साहित्यिक आलोचना और उसके प्रमुख सिद्धांत – व्यापक नोट्स
परिचय
साहित्यिक आलोचना साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग है जो साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन, विश्लेषण और व्याख्या करता है। यह पाठकों को साहित्य की गहराई को समझने में सहायता करती है और साहित्यिक रचनाओं के सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों को उजागर करती है। साहित्यिक आलोचना के माध्यम से हम साहित्य की मूल्यवत्ता, उसकी प्रासंगिकता और उसकी प्रभावशीलता का आकलन कर सकते हैं।
साहित्यिक आलोचना का महत्व
- मूल्यांकन: यह साहित्यिक कृतियों के गुण और दोषों का मूल्यांकन करती है।
- व्याख्या: रचनाओं के अर्थ और संदेश को स्पष्ट करती है।
- संदर्भ: साहित्य को सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों में रखती है।
- मार्गदर्शन: पाठकों और अन्य लेखकों को साहित्य की समझ में सहायता प्रदान करती है।
- साहित्यिक विकास: आलोचना साहित्य के विकास और नई प्रवृत्तियों को जन्म देने में सहायक होती है।
साहित्यिक आलोचना की परिभाषा
साहित्यिक आलोचना वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से साहित्यिक रचनाओं का विश्लेषण, मूल्यांकन और व्याख्या की जाती है। यह रचनाओं के रूप, विषय, शैली, भाषा और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों का अध्ययन करती है। इसका उद्देश्य साहित्य के आंतरिक और बाह्य दोनों पहलुओं को उजागर करना है।
साहित्यिक आलोचना के प्रमुख सिद्धांत
साहित्यिक आलोचना के विभिन्न सिद्धांतों के माध्यम से हम साहित्यिक रचनाओं को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझ सकते हैं। निम्नलिखित कुछ प्रमुख सिद्धांत हैं:
1. अभिव्यंजनावाद (Expressivism)
परिभाषा: इस सिद्धांत के अनुसार साहित्यिक रचना लेखक की भावनाओं, विचारों और अनुभवों की अभिव्यक्ति होती है। यह लेखक की आंतरिक दुनिया और उसकी सृजनात्मक प्रक्रिया पर बल देता है।
मुख्य बिंदु:
- लेखक की व्यक्तिगत भावनाओं पर जोर।
- रचना में आत्माभिव्यक्ति का महत्व।
- साहित्य को व्यक्तिगत अनुभवों का प्रतिबिंब मानना।
- कला को कलाकार की आत्मा की अभिव्यक्ति के रूप में देखना।
- महादेवी वर्मा की कविताएँ, जहाँ वे अपनी वेदना, करुणा और रहस्यमयी भावनाओं को व्यक्त करती हैं।
- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की रचनाएँ, जो उनके व्यक्तिगत संघर्षों, विद्रोह और सामाजिक चेतना को दर्शाती हैं।
2. वस्तुनिष्ठ आलोचना (Objective Criticism)
परिभाषा: इस सिद्धांत के अनुसार साहित्यिक रचना को उसके आंतरिक तत्वों के आधार पर मूल्यांकित किया जाना चाहिए, न कि लेखक या पाठक के संदर्भ में। इसका ध्यान रचना के शिल्प, संरचना और भाषा पर केंद्रित होता है।
मुख्य बिंदु:
- रचना के शिल्प, संरचना और भाषा पर ध्यान।
- बाहरी कारकों (जैसे लेखक का जीवन, पाठक की प्रतिक्रिया) से स्वतंत्र मूल्यांकन।
- साहित्यिक उपकरणों और तकनीकों (जैसे अलंकार, छंद, बिंब) का विश्लेषण।
- कलाकृति को एक स्वतंत्र इकाई मानना।
- बिहारीलाल की ‘बिहारी सतसई’ का अध्ययन, जहाँ दोहों की संरचना, शब्द-चयन और अलंकारों का गहन विश्लेषण किया जाता है।
- तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में छंदों (जैसे चौपाई, दोहा) और अलंकारों के प्रयोग का विश्लेषण, जो काव्य की आंतरिक सुंदरता को उजागर करता है।
3. समाजवादी आलोचना (Marxist Criticism)
परिभाषा: यह सिद्धांत साहित्यिक रचनाओं का विश्लेषण सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भों में करता है। यह मानता है कि साहित्य समाज की संरचना और वर्ग संबंधों का प्रतिबिंब है।
मुख्य बिंदु:
- वर्ग संघर्ष और सामाजिक असमानताओं पर ध्यान।
- साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का साधन मानना।
- रचनाओं में सामाजिक यथार्थ और आर्थिक परिस्थितियों का चित्रण।
- उत्पादन के साधनों और शक्ति संबंधों का साहित्य पर प्रभाव।
- प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का विश्लेषण, जहाँ ग्रामीण भारत की सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ, किसानों का शोषण और वर्ग संघर्ष उजागर होता है।
- नागार्जुन की कविताएँ, जो सामाजिक अन्याय, शोषण और आम आदमी के जीवन पर प्रकाश डालती हैं।
4. मनोविश्लेषणात्मक आलोचना (Psychoanalytic Criticism)
परिभाषा: इस सिद्धांत के अनुसार साहित्यिक रचनाएँ मानव मनोविज्ञान, अवचेतन मन और मानसिक प्रक्रियाओं को प्रकट करती हैं। यह फ्रायड और युंग के सिद्धांतों से प्रभावित है।
मुख्य बिंदु:
- अवचेतन मन की अभिव्यक्ति और उसके प्रभाव का अध्ययन।
- प्रतीकों, सपनों और मिथकों का विश्लेषण।
- लेखक और पात्रों की मानसिक स्थितियों, दमित इच्छाओं और मनोवैज्ञानिक संघर्षों का अध्ययन।
- ईडिपस कॉम्प्लेक्स, इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स जैसी अवधारणाओं का प्रयोग।
- जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’, जहाँ मानव मन की गहराइयों, इच्छा, कर्म और ज्ञान के मनोवैज्ञानिक पहलुओं का अन्वेषण होता है।
- रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानियाँ, जिनमें पात्रों के आंतरिक मानसिक संघर्षों, दमित भावनाओं और मनोवैज्ञानिक जटिलताओं को दर्शाया गया है।
5. संरचनावाद (Structuralism)
परिभाषा: यह सिद्धांत रचनाओं की संरचना, भाषा और संकेतों के माध्यम से अर्थ की खोज करता है। यह मानता है कि अर्थ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि एक प्रणाली के भीतर संबंधों से उत्पन्न होता है।
मुख्य बिंदु:
- भाषा के संकेतों (साइन, सिग्निफायर, सिग्निफाइड) और संरचनाओं का अध्ययन।
- पाठ के आंतरिक संबंधों और पैटर्न का विश्लेषण।
- साहित्य को एक प्रणाली के रूप में देखना, जिसमें प्रत्येक तत्व का अर्थ उसके अन्य तत्वों से संबंध में होता है।
- साहित्यिक कृतियों में अंतर्निहित नियमों और कोडों की खोज।
- अज्ञेय की रचनाओं का विश्लेषण, जहाँ भाषा की संरचना, प्रतीक योजना और कथ्य के आंतरिक संबंधों पर विशेष ध्यान दिया गया है।
- मोहन राकेश के नाटकों में संवादों की संरचना, उनके पैटर्न और पात्रों के बीच संबंधों का अध्ययन, जो नाटक के समग्र अर्थ को प्रभावित करते हैं।
6. अलंकार सिद्धांत (Theory of Figures of Speech)
परिभाषा: भारतीय काव्यशास्त्र का यह सिद्धांत काव्य के बाह्य सौंदर्य पर केंद्रित है। यह मानता है कि काव्य में अलंकारों (शब्द और अर्थ के सौंदर्यवर्धक तत्व) के प्रयोग से चमत्कार और आकर्षण उत्पन्न होता है।
मुख्य बिंदु:
- काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों का अध्ययन।
- शब्दालंकार (अनुप्रास, यमक, श्लेष) और अर्थालंकार (उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा) का विश्लेषण।
- काव्य में सौंदर्य और प्रभावोत्पादकता में अलंकारों की भूमिका।
7. रीति सिद्धांत (Theory of Style/Composition)
परिभाषा: यह सिद्धांत काव्य की शैली या रचना पद्धति पर बल देता है। रीति का अर्थ है विशिष्ट पद-रचना या काव्य-मार्ग, जो काव्य में विशिष्ट गुणों का संचार करता है।
मुख्य बिंदु:
- काव्य की रचना-शैली और पद-विन्यास का अध्ययन।
- विभिन्न रीतियों (जैसे वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली) का विश्लेषण।
- रीति का संबंध काव्य के गुणों (जैसे ओज, प्रसाद, माधुर्य) से।
8. ध्वनि सिद्धांत (Theory of Suggestion/Implied Meaning)
परिभाषा: भारतीय काव्यशास्त्र का यह सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो काव्य के व्यंग्यार्थ या ध्वन्यार्थ पर केंद्रित है। यह मानता है कि काव्य का वास्तविक सौंदर्य उसके कहे गए अर्थ से अधिक उसके ध्वनित (सुझाए गए) अर्थ में होता है।
मुख्य बिंदु:
- शब्द के तीन प्रकार के अर्थ: वाच्यार्थ (मुख्य), लक्ष्यार्थ (लक्षणा से प्राप्त), और व्यंग्यार्थ (व्यंजना से प्राप्त)।
- काव्य में व्यंग्यार्थ की प्रधानता।
- काव्य की आत्मा ध्वनि को मानना।
9. औचित्य सिद्धांत (Theory of Propriety)
परिभाषा: यह सिद्धांत काव्य में औचित्य या उपयुक्तता पर बल देता है। इसका अर्थ है कि काव्य के सभी तत्वों (रस, अलंकार, रीति, गुण आदि) का प्रयोग उचित स्थान और मात्रा में होना चाहिए।
मुख्य बिंदु:
- काव्य के विभिन्न अंगों के उचित समन्वय पर जोर।
- रस की निष्पत्ति में औचित्य की भूमिका।
- काव्य में किसी भी तत्व की अति या कमी का दोष।
प्रमुख साहित्यिक आलोचक
हिंदी साहित्य में कई विद्वानों ने आलोचना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल (1884-1941)
परिचय:
- आधुनिक हिंदी आलोचना के प्रवर्तक और मूर्धन्य आलोचक।
- हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने में अग्रणी, उनका ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ मील का पत्थर है।
- साहित्य के साथ-साथ दर्शन, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में भी गहरी पैठ।
- हिंदी साहित्य का इतिहास: यह हिंदी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित और विस्तृत इतिहास है, जिसमें काल-विभाजन और प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।
- चिंतामणि (भाग 1, 2, 3, 4): आलोचनात्मक निबंधों का संग्रह, जिसमें भाव और मनोविकारों पर आधारित निबंध प्रमुख हैं।
- सूरदास: सूरदास की काव्य प्रतिभा और उनके भ्रमरगीत सार का गहन विश्लेषण।
- तुलसीदास: तुलसीदास के काव्य और लोक मंगल की भावना का विवेचन।
- वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण: वे साहित्य का मूल्यांकन तटस्थ भाव से करते थे।
- मनोवैज्ञानिक विश्लेषण: वे साहित्य में निहित मानवीय भावनाओं और मनोविकारों का सूक्ष्म विश्लेषण करते थे।
- रसवादी आलोचक: रस को काव्य की आत्मा मानते थे।
- भाषा में स्पष्टता, गंभीरता और प्रौढ़ता।
2. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (1907-1979)
परिचय:
- बहुमुखी प्रतिभा के धनी: उपन्यासकार, निबंधकार, आलोचक और इतिहासकार।
- हिंदी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान, भारतीय संस्कृति और दर्शन का गहन ज्ञान।
- शांतिनिकेतन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय से जुड़े रहे।
- कबीर: कबीर के व्यक्तित्व, उनके दर्शन और काव्य का गहन विश्लेषण, उन्हें ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा।
- अशोक के फूल: ललित निबंधों का संग्रह, जिसमें सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों का विश्लेषण है।
- बाणभट्ट की आत्मकथा: एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास, जिसमें सांस्कृतिक चेतना है।
- हिंदी साहित्य की भूमिका: हिंदी साहित्य के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ।
- सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण: वे साहित्य को उसके सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भों में विश्लेषित करते थे।
- गहन शोध और विस्तृत अध्ययन: उनकी आलोचना में गहन शोध और व्यापक ज्ञान की झलक मिलती है।
- भाषा में काव्यात्मकता, सौंदर्य और सहजता।
- मानवीय मूल्यों और लोक चेतना के समर्थक।
3. डॉ. नामवर सिंह (1926-2019)
परिचय:
- आधुनिक हिंदी आलोचना के प्रमुख स्तंभ और प्रगतिशील आलोचक।
- मार्क्सवादी आलोचना के सशक्त प्रवर्तक और प्रचारक।
- साहित्यिक सिद्धांतों के गहन अध्येता और व्याख्याता।
- कविता के नए प्रतिमान: आधुनिक कविता का विश्लेषण, जिसमें उन्होंने नई कविता की प्रवृत्तियों और विशेषताओं को उजागर किया।
- दूसरी परंपरा की खोज: हिंदी साहित्य की परंपराओं का पुनर्मूल्यांकन, विशेषकर कबीर, जायसी और सूरदास पर नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
- छायावाद: छायावादी कविता का गहन विश्लेषण और उसकी विशेषताओं का उद्घाटन।
- बकलम खुद: उनके भाषणों और लेखों का संग्रह।
- समाजवादी (मार्क्सवादी) दृष्टिकोण: वे साहित्य को सामाजिक परिवर्तन और वर्ग चेतना के संदर्भ में देखते थे।
- साहित्य में नवीनता और प्रयोगवाद का समर्थन: वे नई साहित्यिक प्रवृत्तियों का स्वागत करते थे।
- स्पष्ट, तर्कसंगत और प्रभावशाली भाषा शैली।
- वाद-विवाद और संवाद के माध्यम से आलोचना को गति प्रदान की।
साहित्यिक आलोचना के अन्य महत्वपूर्ण पहलू
1. पाठ केंद्रित आलोचना (Reader-Response Criticism)
परिभाषा: यह सिद्धांत पाठक के अनुभव और प्रतिक्रिया पर ध्यान केंद्रित करता है। यह मानता है कि साहित्यिक रचना का अर्थ केवल लेखक द्वारा नहीं, बल्कि पाठक द्वारा भी निर्मित होता है।
मुख्य बिंदु:
- पाठक की भूमिका महत्वपूर्ण और सक्रिय होती है।
- रचना का अर्थ पाठक के व्यक्तिगत अनुभवों, पृष्ठभूमि और व्याख्या से निर्मित होता है।
- साहित्य की बहुअर्थकता को स्वीकारना।
- पाठक और पाठ के बीच की अंतःक्रिया का अध्ययन।
2. उत्तर-आधुनिक आलोचना (Postmodern Criticism)
परिभाषा: यह सिद्धांत परंपरागत मूल्यों, सिद्धांतों और महा-कथाओं को चुनौती देता है। यह विविधता, बहुलता, विखंडन और सापेक्षता पर जोर देता है।
मुख्य बिंदु:
- सत्य और अर्थ की अस्थिरता और सापेक्षता।
- परंपरागत संरचनाओं और वर्गीकरणों का विखंडन।
- साहित्य में नवीनता, प्रयोग और विभिन्न शैलियों का मिश्रण।
- मेटा-कथाओं (grand narratives) का अस्वीकरण।
3. संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद में अंतर
संरचनावाद (Structuralism): यह मानता है कि भाषा और साहित्य में एक निश्चित संरचना होती है जिसके माध्यम से अर्थ उत्पन्न होता है। यह अर्थ को स्थिर और खोजा जा सकने वाला मानता है। यह प्रणाली के भीतर के संबंधों पर केंद्रित है।
उत्तर-संरचनावाद (Post-Structuralism): यह संरचनावाद की मान्यताओं को चुनौती देता है। यह मानता है कि भाषा और अर्थ अस्थिर और बहुआयामी होते हैं। यह पाठ के भीतर विरोधाभासों, अनुपस्थितियों और विखंडन पर जोर देता है, जिससे अर्थ की कोई निश्चित व्याख्या संभव नहीं होती। यह प्रणाली की सीमाओं और अस्थिरता पर केंद्रित है।
छात्रों के लिए सुझाव
- आलोचना के सिद्धांतों को समझें: विभिन्न आलोचनात्मक दृष्टिकोणों का गहन अध्ययन करें और उनके मूल सिद्धांतों को आत्मसात करें।
- रचनाओं का विश्लेषण करें: साहित्यिक रचनाओं को केवल पढ़ने के बजाय, उन्हें विभिन्न सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित करने का प्रयास करें।
- प्रमुख आलोचकों के कार्यों का अध्ययन करें: आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह जैसे प्रमुख आलोचकों की मूल रचनाएँ पढ़ें।
- सृजनात्मक आलोचना: स्वयं से रचनाओं का मूल्यांकन और विश्लेषण करने का प्रयास करें। अपनी आलोचनात्मक दृष्टि विकसित करें।
- तुलनात्मक अध्ययन: एक ही रचना का विभिन्न आलोचनात्मक दृष्टिकोणों से तुलनात्मक अध्ययन करें।
- नियमित लेखन अभ्यास: आलोचनात्मक लेखन का नियमित अभ्यास करें, जिससे आपकी भाषा और तर्क शक्ति मजबूत होगी।
निष्कर्ष
साहित्यिक आलोचना साहित्य को समझने, व्याख्या करने और मूल्यांकित करने का एक अनिवार्य उपकरण है। इसके विभिन्न सिद्धांत (जैसे अभिव्यंजनावाद, वस्तुनिष्ठ आलोचना, समाजवादी आलोचना, मनोविश्लेषणात्मक आलोचना, संरचनावाद, और भारतीय काव्यशास्त्र के अलंकार, रीति, ध्वनि, औचित्य सिद्धांत) हमें साहित्य के बहुआयामी स्वरूप को समझने में मदद करते हैं। प्रमुख आलोचकों के योगदान को समझना और विभिन्न सिद्धांतों के बीच के सूक्ष्म अंतरों को पहचानना इस क्षेत्र में निपुणता प्राप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। नियमित अध्ययन, विश्लेषण और लेखन अभ्यास से आप साहित्यिक आलोचना के क्षेत्र में अपनी गहरी समझ विकसित कर सकते हैं।
साहित्यिक आलोचना और उसके प्रमुख सिद्धांत – क्विज़
अपनी तैयारी परखें
साहित्यिक आलोचना और उसके प्रमुख सिद्धांतों से संबंधित इन प्रश्नों के उत्तर देकर अपनी समझ को मजबूत करें। प्रत्येक प्रश्न के बाद सही उत्तर दिया गया है।
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1. साहित्यिक आलोचना का मुख्य कार्य क्या है?
उत्तर: B) साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन, विश्लेषण और व्याख्या करना
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2. ‘अभिव्यंजनावाद’ सिद्धांत किस पर बल देता है?
उत्तर: B) लेखक की भावनाओं और अनुभवों की अभिव्यक्ति पर
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3. महादेवी वर्मा की कविताएँ किस आलोचना सिद्धांत का श्रेष्ठ उदाहरण हैं?
उत्तर: C) अभिव्यंजनावाद
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4. ‘वस्तुनिष्ठ आलोचना’ के अनुसार साहित्यिक रचना का मूल्यांकन किस आधार पर होना चाहिए?
उत्तर: C) उसके आंतरिक तत्वों (शिल्प, संरचना, भाषा) के आधार पर
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5. ‘बिहारी सतसई’ का अध्ययन किस आलोचना सिद्धांत का उदाहरण हो सकता है, जहाँ दोहों की संरचना और अलंकारों का विश्लेषण किया जाता है?
उत्तर: C) वस्तुनिष्ठ आलोचना
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6. ‘समाजवादी आलोचना’ साहित्यिक कृतियों का विश्लेषण किस संदर्भ में करती है?
उत्तर: C) सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भों में
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7. प्रेमचंद के उपन्यास ‘गोदान’ का विश्लेषण किस आलोचना सिद्धांत के तहत किया जा सकता है, जो ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ उजागर करता है?
उत्तर: C) समाजवादी आलोचना
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8. ‘मनोविश्लेषणात्मक आलोचना’ साहित्यिक रचनाओं में किसकी अभिव्यक्ति की खोज करती है?
उत्तर: C) मानव मनोविज्ञान, अवचेतन मन और मानसिक प्रक्रियाओं की
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9. जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ का अध्ययन किस आलोचना सिद्धांत के तहत किया जा सकता है, जहाँ मानव मन की गहराइयों का अन्वेषण होता है?
उत्तर: C) मनोविश्लेषणात्मक आलोचना
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10. ‘संरचनावाद’ सिद्धांत रचनाओं में किसकी खोज करता है?
उत्तर: C) संरचना, भाषा और संकेतों के माध्यम से अर्थ की
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11. मोहन राकेश के नाटकों में संवादों की संरचना का अध्ययन किस आलोचना सिद्धांत से संबंधित है?
उत्तर: C) संरचनावाद
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12. भारतीय काव्यशास्त्र का कौन सा सिद्धांत काव्य के ‘बाह्य सौंदर्य’ और ‘अलंकारों’ के प्रयोग पर केंद्रित है?
उत्तर: C) अलंकार सिद्धांत
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13. ‘रीति सिद्धांत’ काव्य की किस विशेषता पर बल देता है?
उत्तर: B) शैली या रचना पद्धति पर
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14. भारतीय काव्यशास्त्र का कौन सा सिद्धांत काव्य के ‘व्यंग्यार्थ या ध्वन्यार्थ’ पर केंद्रित है?
उत्तर: C) ध्वनि सिद्धांत
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15. ‘औचित्य सिद्धांत’ काव्य में किस पर बल देता है?
उत्तर: C) उपयुक्तता या औचित्य पर
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16. आधुनिक हिंदी आलोचना के प्रवर्तक के रूप में किसे जाना जाता है?
उत्तर: C) आचार्य रामचंद्र शुक्ल
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17. ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (प्रथम व्यवस्थित और विस्तृत इतिहास) किसकी रचना है?
उत्तर: C) आचार्य रामचंद्र शुक्ल
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18. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना की प्रमुख विशेषता क्या है?
उत्तर: B) वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण
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19. ‘कबीर’ और ‘अशोक के फूल’ किसकी प्रमुख रचनाएँ हैं?
उत्तर: C) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
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20. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना की विशेषता क्या है?
उत्तर: C) सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
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21. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ किसकी रचनाएँ हैं?
उत्तर: C) डॉ. नामवर सिंह
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22. डॉ. नामवर सिंह किस आलोचनात्मक दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं?
उत्तर: C) समाजवादी (मार्क्सवादी) आलोचना
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23. ‘पाठ केंद्रित आलोचना’ किस पर ध्यान केंद्रित करती है?
उत्तर: C) पाठक के अनुभव और प्रतिक्रिया पर
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24. ‘उत्तर-आधुनिक आलोचना’ किस पर जोर देती है?
उत्तर: C) विविधता, बहुलता और विखंडन पर
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25. संरचनावाद और उत्तर-संरचनावाद में मुख्य अंतर क्या है?
उत्तर: A) संरचनावाद अर्थ को स्थिर मानता है, जबकि उत्तर-संरचनावाद उसे अस्थिर और बहुआयामी मानता है।
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26. साहित्यिक आलोचना का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य क्या है?
उत्तर: B) साहित्य की गहराई को समझने में सहायता करना
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27. ‘आत्माभिव्यक्ति का महत्व’ किस आलोचना सिद्धांत का मुख्य बिंदु है?
उत्तर: B) अभिव्यंजनावाद
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28. ‘रचना के शिल्प, संरचना और भाषा पर ध्यान’ किस आलोचना सिद्धांत की विशेषता है?
उत्तर: B) वस्तुनिष्ठ आलोचना
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29. ‘वर्ग संघर्ष और सामाजिक असमानताओं पर ध्यान’ किस आलोचना सिद्धांत का केंद्रीय विषय है?
उत्तर: C) समाजवादी आलोचना
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30. फ्रायड और युंग के सिद्धांतों से प्रभावित आलोचना सिद्धांत कौन सा है?
उत्तर: C) मनोविश्लेषणात्मक आलोचना
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31. ‘काव्य की आत्मा ध्वनि को मानना’ किस भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांत की विशेषता है?
उत्तर: C) ध्वनि सिद्धांत
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32. आचार्य रामचंद्र शुक्ल को किस प्रकार का आलोचक माना जाता है?
उत्तर: B) रसवादी और वस्तुनिष्ठ
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33. ‘कबीर’ (आलोचनात्मक कृति) के लेखक कौन हैं?
उत्तर: C) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
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34. डॉ. नामवर सिंह को ‘मार्क्सवादी आलोचना’ के सशक्त प्रवर्तक के रूप में क्यों जाना जाता है?
उत्तर: B) उन्होंने साहित्य को सामाजिक परिवर्तन और वर्ग चेतना के संदर्भ में देखा।
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35. ‘पाठक की भूमिका महत्वपूर्ण और सक्रिय होती है’ यह किस आलोचना सिद्धांत का केंद्रीय विचार है?
उत्तर: C) पाठ केंद्रित आलोचना
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36. कौन सा सिद्धांत परंपरागत मूल्यों और सिद्धांतों को चुनौती देता है और विविधता, बहुलता पर जोर देता है?
उत्तर: C) उत्तर-आधुनिक आलोचना
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37. ‘काव्य में औचित्य या उपयुक्तता’ पर बल देने वाला भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांत कौन सा है?
उत्तर: C) औचित्य सिद्धांत
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38. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की किस रचना में भाव और मनोविकारों पर आधारित निबंधों का संग्रह है?
उत्तर: B) चिंतामणि
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39. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को क्या कहा है?
उत्तर: B) वाणी का डिक्टेटर
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40. डॉ. नामवर सिंह की ‘छायावाद’ नामक कृति किस विषय पर केंद्रित है?
उत्तर: C) छायावादी कविता
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41. ‘साहित्य को एक प्रणाली के रूप में देखना’ जिसमें प्रत्येक तत्व का अर्थ उसके अन्य तत्वों से संबंध में होता है, किस सिद्धांत की विशेषता है?
उत्तर: C) संरचनावाद
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42. ‘उत्पादन के साधनों और शक्ति संबंधों का साहित्य पर प्रभाव’ किस आलोचना सिद्धांत का मुख्य बिंदु है?
उत्तर: B) समाजवादी आलोचना
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43. ‘प्रतीकों, सपनों और मिथकों का विश्लेषण’ किस आलोचना सिद्धांत में महत्वपूर्ण है?
उत्तर: C) मनोविश्लेषणात्मक आलोचना
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44. ‘सत्य और अर्थ की अस्थिरता और सापेक्षता’ किस आलोचना सिद्धांत की प्रमुख विशेषता है?
उत्तर: B) उत्तर-आधुनिक आलोचना
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45. ‘काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वों का अध्ययन’ किस भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांत का विषय है?
उत्तर: C) अलंकार सिद्धांत
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46. ‘वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली’ किस भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांत से संबंधित हैं?
उत्तर: B) रीति सिद्धांत
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47. ‘आनंदवर्धन’ और ‘अभिनवगुप्त’ किस भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांत के प्रमुख आचार्य हैं?
उत्तर: C) ध्वनि सिद्धांत
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48. ‘क्षेमेंद्र’ किस भारतीय काव्यशास्त्रीय सिद्धांत के प्रमुख आचार्य हैं?
उत्तर: D) औचित्य सिद्धांत
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49. ‘दूसरी परंपरा की खोज’ में डॉ. नामवर सिंह ने किन कवियों पर नए दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं?
उत्तर: B) कबीर, जायसी, सूरदास
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50. ‘बकलम खुद’ किसकी रचना है, जिसमें उनके भाषणों और लेखों का संग्रह है?
उत्तर: C) डॉ. नामवर सिंह