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उत्तराखंड में राजस्व पुलिस व्यवस्था : चुनौतियाँ और भविष्य |

उत्तराखंड की राजस्व पुलिस व्यवस्था लगभग 150 साल पुरानी एक अनूठी और औपनिवेशिक प्रशासनिक प्रणाली है, जो ब्रिटिश काल में शुरू हुई थी। इसके तहत, राजस्व विभाग के अधिकारी जैसे पटवारी, कानूनगो और तहसीलदार ही पुलिस की शक्तियों का प्रयोग करते हैं। यह व्यवस्था राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में लंबे समय तक प्रभावी रही, लेकिन बदलते समय, अपराध की बढ़ती जटिलता और कई न्यायिक हस्तक्षेपों के कारण अब इसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त कर नियमित पुलिस व्यवस्था से प्रतिस्थापित किया जा रहा है।

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • स्थापना: यह व्यवस्था ब्रिटिश कमिश्नर जी.डब्ल्यू. ट्रेल द्वारा शुरू की गई और 1874 के अनुसूचित जिला अधिनियम के तहत इसे औपचारिक रूप दिया गया।
  • व्यापकता: यह राज्य के लगभग 61% भू-भाग पर लागू थी, जिसमें लगभग 7500 राजस्व गांव शामिल थे।
  • अधिकार: राजस्व अधिकारियों (पटवारी) के पास FIR दर्ज करने, अपराधों की जाँच करने और अपराधियों को गिरफ्तार करने की शक्ति थी।
  • न्यायिक हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय ने 2004 में ही इसे बदलने की आवश्यकता जताई थी। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 2018, 2022 और फिर मई 2024 में इस व्यवस्था को समाप्त करने के स्पष्ट आदेश दिए।
  • उन्मूलन का तात्कालिक कारण: अंकिता भंडारी हत्याकांड (2022) में राजस्व पुलिस की घोर लापरवाही के बाद इस व्यवस्था को समाप्त करने की प्रक्रिया में तेजी आई।
  • वर्तमान स्थिति: सरकार ने जनवरी 2023 से इसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त करना शुरू कर दिया है, लेकिन प्रक्रिया की धीमी गति पर उच्च न्यायालय ने चिंता भी व्यक्त की है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical Background)

ब्रिटिश काल में, कुमाऊं और गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्रों को शांत और कम अपराध वाला माना जाता था। प्रशासन का खर्च कम रखने और एक सरल प्रणाली स्थापित करने के उद्देश्य से, अंग्रेज कमिश्नर जी.डब्ल्यू. ट्रेल ने पटवारियों को राजस्व कार्यों के साथ-साथ पुलिस के अधिकार भी सौंप दिए।

  • मुख्य उद्देश्य: कम लागत पर एक प्रभावी प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करना और दूर-दराज के क्षेत्रों से राजस्व एकत्र करना।
  • तत्कालीन मान्यता: पर्वतीय क्षेत्रों के लोग सीधे-सादे और शांतिप्रिय होते हैं, इसलिए यहाँ एक विस्तृत और महंगे नियमित पुलिस बल की आवश्यकता नहीं है।
  • कानूनी आधार: इस व्यवस्था को 1874 के अनुसूचित जिला अधिनियम (Scheduled Districts Act, 1874) के तहत औपचारिक रूप दिया गया, जिसने स्थानीय प्रशासन को विशेष अधिकार दिए।

संरचना और कार्यप्रणाली (Structure and Functioning)

इस प्रणाली के तहत राजस्व अधिकारियों का पदानुक्रम ही पुलिस पदानुक्रम के रूप में कार्य करता था, जो इसे एक अनूठी लेकिन जटिल व्यवस्था बनाता था।

अधिकार और शक्तियाँ

  • पटवारी/लेखपाल: अपने क्षेत्र (पटवारी चौकी) में एक पुलिस स्टेशन के एसएचओ (SHO) की तरह कार्य करता था। वह एफआईआर दर्ज कर सकता था, जांच कर सकता था और गिरफ्तारी कर सकता था।
  • कानूनगो, तहसीलदार, परगना अधिकारी (SDM): ये पटवारी के उच्च अधिकारी के रूप में कार्य करते थे और जांच की निगरानी करते थे।
  • जिलाधिकारी (DM): जिले में पुलिस अधीक्षक (SP) की भूमिका निभाता था और कानून-व्यवस्था के लिए अंतिम रूप से जिम्मेदार था। गंभीर अपराधों की जांच नियमित पुलिस को हस्तांतरित की जा सकती थी, लेकिन इसमें अक्सर देरी होती थी।

व्यवस्था की विफलता और आलोचना (System Failure and Criticism)

समय के साथ यह पुरानी व्यवस्था अप्रासंगिक और कई गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हो गई, जिसकी परिणति इसके उन्मूलन के रूप में हुई।

  • प्रशिक्षण और विशेषज्ञता का अभाव: राजस्व अधिकारियों के पास अपराध जांच, फोरेंसिक विज्ञान, साक्ष्य संग्रह, साइबर अपराध और कानून की जटिलताओं का कोई पेशेवर प्रशिक्षण नहीं होता था।
  • कार्यों का दोहरा बोझ: राजस्व वसूली, भूमि रिकॉर्ड प्रबंधन, आपदा प्रबंधन जैसे कार्यों के साथ पुलिस की जिम्मेदारी निभाने से उनकी कार्यकुशलता बुरी तरह प्रभावित होती थी।
  • बदलती अपराध की प्रकृति: पर्यटन, अनियंत्रित शहरीकरण और बाहरी दखल के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में भी जघन्य और संगठित अपराध (जैसे हत्या, अपहरण, नशीली दवाओं की तस्करी, भूमि पर अवैध कब्जे, वित्तीय धोखाधड़ी) बढ़े, जिनसे निपटने में यह प्रणाली पूरी तरह अक्षम साबित हुई।
  • जवाबदेही और निगरानी की कमी: इस प्रणाली में पुलिसिंग के लिए स्पष्ट जवाबदेही और एक स्वतंत्र निगरानी तंत्र का पूर्ण अभाव था, जिससे अक्सर लापरवाही और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला।
  • अंकिता भंडारी हत्याकांड: इस मामले ने व्यवस्था की सभी खामियों को एक साथ उजागर कर दिया। राजस्व पुलिस पर FIR दर्ज करने में देरी करने, सबूतों से छेड़छाड़ करने और आरोपियों को बचाने के गंभीर आरोप लगे, जिससे पूरे देश में व्यापक जनाक्रोश पैदा हुआ और सरकार पर इस व्यवस्था को तत्काल समाप्त करने का दबाव बना।

उन्मूलन की प्रक्रिया और वर्तमान स्थिति (Abolition Process and Current Status)

न्यायिक हस्तक्षेप की समयरेखा

  • 2004: नवीन चंद्रा बनाम राज्य सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार इस प्रणाली को बदलने की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • 2018: उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने एक मामले में इसे “असंवैधानिक” करार देते हुए समाप्त करने का आदेश दिया।
  • अक्टूबर 2022: अंकिता भंडारी मामले के बाद, राज्य कैबिनेट ने व्यवस्था को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी।
  • जनवरी 2023: राज्य सरकार ने पहले चरण में 1800 राजस्व गांवों को नियमित पुलिस के दायरे में लाने की अधिसूचना जारी की।
  • मई 2024: उच्च न्यायालय ने सरकार को एक वर्ष के भीतर पूरी तरह से व्यवस्था समाप्त करने का निर्देश दिया।
  • जून 2025: उच्च न्यायालय ने प्रक्रिया में हो रही देरी पर राज्य सरकार से स्पष्टीकरण मांगा, जो दर्शाता है कि यह मुद्दा अभी भी न्यायिक निगरानी में है।

सरकारी कार्रवाई

  • प्रथम चरण: 52 मौजूदा पुलिस थानों और 19 चौकियों का क्षेत्राधिकार बढ़ाकर उनमें राजस्व गांवों को शामिल किया गया।
  • द्वितीय चरण: 6 नए पुलिस स्टेशन (यमकेश्वर, छाम, घाट, खंस्यूं, देघाट, धौलछीना) और 20 नई पुलिस चौकियां स्थापित की गईं।
  • लक्ष्य: राज्य के सभी 100% भू-भाग को नियमित पुलिस व्यवस्था के अंतर्गत लाना।

मुख्य परीक्षा दृष्टिकोण (Mains Exam Perspective)

राजस्व पुलिस व्यवस्था का उन्मूलन: क्यों आवश्यक था? (Arguments for Abolition)

  • संविधान का उल्लंघन: यह व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन करती थी, क्योंकि यह राज्य के नागरिकों को पुलिसिंग की दो अलग-अलग और असमान प्रणालियाँ प्रदान करती थी।
  • बदलती सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ: पर्वतीय क्षेत्रों में अब केवल कृषि नहीं, बल्कि पर्यटन, जलविद्युत परियोजनाएं और अन्य आर्थिक गतिविधियां भी हैं, जिससे भूमि विवाद, श्रम विवाद और अन्य जटिल अपराध बढ़े हैं।
  • पेशेवर जांच का अभाव: पटवारी आधुनिक जांच तकनीकों जैसे डीएनए फिंगरप्रिंटिंग, साइबर फोरेंसिक, और कॉल डिटेल रिकॉर्ड विश्लेषण में अप्रशिक्षित थे, जिससे गंभीर अपराधों की जांच प्रभावित होती थी।
  • मानवाधिकारों का हनन: प्रशिक्षण की कमी के कारण जांच के दौरान मानवाधिकारों के हनन की आशंका अधिक थी।

नियमित पुलिस व्यवस्था में संक्रमण की चुनौतियाँ (Challenges in Transition)

  • वित्तीय बोझ:

    नए पुलिस स्टेशनों, चौकियों, आवासीय भवनों के निर्माण, वाहनों की खरीद और आधुनिक उपकरणों के लिए भारी धन की आवश्यकता है। एक अनुमान के अनुसार, इस पूरी प्रक्रिया में सैकड़ों करोड़ का खर्च आएगा।

  • मानव संसाधन:

    लगभग 5,000 से 6,000 अतिरिक्त पुलिसकर्मियों की भर्ती, उनका प्रशिक्षण और तैनाती एक बड़ी चुनौती है। साथ ही, मैदानी क्षेत्रों के पुलिसकर्मियों को पर्वतीय क्षेत्रों की विशिष्ट भौगोलिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलता के लिए प्रशिक्षित करना आवश्यक है।

  • बुनियादी ढाँचा:

    कई दुर्गम राजस्व गांवों में सड़क, संचार और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, जहाँ पुलिस चौकियों का निर्माण और संचालन अत्यंत कठिन है।

  • स्थानीय विश्वास और ज्ञान:

    पटवारी स्थानीय समुदाय का हिस्सा होता था और उसे स्थानीय लोगों, रास्तों और विवादों की गहरी जानकारी होती थी। नियमित पुलिस के लिए इस स्थानीय विश्वास और खुफिया जानकारी के नेटवर्क को फिर से बनाना एक चुनौती होगी।

  • प्रशासनिक जड़ता:

    राजस्व विभाग और पुलिस विभाग के बीच समन्वय स्थापित करना और दशकों पुरानी व्यवस्था को बदलने में आने वाली प्रशासनिक बाधाओं को दूर करना एक धीमी प्रक्रिया हो सकती है।

आगे की राह (The Way Forward)

  • सुविचारित और चरणबद्ध कार्यान्वयन: सरकार को एक स्पष्ट रोडमैप और समय-सीमा के साथ, पर्याप्त वित्तीय आवंटन सुनिश्चित करते हुए इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना चाहिए।
  • सामुदायिक पुलिसिंग (Community Policing): स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने के लिए सामुदायिक पुलिसिंग मॉडल अपनाना महत्वपूर्ण है। इसमें स्थानीय युवाओं को पुलिस मित्र के रूप में शामिल करना और नियमित जन-संवाद कार्यक्रम आयोजित करना शामिल हो सकता है।
  • विशेष प्रशिक्षण मॉड्यूल: पर्वतीय क्षेत्रों में तैनात होने वाले पुलिसकर्मियों के लिए विशेष प्रशिक्षण अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय बोली, संस्कृति, आपदा प्रबंधन और पर्वतीय इलाके में संचालन की तकनीकें शामिल हों।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग: ड्रोन निगरानी, जीपीएस-सक्षम गश्त और बेहतर संचार नेटवर्क जैसी तकनीकें दुर्गम क्षेत्रों में पुलिसिंग को प्रभावी बना सकती हैं।
  • पुलिस सुधारों को व्यापक रूप से लागू करना: यह केवल एक व्यवस्था का प्रतिस्थापन नहीं है, बल्कि प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए व्यापक पुलिस सुधारों को लागू करने का एक अवसर है, ताकि पुलिस को अधिक जवाबदेह, पेशेवर और जन-उन्मुख बनाया जा सके।

निष्कर्ष

उत्तराखंड में राजस्व पुलिस व्यवस्था का उन्मूलन एक ऐतिहासिक और स्वागत योग्य कदम है, जो औपनिवेशिक विरासत को समाप्त कर राज्य के सभी नागरिकों को समान और पेशेवर पुलिस सेवा प्रदान करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण सुधार है। हालांकि, इस संक्रमण की राह वित्तीय, ढांचागत और मानव संसाधन संबंधी चुनौतियों से भरी है। सरकार की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह इन चुनौतियों से कितनी प्रभावी ढंग से निपटती है और एक ऐसी आधुनिक पुलिस व्यवस्था स्थापित करती है जो न केवल अपराध को नियंत्रित करे, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों का विश्वास भी जीते और उनके मानवाधिकारों का सम्मान करे।

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