उत्तराखंड, अपनी नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी और प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के साथ, पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य है। हालांकि, बढ़ते शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, पर्यटन दबाव और अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण राज्य में जल एवं वायु प्रदूषण की समस्याएँ भी उभर रही हैं। इन समस्याओं का समाधान सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिए अनिवार्य है।
उत्तराखंड में जल एवं वायु प्रदूषण: एक सिंहावलोकन
- गंगा नदी और उसकी सहायक नदियाँ जल प्रदूषण से सर्वाधिक प्रभावित हैं, विशेषकर मैदानी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में।
- वायु प्रदूषण की समस्या मुख्यतः मैदानी औद्योगिक शहरों (जैसे हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर, देहरादून) और प्रमुख पर्यटन स्थलों में अधिक है।
- उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (UEPPCB) राज्य में प्रदूषण नियंत्रण के लिए नोडल एजेंसी है।
- नमामि गंगे कार्यक्रम गंगा नदी के प्रदूषण को कम करने के लिए एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पहल है।
- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन और सीवेज ट्रीटमेंट राज्य के लिए प्रमुख पर्यावरणीय चुनौतियाँ हैं।
1. जल प्रदूषण (Water Pollution)
उत्तराखंड की नदियाँ और जल स्रोत जीवन का आधार हैं, लेकिन विभिन्न कारणों से ये प्रदूषित हो रहे हैं।
क. जल प्रदूषण के प्रमुख स्रोत
- घरेलू सीवेज (Domestic Sewage):
- शहरों और कस्बों से निकलने वाला अनुपचारित या आंशिक रूप से उपचारित सीवेज सीधे नदियों में मिलना एक प्रमुख समस्या है।
- विशेषकर हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून, हल्द्वानी जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में यह समस्या अधिक है।
- औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial Effluents):
- हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर (काशीपुर, सितारगंज, रुद्रपुर) और देहरादून (सेलाकुई) जैसे औद्योगिक क्षेत्रों से निकलने वाले रासायनिक और विषाक्त अपशिष्ट जल स्रोतों को प्रदूषित करते हैं।
- प्रमुख प्रदूषक उद्योगों में पेपर मिल, चीनी मिल, डिस्टिलरी, फार्मास्यूटिकल और टेक्सटाइल उद्योग शामिल हैं।
- कृषि अपवाह (Agricultural Runoff):
- खेतों में उपयोग किए जाने वाले रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का वर्षा जल के साथ बहकर नदियों और जल स्रोतों में मिलना।
- ठोस अपशिष्ट एवं कचरा (Solid Waste and Garbage):
- नदियों के किनारे और जल स्रोतों के पास प्लास्टिक, घरेलू कचरा और अन्य ठोस अपशिष्ट फेंका जाना।
- पर्यटन स्थलों पर यह समस्या अधिक गंभीर है।
- धार्मिक गतिविधियाँ एवं पर्यटन:
- धार्मिक अनुष्ठानों (जैसे मूर्ति विसर्जन, पूजा सामग्री का विसर्जन) और पर्यटन गतिविधियों से उत्पन्न कचरा भी जल प्रदूषण का कारण बनता है।
- चार धाम यात्रा और अन्य तीर्थ यात्राओं के दौरान जल स्रोतों पर दबाव बढ़ता है।
- खनन गतिविधियाँ:
- नदी तल में अवैध और अवैज्ञानिक खनन से पानी गंदला होता है और जलीय पारिस्थितिकी प्रभावित होती है।
- निर्माण गतिविधियाँ: सड़क और जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण से निकलने वाला मलबा नदियों में मिल जाता है।
ख. जल प्रदूषण के प्रभाव
- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव: प्रदूषित जल के सेवन से हैजा, टाइफाइड, पीलिया, पेचिश जैसी जल जनित बीमारियाँ फैलती हैं।
- जलीय जीवन पर प्रभाव: जल में ऑक्सीजन की कमी, विषाक्त पदार्थों की उपस्थिति से मछलियों और अन्य जलीय जीवों की मृत्यु।
- पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव: जल स्रोतों की जैव विविधता का ह्रास और पारिस्थितिक असंतुलन।
- कृषि पर प्रभाव: प्रदूषित जल से सिंचाई करने पर फसलों की गुणवत्ता और उत्पादकता प्रभावित होती है, तथा मिट्टी भी प्रदूषित होती है।
- पर्यटन पर प्रभाव: प्रदूषित जल स्रोत पर्यटन आकर्षण को कम करते हैं।
2. वायु प्रदूषण (Air Pollution)
उत्तराखंड, विशेषकर इसके मैदानी और औद्योगिक क्षेत्रों में वायु प्रदूषण भी एक बढ़ती हुई चिंता का विषय है।
क. वायु प्रदूषण के प्रमुख स्रोत
- वाहनों से उत्सर्जन (Vehicular Emissions):
- बढ़ती वाहनों की संख्या, विशेषकर देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, रुद्रपुर जैसे शहरों में, वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण है।
- पुराने और ठीक से रखरखाव न किए गए वाहन अधिक प्रदूषण फैलाते हैं।
- औद्योगिक उत्सर्जन (Industrial Emissions):
- ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार और देहरादून के औद्योगिक क्षेत्रों में स्थित कारखानों से निकलने वाला धुआँ और गैसें (जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, पार्टिकुलेट मैटर)।
- निर्माण गतिविधियाँ (Construction Activities):
- सड़क, भवन और अन्य निर्माण कार्यों से उड़ने वाली धूल और कण।
- वनाग्नि (Forest Fires):
- गर्मियों में वनों में लगने वाली आग से भारी मात्रा में धुआँ और हानिकारक गैसें वायुमंडल में फैलती हैं, जिससे वायु गुणवत्ता गंभीर रूप से प्रभावित होती है।
- कृषि अपशिष्ट और कचरा जलाना (Burning of Agricultural Residue and Waste):
- खेतों में पराली और अन्य कृषि अपशिष्ट जलाने तथा शहरों में कचरा जलाने से वायु प्रदूषण होता है।
- ईंट भट्टे और स्टोन क्रशर: इनसे भी वायु में धूलकण और धुआँ फैलता है।
ख. वायु प्रदूषण के प्रभाव
- मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव: श्वसन संबंधी रोग (अस्थमा, ब्रोंकाइटिस), हृदय रोग, आँखों में जलन, त्वचा रोग और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा।
- दृश्यता में कमी (Reduced Visibility): धुंध और स्मॉग के कारण दृश्यता कम होना, जिससे यातायात प्रभावित होता है।
- पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव: अम्लीय वर्षा, पौधों की वृद्धि में बाधा, जीव-जंतुओं पर नकारात्मक प्रभाव।
- जलवायु परिवर्तन में योगदान: ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन।
3. प्रदूषण नियंत्रण एवं प्रबंधन हेतु प्रयास
- उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (UEPPCB):
- स्थापना: 1 मई 2002 (जल (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के तहत)।
- राज्य में प्रदूषण नियंत्रण कानूनों के क्रियान्वयन, निगरानी और उद्योगों को अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने वाली नोडल एजेंसी।
- नमामि गंगे कार्यक्रम:
- गंगा और उसकी सहायक नदियों में प्रदूषण रोकने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STPs) का निर्माण और उन्नयन, औद्योगिक प्रदूषण पर नियंत्रण, ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, रिवरफ्रंट विकास।
- उत्तराखंड में इस कार्यक्रम के तहत कई शहरों में STP परियोजनाएँ चल रही हैं।
- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 का क्रियान्वयन: शहरों और कस्बों में कचरा संग्रहण, पृथक्करण और वैज्ञानिक निपटान पर जोर।
- वाहनों से उत्सर्जन नियंत्रण: प्रदूषण जांच केंद्र (PUC), पुराने वाहनों पर प्रतिबंध, BS-VI मानकों को बढ़ावा, इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन।
- औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण: उद्योगों के लिए उत्सर्जन मानक, कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (CETP) की स्थापना।
- वनाग्नि प्रबंधन योजनाएँ: वनों की आग की रोकथाम और नियंत्रण के लिए।
- जन जागरूकता अभियान और पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम।
- राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) के तहत कुछ शहरों को शामिल किया गया है।
- हरित न्यायाधिकरण (NGT) द्वारा समय-समय पर प्रदूषण नियंत्रण हेतु निर्देश।
4. प्रमुख चुनौतियाँ
- प्रभावी निगरानी और प्रवर्तन की कमी: प्रदूषण नियंत्रण कानूनों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना।
- अपशिष्ट प्रबंधन अवसंरचना का अभाव: पर्याप्त संख्या में STP, लैंडफिल साइट और कचरा प्रसंस्करण इकाइयों की कमी।
- जन जागरूकता और नागरिक जिम्मेदारी का अभाव।
- वित्तीय और तकनीकी संसाधनों की कमी।
- अंतर-विभागीय समन्वय की आवश्यकता।
- पर्वतीय क्षेत्रों की विशिष्ट भौगोलिक चुनौतियाँ प्रदूषण नियंत्रण उपायों के क्रियान्वयन में बाधा डालती हैं।
- पर्यटन का बढ़ता दबाव और उससे उत्पन्न होने वाला प्रदूषण।
निष्कर्ष (Conclusion)
उत्तराखंड के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को देखते हुए जल एवं वायु प्रदूषण का प्रभावी नियंत्रण और प्रबंधन अत्यंत आवश्यक है। सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सरकार, उद्योग, नागरिक समाज और प्रत्येक नागरिक को मिलकर प्रयास करने होंगे। प्रदूषण मुक्त वातावरण न केवल नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि राज्य की प्राकृतिक सुंदरता और पर्यटन क्षमता को बनाए रखने के लिए भी अनिवार्य है।