उत्तराखंड, जिसे “देवभूमि” के नाम से जाना जाता है, अपनी समृद्ध और विविध सांस्कृतिक परंपराओं के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ की परंपराएँ प्रकृति, आध्यात्मिकता और सामुदायिक जीवन के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं। ये परंपराएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती रही हैं और राज्य की अद्वितीय पहचान को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं।
उत्तराखंड की परंपराएँ: एक सिंहावलोकन
- उत्तराखंड की परंपराओं में प्रकृति पूजा का विशेष महत्व है; नदियाँ, पर्वत, वन और पशु-पक्षी पूजनीय माने जाते हैं।
- लोक कला (ऐपण, काष्ठ शिल्प), लोक संगीत (मांगल, बाजूबंद, झुमैलो), लोक नृत्य (झोड़ा, चांचरी, छोलिया) और लोकगाथाएँ (जागर, पँवाड़े) यहाँ की सांस्कृतिक जीवंतता के प्रतीक हैं।
- से संबंधित विशिष्ट पारंपरिक रीति-रिवाज और संस्कार आज भी प्रचलित हैं।
- त्योहार और मेले सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के महत्वपूर्ण अवसर होते हैं।
- सामुदायिक सहयोग (हिलांश, पड़ाल) और आतिथ्य सत्कार उत्तराखंडी समाज की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
1. सामाजिक परंपराएँ (Social Traditions)
क. जन्म संस्कार (Birth Rituals)
- जन्म के अवसर पर विभिन्न छठी (जन्म के छठे दिन) और नामकरण संस्कार महत्वपूर्ण होते हैं। किए जाते हैं।
- गणेश पूजा और स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा कर शिशु के स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना की जाती है।
ख. विवाह परंपराएँ (Marriage Traditions)
- उत्तराखंड में विवाह एक महत्वपूर्ण सामाजिक और धार्मिक संस्कार है। परंपरागत रूप से में अपने-अपने रीति-रिवाज प्रचलित हैं।
- प्रमुख चरण: वाग्दान (सगाई), गणेश पूजा, हल्दी हाथ, कन्यादान, सप्तपदी, विदाई आदि।
- मांगल गीत विवाह के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले शुभ गीत हैं।
- पिछौड़ा कुमाऊँनी महिलाओं का एक पारंपरिक रंगीन वस्त्र है जो शुभ अवसरों, विशेषकर विवाह में पहना जाता है।
- पहले का प्रचलन था, जो अब समाप्त हो चुका है। को भी सामाजिक मान्यता मिली है।
ग. मृत्यु संस्कार (Death Rituals)
- मृत्यु के उपरांत की परंपरा है।
- श्राद्ध और तर्पण कर पितरों को याद किया जाता है।
- गंगा किनारे (जैसे हरिद्वार) अस्थि विसर्जन को पवित्र माना जाता है।
घ. पारिवारिक संरचना एवं आतिथ्य
- परंपरागत रूप से का महत्व रहा है, हालांकि अब एकल परिवारों की संख्या बढ़ रही है।
- आतिथ्य सत्कार को विशेष महत्व दिया जाता है। मेहमानों को देवता तुल्य माना जाता है।
2. धार्मिक परंपराएँ (Religious Traditions)
- प्रमुख देवी-देवता:
- शिव, विष्णु, शक्ति (देवी) प्रमुख आराध्य हैं।
- स्थानीय और कुल देवता: गोलू देवता (न्याय के देवता), नंदा देवी (राज्य की अधिष्ठात्री देवी), गंगनाथ, ऐड़ी, सैम, नरसिंह, भैरव, भूमिया देवता (ग्राम देवता) आदि की पूजा व्यापक रूप से प्रचलित है।
- पूजा-पद्धति एवं अनुष्ठान:
- जागर परंपरा: यह देवताओं का आह्वान करने की एक विशिष्ट अनुष्ठानिक लोकगाथा गायन शैली है, जिसमें ढोल-दमाऊँ और थाली जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है। जगरिया (गायक) और डंगरिया (जिस पर देवता अवतरित होते हैं) प्रमुख होते हैं।
- नृत्य के साथ देवपूजा: कई स्थानीय देवताओं की पूजा में नृत्य भी शामिल होता है।
- पशु बलि की प्रथा कुछ स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा में प्रचलित थी, जो अब कम हो रही है।
- तीर्थयात्राएँ:
- चार धाम यात्रा (यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ) विश्व प्रसिद्ध है।
- पंच केदार, पंच बद्री, पंच प्रयाग भी महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल हैं।
- नंदा देवी राजजात यात्रा एशिया की सबसे लंबी पैदल धार्मिक यात्रा है, जो 12 वर्षों में एक बार आयोजित होती है।
3. लोक परंपराएँ (Folk Traditions)
क. लोक संगीत एवं वाद्य यंत्र
- लोकगीत: मांगल गीत (संस्कार गीत), बाजूबंद (प्रेम गीत), झुमैलो (नृत्य गीत), खुदेड़ गीत (विरह गीत), चौमासा (वर्षा ऋतु गीत), बारहमासा, पटखाई (उपदेशात्मक), चूरा गीत (वृद्ध चरवाहों द्वारा युवाओं को सीख) आदि प्रमुख हैं।
- प्रमुख वाद्य यंत्र: ढोल, दमाऊँ, तुरी/तुरही, रणसिंघा, हुड़का, डौंर-थाली, मशकबीन (बैगपाइपर), अलगोजा (बाँसुरी)।
ख. लोक नृत्य
- छोलिया नृत्य: कुमाऊँ का प्रसिद्ध युद्ध प्रधान नृत्य, जो तलवार और ढाल के साथ किया जाता है।
- झोड़ा नृत्य: महिलाओं और पुरुषों द्वारा घेरा बनाकर किया जाने वाला सामूहिक नृत्य।
- चांचरी/चांचड़ी: झोड़े से मिलता-जुलता नृत्य, जो मेलों और उत्सवों में किया जाता है।
- थड़िया नृत्य: गढ़वाल में मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
- सरौं नृत्य: गढ़वाल में ढोल-दमाऊँ की थाप पर तलवार-ढाल के साथ किया जाने वाला युद्ध नृत्य।
- हारुल नृत्य: जौनसार-बावर क्षेत्र का प्रमुख नृत्य, जो पांडवों की कथाओं पर आधारित होता है।
- लांगविर नृत्य: पुरुषों द्वारा खंभे पर चढ़कर किया जाने वाला साहसिक नृत्य।
- बरदा नाटी: जौनसार-बावर में धार्मिक अवसरों पर किया जाने वाला नृत्य।
- अन्य: चौंफुला (शृंगार प्रधान), भैला-भैला नृत्य (दीपावली पर), पांडव नृत्य, मंडाण।
ग. लोक कला
- ऐपण: कुमाऊँ की प्रसिद्ध धरातल अलंकरण कला, जो शुभ अवसरों पर घरों की देहरी, दीवारों और पूजा स्थलों पर गेरू और बिस्वार (चावल का घोल) से बनाई जाती है। इसमें विभिन्न चौकी (लक्ष्मी चौकी, सरस्वती चौकी), वसुधारा और ज्यामितीय आकृतियाँ होती हैं।
- पीठ/वर: चावल के आटे और हल्दी से मांगलिक अवसरों पर बनाए जाने वाले अलंकरण।
- थापा/छापा: देवी-देवताओं के चित्र या प्रतीक दीवारों पर बनाना।
- काष्ठ शिल्प: घरों के दरवाजों, खिड़कियों और मंदिरों पर सुंदर नक्काशी।
- मुखौटा कला: देवी-देवताओं और पौराणिक पात्रों के मुखौटे बनाना, जिनका प्रयोग लोकनाट्यों में होता है।
घ. पारंपरिक वेशभूषा एवं आभूषण
- महिलाओं की वेशभूषा: घाघरा (लहंगा), आंगड़ी (चोली), पिछौड़ा (कुमाऊँ में), धोती (गढ़वाल में), साड़ी।
- पुरुषों की वेशभूषा: धोती, कुर्ता, पाजामा, मिरजई (जैकेट), टोपी।
- प्रमुख आभूषण:
- गले में: हंसुली, गुलबंद, तिलहरी, चर्यो, कंठीमाला।
- नाक में: नथ (बड़ी नथुली), बुलाक, फूली।
- कान में: मुर्खली/बाली, तुग्यल, झुमके, कर्णफूल।
- हाथ में: पौंजी, धागुले (कंगन), अंगूठी।
- पैर में: पायल, बिछुए, इमरती तार/झाँवर।
- माथे पर: मांगटीका, بندی।
ङ. पारंपरिक खान-पान
- प्रमुख अनाज: मंडुआ (रोटी, बाड़ी), झंगोरा (खीर, भात), चावल, गेहूँ।
- दालें: गहत (कुलथ – फाणू, डुबके), भट्ट (च soybeansड़कानी, डुबके), उड़द, मसूर।
- सब्जियाँ: स्थानीय मौसमी सब्जियाँ, कंदमूल।
- विशेष व्यंजन: अरसा, रोट, সিঙ্গोड़ी, बाल मिठाई (अल्मोड़ा की प्रसिद्ध), चैंसू, कफली, झोई, आलू के गुटके, सिसूण का साग।
4. त्योहार एवं मेले (Festivals and Fairs)
- प्रमुख त्योहार:
- हरेला: कुमाऊँ में वर्ष में तीन बार (चैत्र, श्रावण, आश्विन) मनाया जाने वाला हरियाली और कृषि से जुड़ा त्योहार। श्रावण का हरेला अधिक महत्वपूर्ण है।
- फूलदेई/फूल संक्रांति: चैत्र मास के प्रथम दिन बच्चों द्वारा घरों की देहरी पर फूल डालने का त्योहार।
- घी संक्रांति (ओल्गिया): भाद्रपद मास में मनाया जाने वाला कृषि और पशुधन से जुड़ा त्योहार।
- खतड़वा/खतरुआ: कुमाऊँ में पशुओं के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए मनाया जाने वाला त्योहार (आश्विन संक्रांति)।
- मकर संक्रांति (घुघुतिया/काले कौवा): कुमाऊँ में आटे के घुघुते बनाकर कौओं को खिलाने की परंपरा। गढ़वाल में खिचड़ी संक्रांति।
- बिखौती/विषुवत संक्रांति: वैशाख मास में।
- नंदा देवी महोत्सव: कुमाऊँ और गढ़वाल दोनों क्षेत्रों में नंदा देवी की पूजा और मेले।
- कंडाली/किर्जी उत्सव: पिथौरागढ़ में भोटिया जनजाति द्वारा 12 वर्षों में एक बार मनाया जाने वाला उत्सव।
- अन्य राष्ट्रीय त्योहार जैसे होली, दीपावली, दशहरा भी धूमधाम से मनाए जाते हैं।
- प्रमुख मेले:
- उत्तरायणी मेला: बागेश्वर में मकर संक्रांति पर सरयू और गोमती के संगम पर लगने वाला प्रसिद्ध मेला।
- जौलजीबी मेला: पिथौरागढ़ में काली और गोरी गंगा के संगम पर लगने वाला व्यापारिक और सांस्कृतिक मेला।
- गौचर मेला: चमोली में लगने वाला ऐतिहासिक व्यापारिक और औद्योगिक मेला (प्रारंभ 1943 में बर्नेडी द्वारा)।
- पूर्णागिरी मेला: चम्पावत में पूर्णागिरी शक्तिपीठ पर लगने वाला विशाल मेला।
- नंदा देवी राजजात यात्रा: विश्व की सबसे लंबी धार्मिक पैदल यात्रा।
- कुम्भ मेला: हरिद्वार में प्रत्येक 12 वर्ष पर।
- अन्य: माघ मेला (उत्तरकाशी), देवीधुरा बगवाल मेला (चम्पावत), थल मेला (पिथौरागढ़), सोमनाथ मेला (अल्मोड़ा), विश्व मेला (जौनसार-बावर)।
5. परंपराओं का महत्व एवं संरक्षण
- सांस्कृतिक पहचान: ये परंपराएँ उत्तराखंड की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान को दर्शाती हैं और उसे अक्षुण्ण बनाए रखती हैं।
- सामाजिक समरसता: त्योहार, मेले और सामुदायिक रीति-रिवाज सामाजिक एकता और भाईचारे को बढ़ावा देते हैं।
- पर्यावरण संतुलन: प्रकृति पूजा और पारंपरिक ज्ञान पर्यावरण संरक्षण की भावना को मजबूत करते हैं।
- आधुनिकता का प्रभाव और चुनौतियाँ: वैश्वीकरण, शहरीकरण और आधुनिक जीवनशैली के कारण कई पारंपरिक मूल्य और प्रथाएँ लुप्त हो रही हैं या उनमें बदलाव आ रहा है।
- संरक्षण के प्रयास:
- सरकारी संस्थाओं (जैसे संस्कृति विभाग, भाषा संस्थान, अकादमियाँ) द्वारा संरक्षण और संवर्धन के प्रयास।
- गैर-सरकारी संगठनों और स्थानीय समुदायों द्वारा जागरूकता अभियान और कार्यक्रम।
- लोक कलाओं, संगीत और नृत्यों को मंच प्रदान करना और नई पीढ़ी को उनसे जोड़ना।
- पारंपरिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण और अनुसंधान।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड की परंपराएँ इसकी अमूल्य धरोहर हैं, जो राज्य के इतिहास, समाज और पर्यावरण के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं। इन परंपराओं का संरक्षण न केवल सांस्कृतिक विविधता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, बल्कि यह सतत विकास और सामाजिक कल्याण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। आधुनिकता के साथ पारंपरिक मूल्यों का समन्वय स्थापित करते हुए इन जीवंत परंपराओं को भविष्य की पीढ़ियों तक पहुँचाना हम सभी का दायित्व है।