उत्तराखंड में राजस्व व्यवस्था का इतिहास राज्य के विभिन्न शासकों और प्रशासनिक प्रणालियों के विकास के साथ जुड़ा हुआ है। भू-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत रहा है, और इसकी वसूली तथा प्रबंधन के लिए समय-समय पर विभिन्न प्रणालियाँ और अधिकारी वर्ग विकसित हुए। इन व्यवस्थाओं ने न केवल राज्य की आर्थिक स्थिति को प्रभावित किया, बल्कि सामाजिक संरचना और भूमि पर लोगों के अधिकारों को भी आकार दिया।
उत्तराखंड में राजस्व व्यवस्था: एक सिंहावलोकन
- उत्तराखंड में राजस्व का मुख्य स्रोत परंपरागत रूप से भू-राजस्व (लगान) रहा है।
- चंद, पंवार, गोरखा और ब्रिटिश शासकों ने अपनी-अपनी राजस्व प्रणालियाँ लागू कीं, जिनमें विभिन्न प्रकार के कर और शुल्क शामिल थे।
- राजस्व वसूली के लिए पधान, थोकदार, कमीण/सयाणा, पटवारी जैसे अधिकारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
- ब्रिटिश काल में किए गए भूमि बंदोबस्तों ने राजस्व व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया।
- स्वतंत्रता के पश्चात, जमींदारी उन्मूलन और अन्य भूमि सुधारों ने राजस्व प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए।
- वर्तमान में, भू-राजस्व के अतिरिक्त राज्य वस्तु एवं सेवा कर (SGST), उत्पाद शुल्क, स्टांप एवं पंजीकरण शुल्क, वाहन कर आदि राज्य के प्रमुख राजस्व स्रोत हैं।
1. प्राचीन एवं मध्यकालीन राजस्व व्यवस्था
क. कत्यूरी शासनकाल
कत्यूरी शासकों के समय राजस्व व्यवस्था के बारे में विस्तृत जानकारी सीमित है, लेकिन माना जाता है कि कृषि उपज का एक भाग लगान के रूप में लिया जाता था और स्थानीय सामंतों के माध्यम से वसूली होती थी।
ख. चंद शासनकाल (कुमाऊँ)
- चंद राजाओं की आय का मुख्य स्रोत भू-राजस्व था, जिसे “सिरती” (नकद कर) या अनाज के रूप में वसूला जाता था।
- भूमि को “थात” में विभाजित किया गया था, और “थातवान” भूमि के स्वामी होते थे जो राजा को लगान देते थे।
- राजस्व वसूली के लिए कमीण या सयाणा (गाँव का मुखिया) और बूढ़ा या महर (पट्टी का अधिकारी) जिम्मेदार होते थे।
- लगभग 36 प्रकार के कर प्रचलित थे, जिन्हें सामूहिक रूप से “छत्तीस रकम-बत्तीस कलम” कहा जाता था। कुछ प्रमुख कर थे:
- ज्यूलिया/सांगा: नदी पुलों पर लगने वाला कर।
- सिरती: नकद भू-राजस्व।
- बैकर: अनाज के रूप में देय कर।
- कटक: सेना के लिए लिया जाने वाला कर।
- माँगा: युद्ध के समय या विशेष अवसरों पर लिया जाने वाला अतिरिक्त कर।
- घीकर: घी पर लगने वाला कर।
- टांडकर: बुनकरों पर लगने वाला कर।
- मिझारी: शिल्पकारों और निम्न वर्ग से लिया जाने वाला कर।
- बेगार: बिना मजदूरी के श्रम कराना।
ग. पंवार शासनकाल (गढ़वाल)
- पंवार राजाओं की आय का मुख्य स्रोत भी भू-राजस्व था, जो उपज का एक-तिहाई से आधा भाग तक होता था।
- राजस्व वसूली के लिए पधान, कमीण, सयाणा, थोकदार जैसे अधिकारी नियुक्त थे।
- प्रमुख कर:
- सिरती/मालगुजारी: मुख्य भू-राजस्व।
- माँगा: विशेष अवसरों पर।
- टीका भेंट: राजा के राज्याभिषेक या विवाह जैसे अवसरों पर।
- घीकर, अदालती शुल्क, बाजदार (बाजार कर), सलामी (नजराना) आदि।
- कूर या बेगार भी प्रचलित थी।
- अजयपाल ने राज्य की आय का लेखा-जोखा रखने के लिए सरौला ब्राह्मणों को नियुक्त किया था।
2. गोरखा शासनकाल में राजस्व व्यवस्था (1790/1804 – 1815)
- गोरखा शासन अपनी अत्यधिक कठोर और दमनकारी राजस्व वसूली के लिए जाना जाता है।
- उन्होंने भू-राजस्व की दरें काफी बढ़ा दीं और वसूली में क्रूरता का प्रयोग किया, जिससे किसानों की स्थिति दयनीय हो गई।
- प्रमुख कर:
- माँगा कर: प्रत्येक परिवार पर एक रुपया वार्षिक।
- टीका भेंट: शुभ अवसरों पर।
- पुँगाड़ी कर: भूमि कर (दस्तकारों और बुनकरों पर भी)।
- सलामी/नजराना: अधिकारियों को दिया जाने वाला उपहार।
- मिझारी: शिल्पकारों और निम्न वर्ग पर।
- अधन्नी दफ्तरी: खसरा-खतौनी के लिए।
- जान्या-सुन्या: छिपा धन।
- रहता-बहता: गाँव छोड़कर भागे लोगों की संपत्ति पर।
- गोरखा शासन में न्याय व्यवस्था भी आय का स्रोत बन गई थी (जैसे ‘दिव्य’ परीक्षा)।
- गोरखा सूबेदार काजी बहादुर भंडारी ने 1812 में एक भूमि बंदोबस्त कराया था।
3. ब्रिटिश काल में राजस्व व्यवस्था
ब्रिटिश शासन ने उत्तराखंड में भू-राजस्व व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने और इसे आय का एक स्थिर स्रोत बनाने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए।
- भूमि बंदोबस्त:
- ब्रिटिश काल में कुल 11 प्रमुख भूमि बंदोबस्त हुए, जिनका मुख्य उद्देश्य भूमि की पैमाइश, वर्गीकरण और लगान का निर्धारण करना था।
- विलियम ट्रेल, बैटन, बेकेट और पau जैसे अधिकारियों ने महत्वपूर्ण बंदोबस्त किए। (विस्तृत जानकारी के लिए “भूमि बंदोबस्त” नोट्स देखें)।
- इन बंदोबस्तों के माध्यम से खायकर और सिरतान जैसे काश्तकारों के अधिकारों को परिभाषित किया गया और लगान की दरें तय की गईं।
- राजस्व अधिकारी:
- पधान: गाँव स्तर पर लगान वसूली और शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिम्मेदार।
- थोकदार/सयाणा: कई गाँवों के समूह (पट्टी) का राजस्व अधिकारी।
- पटवारी: भूमि अभिलेखों का रखरखाव, लगान निर्धारण में सहायता और सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन। ट्रेल ने 1819 में पटवारी पद सृजित किया।
- कानूनगो: पटवारियों के कार्यों का निरीक्षण करने वाला अधिकारी।
- कुमाऊँ कमिश्नर और डिप्टी कमिश्नर राजस्व प्रशासन के शीर्ष अधिकारी होते थे।
- अन्य राजस्व स्रोत:
- वन राजस्व: वनों से लकड़ी, लीसा और अन्य उत्पादों की बिक्री से आय।
- आबकारी शुल्क: शराब और अन्य मादक पदार्थों पर।
- स्टांप शुल्क, पथकर आदि।
4. स्वतंत्रता के पश्चात राजस्व व्यवस्था
- उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 के लागू होने से भू-राजस्व प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन आया।
- जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी गई और काश्तकारों को भूमिधर अधिकार मिले।
- भू-राजस्व का निर्धारण और वसूली अब राज्य सरकार द्वारा की जाती है। पटवारी/लेखपाल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- उत्तराखंड राज्य बनने के बाद, राज्य सरकार अपनी राजस्व नीतियाँ स्वयं निर्धारित करती है।
- वर्तमान प्रमुख राजस्व स्रोत:
- राज्य वस्तु एवं सेवा कर (SGST): राज्य की आय का सबसे बड़ा स्रोत।
- राज्य उत्पाद शुल्क (State Excise Duty): शराब आदि पर।
- स्टांप एवं पंजीकरण शुल्क (Stamps and Registration Fees): भूमि और संपत्ति के लेनदेन पर।
- वाहन कर (Motor Vehicles Tax)।
- भू-राजस्व (Land Revenue): इसका योगदान अब कुल राजस्व में बहुत कम रह गया है।
- खनन से रॉयल्टी।
- वन राजस्व।
- केंद्र सरकार से प्राप्त सहायता अनुदान और करों में हिस्सा भी राज्य की आय का महत्वपूर्ण भाग है।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड की राजस्व व्यवस्था ने समय के साथ अनेक परिवर्तन देखे हैं। परंपरागत भू-राजस्व प्रणालियों से लेकर ब्रिटिश कालीन बंदोबस्तों और स्वातंत्र्योत्तर भूमि सुधारों तक, प्रत्येक चरण ने राज्य की आर्थिक और सामाजिक संरचना को प्रभावित किया है। वर्तमान में, राज्य सरकार विभिन्न करों और शुल्कों के माध्यम से राजस्व जुटाती है, जिसका उपयोग विकास कार्यों और जनकल्याणकारी योजनाओं में किया जाता है। एक कुशल और पारदर्शी राजस्व प्रशासन राज्य की प्रगति के लिए अनिवार्य है।