उत्तराखंड राज्य का गठन एक लंबे और संघर्षपूर्ण आंदोलन का परिणाम था। इस क्षेत्र के लोगों ने अपनी विशिष्ट भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान को बनाए रखने तथा विकास की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए दशकों तक पृथक राज्य की मांग की।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन
- पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग का मुख्य आधार क्षेत्र का पिछड़ापन, संसाधनों का समुचित उपयोग न होना, और विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान थी।
- आंदोलन में छात्रों, महिलाओं, कर्मचारियों और विभिन्न सामाजिक संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
- आंदोलन ने कई उतार-चढ़ाव देखे, जिनमें शांतिपूर्ण प्रदर्शनों से लेकर उग्र घटनाएँ भी शामिल थीं।
- अंततः 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तरांचल) भारत के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन का कालक्रम (Chronology)
- 1938: श्रीनगर (गढ़वाल) में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में पं. जवाहरलाल नेहरू ने पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करने का अधिकार देने की बात कही। श्रीदेव सुमन ने पृथक राज्य की मांग उठाई।
- 1946: बद्री दत्त पाण्डेय ने हल्द्वानी में एक सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्र के लिए पृथक प्रशासनिक इकाई की मांग की।
- 1950: पर्वतीय विकास जन समिति का गठन।
- 1955: फजल अली आयोग ने पृथक राज्य की मांग को अस्वीकार किया।
- 1957: टिहरी रियासत के पूर्व महाराजा मानवेन्द्र शाह ने पृथक राज्य के लिए आंदोलन शुरू किया।
- 1967: राम नगर में पर्वतीय राज्य परिषद् का गठन (दयाकृष्ण पाण्डेय अध्यक्ष)।
- 1969: पर्वतीय विकास परिषद् का गठन।
- 1970: कुमाऊँ राष्ट्रीय मोर्चा का गठन (पी.सी. जोशी)।
- 1972: उत्तरांचल परिषद् का गठन, दिल्ली में प्रदर्शन।
- 1973: पर्वतीय राज्य मोर्चा का गठन।
- 1976: उत्तराखंड युवा परिषद् का गठन।
- 1978: उत्तरांचल राज्य परिषद् की स्थापना (त्रेपन सिंह नेगी)।
- 1979: उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) का गठन मसूरी में (डॉ. डी.डी. पंत अध्यक्ष)।
- 1987: UKD का विभाजन। काशी सिंह ऐरी अध्यक्ष बने। UKD ने हरिद्वार को प्रस्तावित राज्य में शामिल करने की मांग की। त्रिवेन्द्र पंवार ने संसद में पत्र बम फेंका।
- 1988: भाजपा ने अल्मोड़ा में पृथक राज्य का प्रस्ताव स्वीकार किया।
- 1990: UKD के विधायक जसवंत सिंह बिष्ट ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में पृथक राज्य का पहला प्रस्ताव रखा।
- 1991: उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने पृथक राज्य का प्रस्ताव केंद्र को भेजा।
- 1993: मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने राज्य की संरचना और राजधानी पर विचार के लिए कौशिक समिति का गठन किया।
- 1994 (मई): कौशिक समिति ने गैरसैंण को प्रस्तावित राजधानी के रूप में संस्तुति दी और 8 जिलों के साथ पृथक राज्य का मसौदा प्रस्तुत किया।
- 1994 (अगस्त-अक्टूबर): रामपुर तिराहा (मुजफ्फरनगर) कांड, खटीमा गोलीकांड, मसूरी गोलीकांड जैसी दुःखद घटनाएँ हुईं, जिनसे आंदोलन और तीव्र हो गया।
- 1995: श्रीनगर टापू (पौड़ी) में अनशन।
- 1996 (15 अगस्त): तत्कालीन प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखंड राज्य निर्माण की घोषणा की।
- 1998: केंद्र की भाजपा सरकार ने राष्ट्रपति के माध्यम से उत्तर प्रदेश विधानसभा को उत्तरांचल राज्य विधेयक भेजा।
- 2000:
- 27 जुलाई: उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2000 लोकसभा में प्रस्तुत।
- 1 अगस्त: लोकसभा में पारित।
- 10 अगस्त: राज्यसभा में पारित।
- 28 अगस्त: राष्ट्रपति के.आर. नारायणन द्वारा स्वीकृति।
- 9 नवंबर: उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) भारत के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
आंदोलन के प्रमुख कारण
- भौगोलिक भिन्नता और पिछड़ापन: पर्वतीय क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियाँ और मैदानी क्षेत्रों की तुलना में विकास की धीमी गति।
- सांस्कृतिक और भाषाई पहचान: अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक धरोहर और भाषाओं के संरक्षण की आकांक्षा।
- संसाधनों का समुचित उपयोग न होना: जल, जंगल और खनिजों जैसे प्राकृतिक संसाधनों का लाभ स्थानीय लोगों तक न पहुँचना।
- प्रशासनिक उदासीनता: लखनऊ (तत्कालीन राजधानी) से दूरी के कारण प्रशासनिक कार्यों में कठिनाई और स्थानीय समस्याओं की अनदेखी।
- रोजगार के अवसरों की कमी: पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के सीमित अवसर और युवाओं का पलायन।
- वन अधिकार और कुली बेगार जैसे ऐतिहासिक मुद्दे: इन आंदोलनों ने भी पृथक राज्य की चेतना को बल दिया।
प्रमुख संगठन और नेता
- संगठन: कुमाऊँ परिषद्, पर्वतीय राज्य परिषद्, उत्तरांचल परिषद्, उत्तराखंड क्रांति दल (UKD), उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति, उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी।
- नेता: श्रीदेव सुमन, बद्री दत्त पाण्डेय, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, गोविंद बल्लभ पंत, इंद्रमणि बडोनी (“उत्तराखंड का गांधी”), काशी सिंह ऐरी, डॉ. डी.डी. पंत, त्रेपन सिंह नेगी, विपिन त्रिपाठी, दिवाकर भट्ट और अनेक अन्य गुमनाम नायक।
- महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही, जिन्होंने धरनों, प्रदर्शनों और जागरूकता अभियानों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया।
आंदोलन की प्रमुख घटनाएँ और बलिदान
- खटीमा गोलीकांड (1 सितंबर 1994): शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस फायरिंग, कई शहीद।
- मसूरी गोलीकांड (2 सितंबर 1994): खटीमा कांड के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस फायरिंग, शहीद बेलमती चौहान, हंसा धनाई और पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी की मृत्यु।
- रामपुर तिराहा (मुजफ्फरनगर) कांड (2 अक्टूबर 1994): दिल्ली रैली में जा रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस द्वारा बर्बरता और गोलीबारी, अनेक शहीद और घायल। यह घटना आंदोलन का एक काला अध्याय है।
- श्रीयंत्र टापू (श्रीनगर) कांड (नवंबर 1995): अनशन पर बैठे आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज और गोलीबारी, यशोधर बेंजवाल और राजेश रावत शहीद।
- इन घटनाओं के अतिरिक्त, पूरे आंदोलन के दौरान अनेक लोगों ने गिरफ्तारियाँ दीं, यातनाएँ सहीं और अपने प्राणों की आहुति दी।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड राज्य आंदोलन एक लंबा, संघर्षपूर्ण और बलिदानों से भरा सफर था। यह आंदोलन न केवल एक भौगोलिक क्षेत्र की मांग थी, बल्कि यह इस क्षेत्र के लोगों की अस्मिता, स्वाभिमान और विकास की आकांक्षाओं का भी प्रतीक था। इस आंदोलन ने दर्शाया कि शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से भी बड़े परिवर्तन लाए जा सकते हैं, यदि जनता संगठित और दृढ़ निश्चयी हो।
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