उत्तराखंड में भू-राजस्व (लगान) और भूमि स्वामित्व की व्यवस्था का इतिहास अत्यंत जटिल और विविध रहा है। विभिन्न शासकों – चंद, पंवार, गोरखा और ब्रिटिश – के अधीन समय-समय पर इन व्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। रैयतवाड़ी व्यवस्था, जिसमें राज्य का सीधा संबंध काश्तकार (रैयत) से होता है, के तत्व भी उत्तराखंड की भूमि व्यवस्था में विभिन्न रूपों में परिलक्षित हुए, विशेषकर ब्रिटिश काल के भूमि बंदोबस्तों के माध्यम से।
उत्तराखंड में लगान एवं रैयतवाड़ी व्यवस्था: एक सिंहावलोकन
- उत्तराखंड में परंपरागत रूप से भूमि पर सामुदायिक और व्यक्तिगत दोनों प्रकार के अधिकार प्रचलित रहे हैं।
- चंद और पंवार राजाओं के समय लगान वसूली की अपनी विशिष्ट प्रणालियाँ थीं, जिनमें पधान, थोकदार, कमीण/सयाणा जैसे अधिकारी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
- गोरखा शासन (1790-1815 कुमाऊँ में, 1804-1815 गढ़वाल में) अपनी कठोर लगान वसूली के लिए जाना जाता है।
- ब्रिटिश काल में हुए भूमि बंदोबस्तों ने लगान व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने और काश्तकारों के अधिकारों को परिभाषित करने का प्रयास किया, जिसमें रैयतवाड़ी के कुछ सिद्धांत अपनाए गए।
- खायकर और सिरतान दो प्रमुख प्रकार के काश्तकार थे, जिनके अधिकार और दायित्व भिन्न थे।
1. परंपरागत भू-राजस्व व्यवस्था (चंद एवं पंवार शासनकाल)
- चंद शासन (कुमाऊँ):
- भूमि का स्वामित्व मुख्यतः राजा का होता था।
- लगान वसूली के लिए कमीणचारी या सयाणाचारी व्यवस्था प्रचलित थी। सयाणा गाँव का मुखिया होता था और लगान वसूल कर राजकोष में जमा करता था।
- विभिन्न प्रकार के कर (लगभग 36 प्रकार के, जिन्हें ‘छत्तीस रकम-बत्तीस कलम’ कहा जाता था) प्रचलित थे, जैसे सिरती (नकद कर), बेगार (श्रम कर), ज्यूलिया (नदी पुल कर), कटक (सेना के लिए कर) आदि।
- भूमि को थात (भूमि) में विभाजित किया जाता था, और इसके मालिक थातवान कहलाते थे।
- पंवार शासन (गढ़वाल):
- यहाँ भी भूमि का स्वामित्व राजा का होता था।
- लगान वसूली के लिए पधान और थोकदार महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
- विभिन्न प्रकार के कर और बेगार यहाँ भी प्रचलित थे। मांगा, सिरती, घीकर, अदालती कर आदि।
- भूमि को नाली में मापा जाता था।
2. गोरखा शासनकाल में लगान व्यवस्था (1790/1804 – 1815)
- गोरखा शासन अपनी अत्यधिक कठोर और दमनकारी लगान वसूली के लिए कुख्यात था।
- उन्होंने भू-राजस्व को काफी बढ़ा दिया और वसूली में क्रूरता का प्रयोग किया।
- “माँगा कर” (प्रति परिवार एक रुपया) और “टीका भेंट” (शुभ अवसरों पर) जैसे नए कर लगाए गए।
- “पुँगाड़ी कर” (दस्तकारों और बुनकरों पर) भी महत्वपूर्ण था।
- किसानों की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई थी, और कई लोग पलायन करने को मजबूर हुए।
- गोरखा सूबेदार काजी बहादुर भंडारी ने 1812 में एक भूमि बंदोबस्त कराया था।
3. ब्रिटिश काल में लगान एवं रैयतवाड़ी व्यवस्था के तत्व
ब्रिटिश शासन (1815 के बाद) ने उत्तराखंड में भू-राजस्व व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए कई भूमि बंदोबस्त किए। इन बंदोबस्तों में रैयतवाड़ी व्यवस्था के कुछ तत्व स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं, जहाँ राज्य ने काश्तकारों के साथ सीधा संबंध स्थापित करने का प्रयास किया।
- भूमि बंदोबस्त और काश्तकारों के अधिकार:
- विलियम ट्रेल के बंदोबस्तों (विशेषकर 1823 का ‘अस्सी साला बंदोबस्त’) ने गाँवों की सीमाओं का निर्धारण किया और भू-राजस्व को व्यवस्थित किया।
- बैटन और बेकेट के बंदोबस्तों ने भूमि की पैमाइश, वर्गीकरण और लगान निर्धारण को और अधिक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।
- इन बंदोबस्तों के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों को दर्ज किया गया और उन्हें सुरक्षा प्रदान करने का प्रयास किया गया।
- काश्तकारों के प्रकार एवं लगान:
- खायकर (Khaykar): ये वे स्थायी काश्तकार थे जो अपनी जोत पर वंशानुगत अधिकार रखते थे और सीधे राज्य को या पधान/थोकदार के माध्यम से निश्चित लगान देते थे। इनकी स्थिति रैयतवाड़ी व्यवस्था के रैयत के समान थी।
- सिरतान (Sirtan): ये खायकरों की भूमि पर या गाँव की साझा भूमि पर खेती करने वाले अस्थायी काश्तकार थे। इन्हें खायकर को या सीधे राज्य को उपज का एक हिस्सा या नकद लगान देना पड़ता था। इनकी स्थिति अपेक्षाकृत कमजोर थी।
- hissedar ( hissedar): ये गाँव की भूमि में हिस्सेदार होते थे और सामूहिक रूप से लगान चुकाते थे।
- लगान का निर्धारण भूमि की उर्वरता (तलाऊँ, उपराऊँ), सिंचाई सुविधा और उपज के आधार पर किया जाता था।
- राजस्व अधिकारी एवं वसूली:
- पधान (Padhan): गाँव का मुखिया, जो सरकार की ओर से लगान वसूलने और गाँव के प्रशासनिक कार्यों के लिए जिम्मेदार होता था। यह पद वंशानुगत होता था।
- थोकदार (Thokdar): कई गाँवों (एक ‘थोक’ या ‘पट्टी’) का राजस्व अधिकारी, जो पधानों से लगान एकत्र कर राजकोष में जमा करता था। यह पद भी वंशानुगत और प्रभावशाली होता था।
- पटवारी (Patwari): भूमि अभिलेखों (खसरा, खतौनी) का रखरखाव और लगान निर्धारण में सहायता करने वाला सरकारी कर्मचारी। विलियम ट्रेल ने 1819 में पटवारी के 9 पद सृजित किए थे।
- ब्रिटिश सरकार ने इन पारंपरिक अधिकारियों के माध्यम से लगान वसूली की, लेकिन उनके अधिकारों को नियमित और नियंत्रित करने का भी प्रयास किया।
- रैयतवाड़ी के तत्व:
- राज्य द्वारा भूमि का सर्वेक्षण और वर्गीकरण।
- प्रत्येक जोत के लिए लगान का व्यक्तिगत निर्धारण।
- काश्तकार (विशेषकर खायकर) का राज्य के साथ सीधा संबंध (हालांकि पधान/थोकदार मध्यस्थ थे)।
- भूमि पर काश्तकार के अधिकार को मान्यता (बेदखली से कुछ हद तक सुरक्षा)।
4. स्वतंत्रता के पश्चात परिवर्तन
- उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 (1 जुलाई 1952 से लागू) ने उत्तराखंड की भूमि व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए।
- इस अधिनियम के तहत जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी गई और खायकर और सिरतान जैसे काश्तकारों को भूमिधर या सीरदार अधिकार प्रदान किए गए, जिससे वे भूमि के मालिक बन गए।
- पधान और थोकदार की राजस्व वसूली की भूमिका समाप्त हो गई, हालांकि सामाजिक रूप से उनका महत्व कुछ समय तक बना रहा।
- भू-राजस्व का निर्धारण अब राज्य सरकार द्वारा किया जाता है और पटवारी/लेखपाल इसकी वसूली करते हैं।
- भूमि की अधिकतम सीमा (सीलिंग) और चकबंदी जैसे भूमि सुधार भी लागू किए गए, हालांकि पर्वतीय क्षेत्रों में इनकी सफलता सीमित रही।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड में लगान और भूमि स्वामित्व की व्यवस्था का विकास एक क्रमिक प्रक्रिया रही है, जिसमें विभिन्न ऐतिहासिक और भौगोलिक कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चंद और पंवार राजाओं की पारंपरिक व्यवस्थाओं से लेकर गोरखा शासन की कठोर नीतियों और फिर ब्रिटिश काल के व्यवस्थित भूमि बंदोबस्तों तक, इस क्षेत्र ने कई परिवर्तन देखे। ब्रिटिश बंदोबस्तों में रैयतवाड़ी व्यवस्था के सिद्धांतों को अपनाकर काश्तकारों के अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास किया गया, जो स्वतंत्रता के बाद हुए भूमि सुधारों का आधार बना। इन सुधारों ने राज्य के ग्रामीण समाज और कृषि अर्थव्यवस्था को गहराई से प्रभावित किया है।