक कठिन और दुर्गम पदयात्रा है, जो विभिन्न ऊँचाइयों और भौगोलिक परिस्थितियों से होकर गुजरती है।
- प्रारंभिक स्थल: कांसुवा गाँव (नौटी के पास), चमोली जिला। यहाँ नंदा देवी का मंदिर है जहाँ से यात्रा शुरू होती है।
- चौसिंग्या खाडू का जन्म: यात्रा के लिए एक विशेष चार सींगों वाला मेढ़ा (खाडू) चुना जाता है, जो कांसुवा के राजपरिवार या नौटी के कुँवरों द्वारा प्रदान किया जाता है। (कुछ मान्यताओं के अनुसार यह स्वयं प्रकट होता है)।
- प्रमुख पड़ाव (क्रम में):
- {/* Removed inline style, will be handled by CSS */}
- ईड़ाबधाणी
- नौटी (यहाँ से मुख्य यात्रा प्रारंभ)
- सेम
- भगोती
- कुलसारी
- चेपड्यूँ
- नंदकेशरी (यहाँ कुमाऊँ से भी देवी की डोलियाँ और यात्री शामिल होते हैं)
- फलदियागाँव
- मुंदोली
- वाण गाँव (यात्रा का अंतिम गाँव और महत्वपूर्ण पड़ाव, यहाँ लाटू देवता का मंदिर है)
- गेरोली पाताल
- पातर नचौणिया (यहाँ यात्री नृत्य करते हैं)
- रूपकुंड (रहस्यमयी झील, जहाँ मानव कंकाल पाए जाते हैं)
- शिला समुद्र
- होमकुण्ड (यात्रा का अंतिम गंतव्य, यहाँ चौसिंग्या खाडू को देवी के उपहारों के साथ विदा किया जाता है)
- वापसी: होमकुण्ड से यात्री विभिन्न मार्गों से वापस लौटते हैं।
3. यात्रा की प्रमुख परंपराएँ एवं विशेषताएँ
- चौसिंग्या खाडू (चार सींगों वाला मेढ़ा): यह यात्रा का जीवित प्रतीक होता है। इसे देवी नंदा का वाहक माना जाता है और यह यात्रा का नेतृत्व करता है। होमकुण्ड में इसे देवी के उपहारों (रिंगाल की छंतोली में श्रृंगार सामग्री, वस्त्र आदि) के साथ आगे कैलाश की ओर भेज दिया जाता है, जिसके बाद यह वापस नहीं लौटता।
- रिंगाल की छंतोली (देवी की डोली): इसमें देवी नंदा की स्वर्ण प्रतिमा और श्रृंगार सामग्री रखी जाती है, जिसे यात्री श्रद्धापूर्वक ले जाते हैं।
- लाटू देवता: वाण गाँव में लाटू देवता का मंदिर है, जो देवी नंदा के भाई माने जाते हैं। यहाँ से लाटू देवता की छड़ी भी यात्रा में शामिल होती है।
- नृत्य एवं गायन: यात्रा के दौरान विभिन्न पड़ावों पर पारंपरिक लोकगीत और नृत्य (जैसे झोड़ा, चांचरी) किए जाते हैं।
- सामूहिक भोज: विभिन्न गाँवों में यात्रियों के लिए सामूहिक भोज का आयोजन किया जाता है।
- कठिन पदयात्रा: यह यात्रा अत्यंत दुर्गम मार्गों, ऊँचे दर्रों और विषम मौसम से होकर गुजरती है, जो श्रद्धालुओं की आस्था और सहनशक्ति की परीक्षा लेती है।
- पर्यावरण संरक्षण का संदेश: परंपरागत रूप से यह यात्रा प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव को दर्शाती है।
- यात्रा में महिलाओं की भागीदारी सीमित होती है, विशेषकर वाण गाँव के बाद।
4. यात्रा का प्रबंधन एवं महत्व
- प्रबंधन: यात्रा का प्रबंधन स्थानीय समुदायों, राजपरिवार के वंशजों (नौटी के कुँवर) और राज्य सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा मिलकर किया जाता है।
- सांस्कृतिक महत्व: यह यात्रा उत्तराखंड की लोक संस्कृति, परंपराओं, आस्थाओं और सामाजिक ताने-बाने का एक जीवंत प्रदर्शन है। यह गढ़वाल और कुमाऊँ की सांस्कृतिक एकता को भी मजबूत करती है।
- आर्थिक महत्व: यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों को रोजगार और आय के अवसर प्राप्त होते हैं।
- पर्यावरणीय महत्व: यह यात्रा हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र की नाजुकता और संरक्षण की आवश्यकता को भी उजागर करती है।
- आधुनिक चुनौतियाँ: बढ़ती श्रद्धालुओं की संख्या, पर्यावरण पर दबाव, और यात्रा मार्ग पर सुविधाओं का प्रबंधन प्रमुख चुनौतियाँ हैं।
निष्कर्ष (Conclusion)
नंदा देवी राजजात यात्रा केवल एक धार्मिक पदयात्रा नहीं, बल्कि उत्तराखंड की आत्मा का प्रतिबिंब है। यह आस्था, संस्कृति, प्रकृति और सामुदायिक जीवन का एक अद्भुत संगम है। इस अनूठी परंपरा का संरक्षण और इसे सतत रूप से जारी रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस दिव्य अनुभव से जुड़ सकें और उत्तराखंड की समृद्ध विरासत को समझ सकें।