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परंपरागत जल स्रोत (Traditional Water Sources)

उत्तराखंड के सिंचाई के परंपरागत साधन (UPSC/PCS केंद्रित नोट्स)

उत्तराखंड की पर्वतीय कृषि मुख्यतः वर्षा पर आधारित रही है, लेकिन जल संसाधनों की उपलब्धता और उनके समुचित प्रबंधन ने सिंचाई के विभिन्न परंपरागत साधनों को भी जन्म दिया है। ये साधन न केवल कृषि उत्पादकता बढ़ाने में सहायक रहे हैं, बल्कि स्थानीय समुदायों की जल प्रबंधन की पारंपरिक बुद्धिमत्ता को भी दर्शाते हैं।

उत्तराखंड के सिंचाई के परंपरागत साधन

कुछ त्वरित तथ्य (Quick Facts):
  • उत्तराखंड में सिंचाई के प्रमुख परंपरागत साधन गूल (छोटी नहरें) और नहरें रही हैं, जो नदियों और स्थानीय जल स्रोतों से पानी खेतों तक पहुँचाती हैं।
  • पोखर (तालाब) और चाल-खाल जैसी वर्षा जल संग्रहण संरचनाएँ भी अप्रत्यक्ष रूप से सिंचाई और भूजल पुनर्भरण में मदद करती हैं।
  • नलकूप और हैंडपंप अपेक्षाकृत आधुनिक साधन हैं, जिनका प्रयोग मैदानी और कुछ घाटी क्षेत्रों में बढ़ा है, लेकिन ये परंपरागत साधनों की श्रेणी में सख्ती से नहीं आते।
  • राज्य में कुल सिंचित क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा आज भी गुरुत्वाकर्षण आधारित गूलों पर निर्भर है।
  • राज्य में सिंचित क्षेत्र का लगभग 48-49% भाग नहरों/गूलों से और लगभग 48% भाग नलकूपों से सिंचित होता है (आंकड़े भिन्न हो सकते हैं)।

1. गूल (Gul / Kuhl – छोटी नहरें/नालियाँ)

गूल उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में सिंचाई का सबसे प्रमुख और प्राचीन परंपरागत साधन है। ये छोटी, कच्ची या पक्की नालियाँ होती हैं जो नदियों, झरनों (धारों) या अन्य जल स्रोतों से पानी को गुरुत्वाकर्षण प्रवाह (gravity flow) द्वारा खेतों तक पहुँचाती हैं।

  • संरचना एवं निर्माण:
    • गूलों का निर्माण स्थानीय समुदाय द्वारा सामूहिक श्रम (हिलांश/पायड़ा प्रथा) से किया जाता था।
    • ये जल स्रोत से खेतों की ओर ढलान का अनुसरण करते हुए बनाई जाती हैं।
    • प्रारंभ में ये कच्ची होती थीं, लेकिन अब कई गूलों को पक्का (लाइनिंग) कर दिया गया है ताकि पानी का रिसाव कम हो।
  • जल वितरण एवं प्रबंधन:
    • जल का वितरण पारंपरिक नियमों और समझ के आधार पर होता था, जिसे “पारा-बंदी” या “सार” व्यवस्था कहा जाता था, ताकि सभी किसानों को बारी-बारी से पानी मिल सके।
    • गूलों का रखरखाव और मरम्मत भी सामुदायिक जिम्मेदारी होती थी।
  • महत्व:
    • पर्वतीय क्षेत्रों में सीढ़ीदार खेतों तक पानी पहुँचाने का यह सबसे प्रभावी और सस्ता तरीका है।
    • ये कृषि उत्पादकता बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण रही हैं।
    • ये जल प्रबंधन में सामुदायिक सहभागिता और पारंपरिक ज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  • वर्तमान स्थिति: आज भी उत्तराखंड के कई पर्वतीय क्षेत्रों में गूल सिंचाई का मुख्य आधार हैं। हालांकि, जल स्रोतों में कमी, रखरखाव का अभाव और आधुनिक सिंचाई प्रणालियों के प्रसार से कुछ गूलें निष्क्रिय भी हुई हैं। सरकार द्वारा गूलों के पुनरुद्धार और आधुनिकीकरण के लिए योजनाएँ चलाई जा रही हैं।

2. नहर (Naharein – Canals / Ditches)

नहरें गूलों का ही एक वृहद् और अधिक व्यवस्थित रूप होती हैं, जो बड़ी नदियों से निकाली जाती हैं और अपेक्षाकृत बड़े क्षेत्र को सिंचित करती हैं। उत्तराखंड के मैदानी और कुछ घाटी क्षेत्रों में नहर सिंचाई प्रणाली अधिक प्रचलित है।

  • प्रकार एवं निर्माण:
    • कुछ नहरें ब्रिटिश काल में या उसके बाद सरकारी प्रयासों से निर्मित की गईं, जैसे ऊपरी गंगा नहर, पूर्वी गंगा नहर (हालांकि इनका मुख्य लाभ उत्तर प्रदेश को मिलता है, पर उत्तराखंड के सीमावर्ती क्षेत्रों को भी लाभ होता है)।
    • कुछ बड़ी गूलों को भी नहर कहा जा सकता है जो अधिक क्षेत्र को सिंचित करती हैं।
    • इनका निर्माण अधिक अभियांत्रिकी कौशल से किया जाता है और ये प्रायः पक्की होती हैं।
  • महत्व:
    • मैदानी और तराई क्षेत्रों में कृषि के सघनीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका।
    • गन्ना, गेहूं, चावल जैसी फसलों के लिए सिंचाई का विश्वसनीय स्रोत।
  • उदाहरण:
    • ऊपरी गंगा नहर: हरिद्वार से निकलती है, 1842-1854 के मध्य निर्मित।
    • पूर्वी गंगा नहर: भीमगोड़ा (हरिद्वार) से निकलती है।
    • शारदा नहर: बनबसा (चम्पावत) से काली (शारदा) नदी से निकलती है।
    • इसके अतिरिक्त, राज्य में विभिन्न छोटी-बड़ी नहर प्रणालियाँ हैं।

3. पोखर/तालाब एवं चाल-खाल द्वारा सिंचाई

यद्यपि पोखर (तालाब) और चाल-खाल मुख्यतः पेयजल, पशुओं और भूजल पुनर्भरण के लिए होते हैं, तथापि कुछ क्षेत्रों में इनसे छोटे पैमाने पर जीवन रक्षक सिंचाई भी की जाती है, खासकर शुष्क मौसम में।

  • पोखर का पानी सीधे उठाकर या छोटी नालियों द्वारा खेतों तक पहुँचाया जा सकता है।
  • चाल-खाल से रिसने वाला पानी निचले क्षेत्रों में नमी बनाए रखता है और धारों/नौलों को पोषित करता है, जिनसे अप्रत्यक्ष रूप से सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हो सकता है।

4. नलकूप एवं हैंडपंप (Tube Wells and Hand Pumps)

ये सिंचाई और पेयजल के आधुनिक साधन हैं और परंपरागत साधनों की श्रेणी में सख्ती से नहीं आते। हालांकि, उत्तराखंड के मैदानी और तराई क्षेत्रों (जैसे ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार, देहरादून का कुछ भाग) में इनका प्रयोग सिंचाई और पेयजल के लिए व्यापक रूप से होता है।

  • नलकूप (Tube Wells):
    • ये भूमिगत जल को पंप द्वारा बाहर निकालने की प्रणाली है।
    • सरकारी और निजी दोनों प्रकार के नलकूप पाए जाते हैं।
    • मैदानी क्षेत्रों में गहन कृषि के लिए ये सिंचाई का महत्वपूर्ण आधार बन गए हैं।
    • अत्यधिक दोहन से भूजल स्तर में गिरावट एक चिंता का विषय है।
  • हैंडपंप (Hand Pumps):
    • ये मुख्यतः पेयजल के लिए उपयोग में लाए जाते हैं, लेकिन कुछ स्थानों पर छोटे पैमाने पर किचन गार्डन आदि की सिंचाई के लिए भी प्रयुक्त हो सकते हैं।
    • इनका प्रयोग ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में अधिक होता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

उत्तराखंड में सिंचाई के परंपरागत साधन, विशेषकर गूलें, पर्वतीय कृषि की जीवनधारा रही हैं। ये जल प्रबंधन में सामुदायिक सहभागिता और पर्यावरण के साथ सामंजस्य का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। आधुनिक सिंचाई प्रणालियों के विकास के साथ-साथ इन परंपरागत साधनों का संरक्षण, पुनरुद्धार और उन्हें वैज्ञानिक तकनीकों से जोड़ना आज की आवश्यकता है ताकि जल संसाधनों का सतत उपयोग सुनिश्चित किया जा सके और कृषि उत्पादकता में वृद्धि हो।

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