उत्तराखंड, अपनी अद्वितीय भू-वैज्ञानिक संरचना, संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र और चरम मौसमी घटनाओं के कारण विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। इन आपदाओं से न केवल जान-माल की भारी क्षति होती है, बल्कि राज्य के सतत विकास में भी बाधा उत्पन्न होती है।
उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाएँ: एक समग्र अवलोकन
- उत्तराखंड हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है, जो इसे भूकंपों के प्रति संवेदनशील बनाता है (मुख्यतः जोन IV और V)।
- तीव्र ढलान, कमजोर चट्टानें और भारी वर्षा भूस्खलन की घटनाओं को बढ़ाती हैं।
- मानसून के दौरान बाढ़, आकस्मिक बाढ़ और बादल फटना आम हैं।
- वनाग्नि, विशेषकर ग्रीष्म ऋतु में, एक बड़ी चुनौती है।
- उच्च तुंगता वाले क्षेत्रों में हिमस्खलन और हिमनदीय झील का फटना (GLOF) का खतरा रहता है।
- राज्य में एक सुस्थापित आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA) और राज्य आपदा प्रतिवादन बल (SDRF) कार्यरत है।
1. प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ एवं उनके प्रभाव
क. भूकंप (Earthquakes)
- कारण: भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के नीचे निरंतर दबाव, जिससे विवर्तनिक गतिविधियाँ (Tectonic Activities) होती हैं। उत्तराखंड मुख्य केंद्रीय भ्रंश (Main Central Thrust – MCT) और मुख्य सीमांत भ्रंश (Main Boundary Thrust – MBT) जैसी प्रमुख भ्रंश रेखाओं के निकट स्थित है।
- प्रभाव: इमारतों का गिरना, भूस्खलन, आधारभूत संरचना को क्षति, जान-माल की हानि।
- संवेदनशील क्षेत्र: लगभग संपूर्ण राज्य, विशेषकर पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग जिले।
- प्रमुख घटनाएँ: 1991 उत्तरकाशी भूकंप (6.8 तीव्रता), 1999 चमोली भूकंप (6.6 तीव्रता)।
ख. भूस्खलन (Landslides)
- कारण: अत्यधिक वर्षा, भूकंपीय झटके, नदियों द्वारा किनारों का कटाव, वनों की कटाई, अवैज्ञानिक निर्माण गतिविधियाँ (विशेषकर सड़क निर्माण), और अस्थिर ढलान।
- प्रभाव: मार्गों का अवरुद्ध होना, कृषि भूमि का विनाश, जान-माल की हानि, आधारभूत संरचना को क्षति।
- संवेदनशील क्षेत्र: पर्वतीय ढलान वाले लगभग सभी क्षेत्र, विशेषकर मानसून के दौरान। राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे कई सक्रिय भूस्खलन क्षेत्र।
- प्रमुख घटनाएँ: प्रतिवर्ष अनगिनत छोटी-बड़ी घटनाएँ। मालपा भूस्खलन (1998), ऊखीमठ क्षेत्र (2012), केदारनाथ आपदा (2013) के दौरान व्यापक भूस्खलन।
ग. बाढ़ एवं आकस्मिक बाढ़ (Floods and Flash Floods)
- कारण: मानसून में अत्यधिक वर्षा, बादल फटना, नदियों में गाद का जमाव, हिमनदों का पिघलना, और कभी-कभी बांधों से अचानक पानी छोड़ा जाना।
- प्रभाव: निचले इलाकों में जलभराव, कृषि भूमि और फसलों का विनाश, जान-माल की हानि, बीमारियों का फैलना। आकस्मिक बाढ़ विशेष रूप से विनाशकारी होती है।
- संवेदनशील क्षेत्र: प्रमुख नदियों (गंगा, यमुना, काली, अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, पिंडर आदि) के किनारे बसे क्षेत्र और पर्वतीय घाटियाँ।
- प्रमुख घटनाएँ: 1978 में भागीरथी बाढ़ (कनोडिया गाड़ भूस्खलन झील फटने से), 2013 की केदारनाथ आपदा (मंदाकिनी और अलकनंदा में भीषण बाढ़), 2021 चमोली आपदा (धौलीगंगा और ऋषिगंगा में आकस्मिक बाढ़)।
घ. बादल फटना (Cloudbursts)
- कारण: स्थानीयकृत, तीव्र संवहनीय वर्षा, अक्सर पर्वतीय स्थलाकृति से प्रेरित। (विस्तृत जानकारी के लिए संबंधित नोट्स देखें)
- प्रभाव: अचानक बाढ़, भूस्खलन, मलबा प्रवाह, भारी जान-माल की क्षति।
- संवेदनशील क्षेत्र: पर्वतीय घाटियाँ और ढलान, विशेषकर मानसून के दौरान।
- प्रमुख घटनाएँ: मालपा (1998), केदारनाथ (2013) के आस-पास के क्षेत्र, उत्तरकाशी (2012), और राज्य के विभिन्न हिस्सों में प्रतिवर्ष।
ङ. वनाग्नि (Forest Fires)
- कारण: मुख्यतः मानवजनित (लापरवाही, जानबूझकर), प्राकृतिक कारण (आकाशीय बिजली), शुष्क मौसम, पिरूल का जमाव। (विस्तृत जानकारी के लिए संबंधित नोट्स देखें)
- प्रभाव: वन संपदा और जैव विविधता का विनाश, मृदा अपरदन, वायु प्रदूषण, जल स्रोतों पर प्रभाव।
- संवेदनशील क्षेत्र: चीड़ बहुल वन क्षेत्र, विशेषकर फरवरी से जून के मध्य।
च. हिमस्खलन एवं हिमनदीय झील का फटना (Avalanches and GLOF)
- कारण: हिमस्खलन: भारी बर्फबारी, तापमान में वृद्धि, अस्थिर बर्फ की परतें। GLOF: हिमनदों के पिघलने से बनी झीलों की प्राकृतिक दीवारों का टूटना, जिससे भारी मात्रा में पानी और मलबा अचानक नीचे आता है। जलवायु परिवर्तन एक प्रमुख कारक।
- प्रभाव: जान-माल की हानि, आधारभूत संरचना (विशेषकर जलविद्युत परियोजनाओं) को क्षति, आकस्मिक बाढ़।
- संवेदनशील क्षेत्र: उच्च हिमालयी क्षेत्र जहाँ ग्लेशियर और हिमनदीय झीलें मौजूद हैं (चमोली, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी जिले)।
- प्रमुख घटनाएँ: 2021 चमोली आपदा (ऋषिगंगा घाटी में GLOF/हिमस्खलन/भूस्खलन जनित बाढ़)।
2. उत्तराखंड में आपदा प्रबंधन तंत्र
- राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA): राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां और दिशानिर्देश।
- राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (SDMA): मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में राज्य स्तरीय योजना, समन्वय और निगरानी।
- जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (DDMA): जिलाधिकारी की अध्यक्षता में जिला स्तरीय योजना और कार्यान्वयन।
- राज्य आपदा प्रतिवादन बल (SDRF): विशेष रूप से प्रशिक्षित बल जो आपदाओं के दौरान बचाव और राहत कार्यों का संचालन करता है।
- अन्य एजेंसियां: पुलिस, अग्निशमन सेवाएं, स्वास्थ्य विभाग, लोक निर्माण विभाग, सिंचाई विभाग, वन विभाग आदि।
- राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (NDRF): गंभीर आपदाओं में राज्य की सहायता के लिए।
- संस्थान: भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) मौसम पूर्वानुमान और चेतावनी, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) भूस्खलन अध्ययन, वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान (IIRS)।
3. आपदा न्यूनीकरण एवं तैयारी के उपाय
- जोखिम मूल्यांकन एवं क्षेत्रीकरण (Hazard Risk Vulnerability Assessment – HRVA): विभिन्न आपदाओं के प्रति संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान और मानचित्रण।
- प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली (Early Warning Systems): मौसम पूर्वानुमान, डॉप्लर रडार, भूस्खलन निगरानी प्रणाली, GLOF निगरानी, और बाढ़ पूर्वानुमान को सुदृढ़ करना।
- संरचनात्मक उपाय:
- आपदा प्रतिरोधी निर्माण तकनीकों को बढ़ावा देना (भूकंपरोधी भवन, भूस्खलनरोधी दीवारें)।
- नदी तटबंधों का निर्माण और सुदृढ़ीकरण, चेक डैम का निर्माण।
- ढलान स्थिरीकरण के उपाय।
- गैर-संरचनात्मक उपाय:
- भू-उपयोग ज़ोनिंग और विनियमन, विशेषकर संवेदनशील क्षेत्रों में।
- वन संरक्षण एवं वनीकरण।
- जलसंभर प्रबंधन।
- आपदा प्रबंधन योजनाओं का निर्माण और नियमित अद्यतन (राज्य, जिला, ग्राम स्तर पर)।
- क्षमता निर्माण एवं प्रशिक्षण: सरकारी अधिकारियों, SDRF कर्मियों, और स्थानीय समुदायों का प्रशिक्षण।
- जन जागरूकता एवं सामुदायिक भागीदारी: आपदाओं के प्रति जागरूकता बढ़ाना और समुदायों को आपदा तैयारी में शामिल करना। मॉक ड्रिल का आयोजन।
- शोध एवं विकास: आपदा न्यूनीकरण और प्रबंधन तकनीकों में निरंतर सुधार के लिए अनुसंधान।
- अंतर-एजेंसी समन्वय को मजबूत करना।
4. आपदा प्रबंधन में चुनौतियाँ
- कठिन पर्वतीय भूभाग: बचाव और राहत कार्यों में बाधा, पहुँच की समस्या।
- जलवायु परिवर्तन के प्रभाव: चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि।
- अपर्याप्त संसाधन: वित्तीय और तकनीकी संसाधनों की कमी।
- जागरूकता की कमी: विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में।
- नीतियों और योजनाओं का प्रभावी कार्यान्वयन: जमीनी स्तर पर कार्यान्वयन में अंतराल।
- अवैज्ञानिक विकास गतिविधियाँ: अनियोजित शहरीकरण और निर्माण।
- प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों की सीमाएँ और अंतिम छोर तक पहुँच।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड की भौगोलिक और पर्यावरणीय परिस्थितियाँ इसे विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के प्रति स्वाभाविक रूप से संवेदनशील बनाती हैं। इन आपदाओं को पूरी तरह से रोकना संभव नहीं है, लेकिन एक व्यापक, एकीकृत और सक्रिय आपदा प्रबंधन रणनीति के माध्यम से इनके प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसमें जोखिम मूल्यांकन, प्रभावी प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, संरचनात्मक और गैर-संरचनात्मक न्यूनीकरण उपाय, क्षमता निर्माण, और सबसे महत्वपूर्ण, सामुदायिक भागीदारी शामिल है। सतत विकास के सिद्धांतों को अपनाते हुए और आपदा जोखिम न्यूनीकरण को विकास योजनाओं में मुख्यधारा में लाकर ही उत्तराखंड एक आपदा-प्रत्यास्थ (Disaster-Resilient) राज्य बन सकता है।